सोमवार, 23 अप्रैल 2012

चाबी वाला पत्थर और कस्तूरी की खुश्बू : गुजरात की ओर

ई महीनों से गुजरात यात्रा करने विचार था लेकिन कोई न कोई अवरोध यात्रा में उत्पन्न होने के कारण जाना नहीं हो पा रहा था। पिछले 14 दिसम्बर को मित्र नामदेव जी ने गुजरात जाने की बात कही और मैं सहर्ष तैयार हो गया। अभी नवम्बर में ही हमने एक लम्बी यात्रा की थी, तब भी जाने का मन बना लिया। 15 तारीख को टिकिट ली, गुजरात जाने वाली सभी गाड़ियाँ फ़ुल पैक थी। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस कांड के बाद हावड़ा रुट से आने वाली सभी गाड़ियाँ रास्ते में रोक दी जाती हैं। जिससे वे 8 से 10 घंटे विलम्ब से चला करती हैं। रेल्वे की वेब साईट में इनका चलने का सही समय  नहीं बताया जाता। जिसके कारण समस्या खड़ी हो जाती है। इसलिए हमने पुरी अहमदाबाद एक्सप्रेस से टिकिट ली। इस ट्रेन से जाने की सलाह एक जानकार मित्र ने दी। यही ट्रेन रायपुर से सही समय पर चलती है। स्लीपर में टिकिट लेने पर ईमरजेंसी कोटे से कन्फ़र्म होने की गारंटी रहती है। एक बार हमने एसी फ़र्स्ट की टिकिट लेकर स्लीपर में दिल्ली से रायपुर तक सफ़र किया और उसमें भी बैठने की जगह नहीं मिली। इसलिए तब से चेत गए और स्लीपर की टिकिट ही लेने लगे, क्योंकि स्लीपर की बोगियाँ अधिक होने के कारण टिकिट कन्फ़र्म होने की संभावना अधिक रहती है। 15 तारीख को पी एन आर ईमरजेंसी कोटे में लगाया और 16 को स्टेशन पहुंच गए। एक सीट कन्फ़र्म मिली, एक सीट का इंतजाम ट्रेन में ही कर लेगें, पता चला कि पुरी अहमदाबाद में रायपुर से सिर्फ़ एक ही बर्थ का कोटा है।

सुबह जल्दी उठकर अपना सामान लेकर रायपुर पहुंचें। बाईक अशोक भाई के यहाँ छोड़ी और महेन्द्र ने स्टेशन पहुंचाया। रायपुर से जब ट्रेन में चढे तो भारी भीड़ का सामना करना पड़ा। हावड़ा रुट की ट्रेन लेट होने के कारण रायपुर से अहमदाबाद की सभी सवारियाँ इसी ट्रेन में जाना पसंद करती हैं। रायपुर स्टेशन में अब काफ़ी बदलाव हो रहे हैं। नई बिल्डिंग के साथ 1 नम्बर प्लेटफ़ार्म पर मॉल बनाने का काम भी जारी है। ट्रेन चलने पर नाश्ता करने की याद आई, नामदेव जी को दुर्ग से बैठना था। हमने थोड़ा सा नास्ता किया और अपनी दैनिक टेबलेट लेकर दुर्ग स्टेशन का इंतजार करने लगे। दुर्ग स्टेशन में नामदेव जी पहुंचे, उन्हे बोगी एवं सीट नम्बर बता दिया था। हर सीट पर दो-दो एक्स्ट्रा सवारी थी। हमारी सीट का भी वही हाल था। नामदेव जी ने बैग से गर्मा गर्म रोटी और सब्जी निकाली और कहा कि फ़टाफ़ट खा लो ठंडी हो जाएगीं। अंटी जी ने आपके लिए सुबह का नाश्ता भेजा है। हमने कुछ रोटियाँ गर्मागरम सब्जी के साथ खाई। साथ ही सहयात्रियों की बात सुनते रहे। एक गुज्जु जोड़ा चढा दुर्ग से उसकी भी एक ही बर्थ थी। बीबी बैठ गयी सीट पर मियां खड़ा रहा। ट्रेन चलने पर वह भी उसी सीट पर समाहित हो गया।

की स्टोन याने चाबी वाला पत्थर
सुबह मैने जब मोबाईल देखा तो उसमें दो मेसेज थे, सुर्यकांत गुप्ता जी ने पाय लागी लिख रखी थी। उन्हे फ़ोन करने पर पता चला कि वे नागपुर में ही हैं। हमने उन्हे गुजरात जाने की सूचना दी तो उन्होने नागपुर ट्रेन पहुंचने का समय पूछा। फ़िर संध्या शर्मा जी का फ़ोन आया, उन्होने कहा कि खाने में क्या लेगें। नो फ़ार्मेलिटी, मैने कहा कि खाने में तो बहुत कुछ साथ ही बांध रखा है। वे जिद पर अड़ी रही तो मैने चावल खाने की इच्छा जाहिर की। सामने साईड लोवर बर्थ पर एक सज्जन दुर्ग से ही चढे थे। हाव भाव से मिलेट्री या पैरा मिलेट्री फ़ोर्स से संबंधित लग रहे थे। सहयात्रियों को उनका प्रवचन जारी था। नामदेव जी पेशे से इंजीनियर हैं। उनके साथ पहले के निर्माणों की चर्चा हो रही थी कि कैसे मेहराब पर चाबी वाला पत्थर लगाया जाता था जिससे चाबी वाले पत्थर के कारण मेहराब के वजन पर पुरी इमारत खड़ी रहती थी। नामदेव जी कहने लगे कि अभी के इंजीनियर्स को पता भी नही कीस्टोन (चाबी वाला पत्थर) क्या होता है। तभी वाणगंगा पर अंग्रेजों का बनाया पुराना पुल आ गया, जिसमें कीस्टोन लगा था। हमने पुल देख कर कैमरा क्लिक किया और कीस्टोन हमारे कब्जे में था।

सूर्यकांत गुप्ता जी
शनै शनै चलते हुए आस पास झोंपड़ पट्टियाँ नजर आने लगी, समझ गए कि नागपुर आने वाला है। रायपुर से आते समय नागपुर स्टेशन के पहले बाएं की तरफ़ एक बौद्ध विहार बना हुआ है। जिसमें बुद्ध की बहुत बड़ी प्रतिमा लगी है। यह दो निशानियाँ नागपुर पहुंचने की सूचना देती हैं। संध्या जी और सूर्यकांत गुप्ता जी का फ़ोन आ चुका था कि वे स्टेशन पर पहुंच चुके हैं। यहाँ ट्रेन के ठहराव मात्र 10  मिनट का है। इसलिए मैं पहले ही दरवाजे पर आ गया। ट्रेन रुकने पर दरवाजे उतरते ही सामने देखा तो संध्या जी सपति उपस्थित थीं। उनसे नमस्ते ही हुई थी इतनी देर में सूर्यकांत गुप्ता जी भी अपने साथी ठाकुर साहब के साथ पहुंच गए। उन्होने तुरंत एक पैकेट थमाया और कहा कि -"जुड़ के दवई हे, बिहनिया, मंझनिया अउ रतिया तीन खुराक लेबे।" मैने उन्हे धन्यवाद देकर पैकेट लिया। संध्या जी गर्मागरम पुलाव बना कर लाई थी। उनका पैकेट भी ग्रहण किया। शर्मा जी से मुलाकात अच्छी रही। कुछ बात कर पाते तब तक ट्रेन ने सीटी बजा दी। हमने मित्रों से विदा ली और सवार हो गए पुन: गाड़ी में। 2 बज रहे थे, चावल देखकर भूख लगने लगी। दो डिब्बों में गर्मागरम उम्दा पुलाव था, छोटा डिब्बा नामदेव जी ने संभाला और बड़ा डिब्बा हमने। फ़टाफ़ट सारा पुलाव चट कर गए। बड़ा ही लजीज खाना था। संध्या जी ने मीठे में सिर्फ़ दो ही लड्डू दिए थे। लगा कि खाने का बहुत ख्याल रखती हैं। उनका यह काम पसंद आया।

सहयात्री
भोजन करने के पश्चात कुछ देर आराम करने की इच्छा हुई। नामदेव जी सोना चाहते थे, साईड अपर बर्थ खाली थी। हम खैनी घिसते हुए बर्थ पर बैठे फ़ौजी नुमा व्यक्ति के पास पहुंच गए, वे खाली बैठे थे। हमने खैनी ऑफ़र की और चर्चा शुरु हो गयी। नामदेव जी उपर की बर्थ पर सो गए। हमारी बर्थ पर और लोग एडजेस्ट हो गए। फ़ौजी नुमा व्यक्ति हमारे गांव के पास के शर्मा जी निकले। उनके घर से लेकर पुरी रिश्तेदारी तक की चर्चा हो गयी। वे मेहसाणा के ओएनजीसी प्लांट में सीआईएसएफ़ के मुलाजिम सिक्योरिटी ऑफ़िसर हैं। अब उनसे चर्चा होते रही। ट्रेन आगे बढती रही। उन्होने बताया कि सारे भारत का भ्रमण किया है, कहीं भी 4 साल से अधिक नौकरी नहीं की। 4 साल बाद ट्रांसफ़र हो ही जाता है। अभी मेहसाणा में पदस्थ हैं छत्तीसगढिया परम्परानुसार उन्होने चावल की बोरी साथ बांध रखी थी क्योंकि छत्तीसगढ जैसे चावल और कहीं नहीं मिलते। हमें तो यहीं के चावल पसंद है, अगर दिन में एक बार चावल खाने नहीं मिला तो दिन खराब हो जाता है और दो बार मिल गया तो समझो पौ बारह। इसीलिए हमने संध्या जी से चावल खिलाने का आग्रह किया था। चावल के प्रति दीवानगी का यह आलम है कि एक बार श्रीमती जी ने चावल नहीं बनाए तो मैने होटल में जाकर खाए थे। अन्यथा अतृप्ति महसूस होते रहती, रात की नींद हराम हो जाती।

कस्तुरी का थोक चलित विक्रय केन्द्र
विनोद गुप्ता जी का फ़ोन आ गया, उन्होने बताया कि गेस्ट हाऊस बुक कर दिया है और सुबह 7 बजे स्टेशन पर गाड़ी लेने पहुंच जाएगी। आराम से स्नान ध्यान करना फ़िर मिलते हैं। गाड़ी का नम्बर और ड्रायवर का फ़ोन एसएमएस करता हूँ। लो जी अहमदाबाद में सारी व्यवस्था हो चुकी थी। अब रात को चैन की नींद लेकर सुबह अहमदाबाद पहुंच जाएगें। इधर शाम हो चुकी थी। हमने और महाराज ने एक-एक चाय ली और नामदेव जी को जगाया। वे मस्त नींद में थे, समय का सार्थक उपयोग सोना ही है। सफ़र में जब मन करे सो जाओ, सफ़र कट जाएगा। तभी एक औरत बच्चे को गोदी में लटकाए, बड़ा सा गांधी झोला टांगे कस्तूरी बेच रही थी। महाराज के पूछने पर उसने 300 रुपए जोड़े में बेचना बताया। महाराज से हमारी बात छत्तीसगढी में चल रही थी। महाराज ने मुझसे कहा कि सौ रुपए में मांग के देखते हैं अगर दे दे तो। मैने कहा कि 50 में भी मागोंगे तो दे देगी। उससे अधिक मत बोलना। महाराज ने 50 रुपए जोड़ी कहे तो वह आगे बढ गयी। फ़िर वापस आकर 50 रुपए जोड़ी में ही कस्तूरी दे दी। मैने उसके बैग को पहले ही टटोल कर देख लिया था। उसमें लगभग 200 से अधिक कस्तूरी होगी। इससे विश्वास हो गया था कि नकली है। 

येल्लो जी भुसावल आ गया
वह कस्तूरी देकर चली गयी तो महाराज ने उसे हथेली पर रगड़ कर देखा तो उस पर लगा काला रंग निकलने लगा। एक कस्तूरी सफ़ेद रंग की थी और एक काले रंग की। खुश्बू तो अच्छी आ रही थी। कस्तूरी वाली ने कस्तूरी की पहचान करने का तरीका दिखाया था कि उसे हाथ की मुट्ठी में बांध कर हथेली की उल्टी तरफ़ से कहीं भी रगड़ने से उस स्थान पर खुश्बू आ जाती है। महाराज संतुष्ट थे 50 रुपए में दो कस्तूरी खरीद कर। भोजन का समय होने पर अब हमने साथ ही खाना खाया, छत्तीसगढी में कहते हैं "मार सगा सगा ला, अउ काट सगा सगा ला।" महाराज की खपुर्री रोटी मेरे काम आई और मेरे गोभी के पराठे जबरदस्ती महाराज को टिका दिए। अब 4 तरह की सब्जी और आम के मीठे मुरब्बे के साथ 3 तरह का आचार 2 तरह के लड्डू और साथ में केले। शाही भोजन हो गया। लड्डू मैने नहीं खाए, पर भोजनोपरांत केले का स्वाद जरुर लिया। रात बढती जा रही थी। भुसावल पहुंचने के बाद सुबह का इंतजार था, जब चौधरी की चाय के साथ नींद खुले। क्रमश..........आगे पढें
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