शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

जवान कांवडीया चल बसा रास्ते में---यात्रा--12

सुबह5 बजे उठकर स्नान किया और नास्ता करके 6 बजे सबने पूजा करके जल उठाया और रामपुर की ओर चल पड़े। मैं और दिनेश यात्रा में आगे ही चल रहे थे। तभी रामपुर में एक होटल से हमे किसी ने पुकारा, देखा तो देवी और नीनी महाराज एक तखत पर पड़े हैं। हमारे को देखते ही वे चढ बैठे, कहने लगे कि तुम लोगों ने हमें चुतिया बना दिया। हम लोग परेशान हो गए, रात को खाना नहीं मिला। यहां सुनसान में लूट-पाट का खतरा अलग से है। बस मत पूछो हमारी अच्छी धुनाई कर दी। नीनी महाराज को रात को बुखार चढ गया था और दवाई मेरे पास थी। मैने उन्हे मनाकर दवाईयाँ दी और उनके साथ चाय पी। अब हम लोग यात्रा के सबसे मुस्किल पड़ाव की ओर बढ रहे थे। रामपुर से नहर के उपर चलना था सड़क को छोड़कर।

रामपुर से नहर का रास्ता कुमरसार तक बहुत खराब है, नहर के उपर नुकीली रोड़ियाँ निकली हुई हैं और चिकनी मिट्टी के कारण फ़िसलन भी बहुत है। यह यात्रा का सबसे कठिन चरण है, इसे पार कर लिया तो और कोई बड़ी कठिनाई सामने नहीं आती, ऐसे लगता है कि हम देवघर पहुंच गए। रोड़ियों पर नंगे पैर नहीं रखे जा सकते। हमने चलते समय तय किया था कि कुमरसार पार करके नदी के किनारे सब मिलेंगे और वहीं पर साथ में भोजन करेंगे। दिनेश महाराज ने नहर पर अपनी चलने की गति बढा दी और मेरे से बहुत आगे निकल गए मैं भी अकेला उनके पीछे-पीछे चलता रहा, कुछ देर के बाद वे मेरी नजरों से ओझल हो गए। यह 9 किलो मीटर का रास्ता मैने 1 घंटा 20 मिनट में तय कर लिया और कुमरसार पहुच कर एक होटल में पीछे आने वालों का इंतजार करने लगा। दिनेश महाराज बिना रुके आगे निकल लिए।

जब ये सब पहुंचे तो इन्होने कहा कि नदी के उस पार रुकेंगे। मैं भी उठकर चल पड़ा, फ़िर रुका नहीं,नदी पार कर लिया। नदी में घुट्नों तक पानी था। कुछ लोग नदी के पार पर बैठ कर टोली में ग़ांजे की चिलम खींच रहे थे और हम आगे बढ रहे थे। विश्वकर्मा टोला पहुंच कर एक होटल में लेमन टी ली और आधा घंटा विश्राम करके आगे बढे, अब दिनेश महाराज का कहीं पता नहीं था और न डॉक्टर लोगों का। मैं अकेला ही बढा जा रहा था। विश्वकर्मा टोला से महादेव नगर और फ़िर चंदरनगर, चंदरनगर से जिलेबिया रोड़। मैं अकेले ही जिलेबिया रोड़ 12:30 को पहुंच चुका था। रास्ते में बहुत बढिया-बढिया होटल थे लेकिन इनका इंतजार करने के लिए किसी अच्छी जगह की तलाश में बस्ती पार कर रहा था, तभी सामने जा रहा एक कांवडीया बम चक्कर खा कर गिरा, लोग उस पर पानी छिड़कने लगे। लेकिन फ़िर वह उठा ही नहीं। उसके प्राण पखेरु वहीं उड़ गए थे। उनके दल को तलाश करने पर पता चला कि वह गोहाटी से आया था। जवान लड़का चल बसा था। 

मेरा मन खट्टा हो गया और वहीं एक होटल के तखत पर पड़ा हुआ इनका इंतजार करने लगा। लगभग 3 बजे जोर की मुसलाधार वर्षा होने लगी। मैने उसी समय खाना खाया। ये सभी लोग भी लोग भी भिगते हुए वहां पहुंचे, हम भी चल पड़े इनके साथ। हमारा रात्रि विश्राम 8 किलोमीटर दूर सुईया में था। आज हम लोग बहुत चल लिए थे। काफ़ी थक गए थे। जांघों की चमड़ी भी छिल गयी थी, चला नहीं जा रहा था। इस विषम परिस्थिति में भी हमने जिलेबिया पहाड़ पार किया। पुलिस वाले हमें जल्दी पहाड़ पार करने की सलाह दे रहे थे। क्योंकि शाम रात को लूट-पाट का खतरा बढ जाता है और फ़िर बिहार पुलिस कहां तक सुरक्षा दे सकती है। हम पहाड़ के बाद जंगल से होते हुए टगेश्वरनाथ पार करते हुए सुईया पहुंचे तब रात के 9 बज रहे थे। यहां डेरा ढुंढने लगे रुक कर, लेकिन शरीर में इतनी जान नहीं बची थी कि आगे चलकर कोई जगह रुकने लिए ढुंढ ली जाए। चलना कोई नहीं चाहता था। सब एक दूसरे को मुंह से आदेश देते थे लेकिन हाथ पैर किसी का काम नहीं कर रहा था। हमने एक बड़े से टैंट में लगे होटल में खाने और रुकने की व्यवस्था देखकर डेरा लगाने का विचार बनाया। वहां पर बढिया पंखे चल रहे थे तो लगा कि रात को आराम अच्छे से हो जाएगा। फ़िर पता चला कि वे रात को पंखे बंद कर देते हैं। ये पंखे तो 11 बजे तक ग्राहक फ़ंसाने के लिए चलाए जाते हैं। 40 रुपए प्रति तखत के हिसाब से सोने का किराया तय हुआ। देवी और नीनी महाराज नहीं पहुंचे थे। अब हम लोग पड़ते ही सो गए।
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शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

सुल्तान गंज से प्रस्थान और मच्छरों को रक्तदान यात्रा 11

सुबह 9 बजे हम सुल्तान गंज पहुंच चुके थे। रेल्वे स्टेशन के रिटायरिंग रुम में हमने स्नान किया, घर से लाए हुए सभी कपड़े, चप्पल-जूते दान कर दिए क्योंकि हम पद यात्रा में कम से कम बोझ ले जाना चाहते थे। सिर्फ़ एक जोड़ी भगवा कपड़े झोले में और एक जोड़ी पहने हुए, बस इतने में ही हम लोग अपना काम चलाते हैं। स्नानादि से निवृत होकर बाजार की तरफ़ चल पड़े, कुछ मित्रों को अपनी कावंड ठीक करानी ही, मुझे भी पिट्ठु बैग लेना था। सब सामान खरीद के हम गंगा जी की ओर चल पड़े। वहां पहुंच कर जल भरा और पूजा कराई और कांवड़ उठा कर मैदान में आ गए, यात्रा प्रारंभ करने के लिए। मैने पहली बार यात्रा पैदल करने का मन बनाया था, यात्रा प्रारंभ होने से पहले आशंकित था कि पैदल चल पाऊंगा कि नहीं, यात्रा बहुत लम्बी है, कहीं रास्ते में थक गया तो क्या होगा? साथी लोग तो छोड़ कर चले जाएंगे और मैं पीछे रह जाऊंगा। जब हमने कांवड़ की पूजा करके गंगा जल उठाया तो एक बज रहे थे।

मैने सोचा था कि जूते नहीं उतारुंगा, पैदल चलने के लिए मैंने पीटी शू ले रखे थे और सोचा था कि यात्रा में पैर में छाले न हो जाएं इसलिए पहन लुंगा। जब हम कांवड़ लेकर शहर की गलियों से पैदल निकले तो स्थानीय निवासियों वृद्ध, बाल, स्त्री सभी की नजर मेरे जुतों पर थी। क्योंकि इस यात्रा में लोग नंगे पैर ही जाते हैं, और मैने जुते पहन रखे थे। सभी की नजर मुझ पर ऐसे पड़ रही थी कि मुझे लगा कि कहीं मै कपड़े पहनना तो नहीं भूल गया। मेरे जुते सभी को नागवार गुजर रहे थे। मुझे लगा कि बहुत बड़ी गलती ही नहीं गलता हो गया। अब इसे कहीं पर सुधारना पड़ेगा। धूप बहुत ज्यादा थी, झुलसा दे रही थी। शुरुवात ही ऐसी हो चुकी थी। दो किलो मीटर चल कर डॉक्टर और साथी रुक गए थे।

कलकत्ता में मेरे पैर में चोट लग गयी थी। उसमें मवाद पड़ गया था, इसको लेकर मैं चिंतित था, कहीं गैंगरीन इत्यादि न हो जाए क्योंकि डायबिटिज के पेशेंट को पैरों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। मुझे उसमें दवाई लगाकर पट्टी भी करनी थी, इसलिए मैं भी रुक गया। देवी शंकर, नीनी महाराज, दिनेश मिश्रा इत्यादि बिना रुके ही निकल गए। मैं भी उठकर चलने लगा तो उमाशंकर भी साथ हो लिए। हम लोगों ने पहला पड़ाव मासूम गंज में किया, वहां पर पहले जाने वाले दल को हमने पकड़ लिया। अब जुते मुझे परेशान करने लगे थे, आसमान पर बादल हो गए थे इसलिए थोड़ी राहत मिल रही थी। मैने एक टैक्टर के पीछे चलते-चलते जुते उतार दिए, तब मुझे लगा कि एक बहुत बड़ी परेशानी से छुटकारा पा लिया। अब नंगे पैर चलने लगा तब लोगों की घूरती नजरों मे कुछ बदलाव हुआ।

जब हम मासूम गंज से चाय पीकर चले तो दिनेश महाराज और मैं सबसे आगे थे। हम लोग शाम होते तक तारापुर आ गए थे। दिनेश महाराज ने कहा कि रात को भी चलेंगे तो मैने कहा कि-बैटरी ले लेते हैं। हम लोग बैटरी लेने लगे और पानी भी लिया, तारापुर पार करके पुल के पास पहुंचे तो डॉक्टर ने आवाज दी पीछे से, दिनेश रुक गए और हम वहीं फ़ंस गए। देवी शंकर और नीनी भाई हमारे से पीछे थे वे धीरे-धीरे चल रहे थे। लेकिन जब हम बैटरी ले रहे थे तब वे हमारे से आगे निकल गए और हमें पता ही नहीं चला। ये सब बोले रात यहीं विश्राम करेंगे। मैने कहा कि देवी और नीनी कहां है उनका पता नहीं है, अभी हमको चलना चाहिए और रामपुर (32 किलो मीटर पर)में रुकना चाहिए। इनकी जिद के आगे हमें तारापुर में ही रात रुकनी पड़ी। रुकने के कारण चला नहीं जा रहा था और मैं लगातार देवी और नीनी को ढुंढता रहा। रात को खाना खाकर सो गए। मच्छर बहुत थे, ओडोमॉस लगाने के बाद भी खून चुसते रहे।
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बुधवार, 1 सितंबर 2010

अधजला आदमी-रेल सेवा और बेवकूफ़ से मुलाकात---यात्रा-10

ट्रेन लगभग 1 बजे आई। हम सब उसमें सवार हुए,रिजर्वेशन पहले से ही था। अपनी-अपनी सीटें संभाल ली। कुछ लोग सोने लगे तो मैं और देवी भैया हंसी मजाक करते हुए सफ़र का आनंद ले रहे थे, ट्रेन में सामान बेचने वालों का रेला लगा था, जो इलेक्ट्रानिक सामान बेच रहे थे। घड़ी, कैमरा, कैलकुलेटर, हवा भरने का पंप, और भी बहुत सारी उपकरण थे उनके पास। हम उनसे मोल भाव करके समय काट रहे थे। देवी भाई ने बहुत मोल भाव करके एक घड़ी 80 रुपए में खरीदी। उसके बाद दूसरा घड़ी बेचने वाला आया मैने उससे मोल भाव करके वही घड़ी 50 रुपए में खरीदी। क्योंकि हमारे किसी के पास घड़ी नहीं थी, इसलिए समय दर्शन के घड़ी लेना जरुरी था। देवी भैया 30 रुपए का नुकसान हमारे देखते देखते ही खा चुके थे।

तभी पुलिस वालों ने ट्रेन में यात्रियों के सामान की तलाशी शुरु कर दी। हमारे पास तो सिर्फ़ गांधी झोले ही थे। जिसमें एक जोड़ी भगवा कपड़ों के अलावा कुछ था ही नहीं। एक मारवाड़ी लड़का मेरे सामने बैठा था। उसे पकड़कर ले गए वो संडास की तरफ़, फ़िर मैने जाकर देखा तो उसका सामान खोल रखा था और उसकी पैंट उतार कर नंगा कर रखा था। वो रोए जा रहा था। कुछ देर बाद उसे छोड़ दिया उन लोगों ने। वह रोते हुए आकर मेरे सामने बैठ गया। मैने पूछा कि क्या हुआ? गांजा अफ़ीम ले जा रहा था क्या? उसने कहा कि मैने अपने पीने के लिए एक जिन का अद्धा रख लिया था। बस उसी के लिए मुझे मारा और 800 रुपए छीन लिए। लेकिन उसने अद्धा बचा लिया। मैने कहा ले बेटे मजे अब, मार अद्धा हजार रुपए का, साले जात भी दी और जगात भी दी। पैसे भी दिए और पैंट भी उतवाई। रोया-गाया अगल से मुफ़्त में। अगर ये अद्धा पहले ही चढा लेता तो सारे ही बच जाते। बेवकूफ़ कहीं का।

अब शाम को जब लैट्रिन जाने की बारी आई तो देखा डिब्बे में पानी ही नहीं था, सबकी हालत खराब थी। हमने टी टी आई से शिकायत की तो उसने कहा कि मैं पिछले स्टेशन में स्टेशन मास्टर को बोगी में पानी नहीं होने की शिकायत मेमो देकर कर चुका हूँ लेकिन अभी तक पानी नहीं भरा गया है। जब तक आप लोग किसी स्टेशन पर चैन नहीं खींचोगे तो पानी नहीं भरा जाएगा। अब आपको चैन खींचनी ही पड़ेगी। हमने न्यु बोंगाई गांव में 3 बार चैन खींची। स्टेशन के कर्मचारियों में हमे दिखाने के लिए बोगी में पानी के पाईप लगा दिए लेकिन उनमें पानी नहीं आ रहा था। आधा घंटा यहां ट्रेन खड़ी रही लेकिन पानी नहीं भरा जा सका। रेल्वे वालों ने कहा कि एल एन जे पी (न्यु जलपाई गुड़ी) में सूचना दे दी है वहां पानी भर दिया जाएगा। हम अब न्यु जलपाई गुड़ी का इंतजार करने लगे।

अब ट्रेन का हाल देखिए लग भग 24 बोगियां थी इस ट्रेन में जिसमें 10 बोगियों में पानी नहीं था। एक बोगी में हम 72 स्लीपर मानते हैं तो 720 व्यक्ति बिना पानी के सफ़र कर रहे थे। लेकिन कोई भी पानी के लिए शिकायत नहीं कर रहा था। सिर्फ़ हमारा 8 लोगों का ही दल पानी के लिए हंगामा मचाए हुए था। जब हम न्यु जलपाई गुड़ी पहुंचे तो वहां भी पानी नहीं भरा गया। रात के 12 बज रहे थे। बरसात भी हो रही थी। जैसे ही गाड़ी चलने लगी हमने हंगामा करने का मन बना लिया था। हमने चैन पुलिंग कर दी। पुलिस वाले आ गए बहुत सारे। हमने कहा कि जब तक गाड़ी में पानी नहीं डाला जाएगा तब तक गाड़ी नहीं चलेगी। चाहे कुछ भी हो जाए। अब हम पूरी तरह से लड़ने का मन बना चुके थे। लेकिन पूरी गाड़ी में से और कोई सवारी उतर कर पानी के लिए समर्थन देने के लिए नहीं आई, हम ही लड़ते रहे पुलिस वालों से।

पुलिस वाले कहने लगे कि गोहाटी से ही पानी भरवा लेना था। गाड़ी तेजपुर से आ रही थी। हमें पानी न होने की जानकारी तो गोहाटी के बाद लगी थी। सब मामला एक दुसरे पर डाल रहे थे। लेकिन पानी नहीं भर रहे थे। उधर पुलिस वाले ट्रेन ड्रायवर को गाड़ी आगे ले जाने को कह रहे थे, लेकिन हम चैन पकड़ कर लटके हुए थे। हम भी अपनी जिद पर अड़ आए थे। लगभग हमने 1 घंटा गाड़ी रोक दी, लेकिन उन्होने भी टंकी में पानी न होने का बहाना बनाए रखा और पानी नहीं भरा। टी टी आई भाग चुका था। तभी युएसए महाराज ने कहा कि यार हमें ही पानी की ज्यादा जरुरत है क्या? इतनी बोगियों में से एक भी उतर कर पानी की मांग करने नहीं आ रहा है और यहां जितनी देर ट्रेन को रोकोगे हम उतनी देर से सुल्तान गंज पहुंचेगें और हमारी यात्रा विलंब से प्रारंभ होगी। छोड़ो जाने दो, चलो सोते हैं। सुबह यात्रा भी प्रारंभ करनी है। अरे ज्यादा होगा तो 10-10 रुपए सुबह और खर्च होगा पानी की एक-एक बोतल और ले लेंगे।उसने बनिया बुद्धि लगाई। हमने भी समझ लिया कि अब कुछ होने वाला नहीं है। हम अपनी बोगी में वापस आ गए और ट्रेन चल पड़ी, पुलिस वालों की सांस में भी सांस आई और हम सो गए।

सुबह तक भी ट्रेन में पानी नहीं भरा गया, ऐसी व्यवस्था हमारे रेल मंत्रालय की है। ट्रेन में भी पानी आपुर्ती ठेकेदारों के भरोसे हो रही है। किसी ट्रेन में  पानी डाल रहे है किसी में नहीं और सवारियां नरक की यात्रा कर रहीं है एडवांस में दो महीना पहले टिकिट का पैसा देकर। सुबह हमने मिनरल वाटर की व्यवस्था की और नित्य क्रिया सम्पन्न की। जब मैं टायलेट में था तभी बाहर बहुत जोर से कोलाहल सुना। टी टी और किसी सवारी के बीच टिकिट को लेकर झगड़ा हो रहा था। टी टी ने कहा कि अगर तुम टिकिट नहीं दिखाओगे तो तुम्हे ट्रेन से बाहर फ़ेंक दुंगा। तभी दूसरी आवाज आई, तुम ट्रेन से बाहर क्या फ़ेंकोगे, मैं अभी तुम्हारा गला काट दुंगा। मैं समझ गया मामला गंभीर हो रहा है। इसलिए जल्दी टायलेट से बाहर निकला। देखा कि एक आदमी जिसका चेहरा आधा जला हुआ और कदकाठी अच्छी थी, टी टी को गरिया रहा था। जैसे ही उसने टी टी से फ़िर दोहराया कि तुम्हारा गला काट दुंगा तो टी टी चुपचाप अगली बोगी में बढ गया। वह आदमी बिना टिकिट ही डटा रहा और गाली बकता रहा।

दादी-----कहानी
कितना है मुस्किल घरों से निकलना Indli - Hindi News, Blogs, Links