यात्राएं तो लगातार चलती रहती हैं जीवन ही यात्रा का नाम है,चलते रहना ही जीवन है। अब चलते हैं एक और यात्रा पर। सन् 1985 में मुझे हरियाणा के नारनौल जाने का मौका मिला।बात पुरानी है लेकिन स्मृतियों में ताजा है।उस समय रायपुर से एकमात्र 36 गढ एक्सप्रेस एकमात्र ट्रेन थी जो सीधे दिल्ली तक पहुंचाती थी। नहीं तो बीच में बीना आदि स्टेशन पर एक गाड़ी बदलनी पड़ती थी। 36 गढ एक्सप्रेस रात को लगभग 8 बजे दिल्ली पहुंचाती थी। रात नौ बजे नागपुर पहुचती थी पान्ढुर्णा के बाद सभी स्टेशनों पर रुकती थी। सुबह 5-6 बजे भोपाल पहुंचाती थी, यह मेरी दुसरी लम्बी यात्रा थी। उस समय टिकिट मैन्युअली बनती थी और हमारे यहां की छोटी गाड़ी में जाने वाले टी टी की अगले दिन 36 गढ एक्सप्रेस में ड्युटी लगती थी। मतलब सीट मिल जाती थी मामला फ़िट हो जाता था।
110 छोटा कैमरा |
नारनौल में पापा के दोस्त जैन साहब रहते थे। दिल्ली से रात को चलकर नारनौल पहुंचना ठीक नहीं था। कहां किसे उठाया जाए रात को जाकर। इसलिए मैने रात्रि दिल्ली के स्टेशन के यात्री निवास में ही आराम किया और सुबह की मुद्रिका बस पकड़ कर अजमेरी गेट बस स्टैंड पहुंचा, वहां से नारनौल की बस पकड़ी किराया बहुत कम ही था। शायद 15 रुपए ही लिए होगें। रास्ते में गुड़गांव पड़ा, एक गांव ही था उस समय, बस गुड़गांव शहर के अंदर नहीं गयी और सवारियों को इसने बायपास पर भी उतार दिया। बायपास एक दम सुनसान था। आज के गुड़गांव और तब के गुड़गांव की तस्वीर अलग ही थी। मेरे पास उस समय वन टेन कैमरा था, जो एक रील में 25-26 फ़ोटुएं लेता था। फ़ोटोग्राफ़ी भी उस समय मंहगा शौक ही था। रास्ते में रेवाड़ी, अटेली मंडी होते हुए नारनौल पहुंचे।
कैमरा रोल 120 रुपए का आता था उस समय |
नारनौल एतिहासिक शहर है, इसका नाम इतिहास में प्रसिद्ध है, औरंगजेब के शासन काल में यहां सतनामियों के साथ युद्ध का उल्लेख है जिनसे औरंगजेब की सेना हार चुकी थी और उसके सेना का मनोबल गिर चुका था। उसकी सेनाएं सतनामियों से पुन: युद्ध लड़ना नहीं चाहती थी। उनमें यह भ्रम फ़ैल गया था कि सतनामियों को जादु टोना आता है जिससे उनमे गैबी ताकते हैं और हम युद्ध पुन: हार जाएंगे। औरंगजेब ने सेना का डर मिटाने के लिए सबके हथियाओं में एक-एक ताबीज बंधवाया और कहा कि अब युद्ध लड़ो, यह ताबीज तुम्हारी गैबी ताकतों से रक्षा करेगा। इसके बाद उसकी सेना में दुबारा युद्ध लड़ा और सतनामियों पर विजय पाई, इस युद्ध का उल्लेख बीए इतिहास प्रथम वर्ष की किताब में है।
जल महल --शाम होने को थी 1985 |
नारनौल पहुंच कर मुझे वहां के एतिहासिक स्थलों की जानकारी की अभिलाषा थी। मैं इस शहर को घुमना चाहता था। बब्बु के साथ मैं दो दिनों तक पूरा नारनौल घुमा। पुराना शहर होने के कारण यहां बहुत सारी इमारतें पुरानी है। सबसे पहले मैं और बब्बु जलमहल देखने गए, उस समय बब्बु को भी इसके इतिहास के विषय में इतनी जानकारी नहीं थी। वह भी बी कॉम प्रथम वर्ष में ही पढता था। उसने बताया कि यह जल महल अकबर के के विश्राम करने के लिए बनाया था लेकिन हकीकत में जलमहल बहुत खूबसूरत है। महल की दीवारों पर लिखे शिलालेखों के अनुसार इसका निर्माण 1591 ई. में शाह कुली खान ने कराया था। यह महल एक तालाब के बींचो-बीच बना हुआ है। लेकिन अब यह तालाब पूरी तरह से सूख चुका है। शाम हो रही थी मैने बब्बु से कुछ फ़ोटु लेने को कहा। वे फ़ोटु अभी तक मेरे पास थी।
1985 के चित्र में स्वयं-हां ऐसा ही था |
नारनौल में बीरबल का छत्ता नामक एक जगह हैं, इसके विषय में किवदंती है कि यहां से एक सुरंग दिल्ली तक जाती है। इस सुरंग की जानकारी लेने के लिए एक बारात अंदर गई थी जो फ़िर वापस नहीं आई। इसलिए इसके अंदर कोई जाता नहीं है। मैनें बीरबल का छत्ता भी देखा। इसके उपर बनी हुई ईमारतें खंडहर हो चुकी है। लोग इसका इस्तेमाल कचरे फ़ेंकने एवं शौच के लिए करते दिखे, बीरबल का छाता पांच मंजिला इमारत है और यह बहुत खूबसूरत है। पहले इसका नाम छाता राय मुकुन्द दास था। इसका निर्माण नारनौल के दीवान राय-ए-रायन ने शाहजहां के शासन काल में कराया था। प्राचीन समय में अकबर और बीरबल यहां पर ठहरे थे। उसके बाद इसे बीरबल का छाता नाम से जाना जाने लगा। इसकी वास्तुकला बहुत खूबसूरत है। देखने में यह बहुत साधारण लगता है क्योंकि इसकी सजावट नहीं की गई है। इसमें कई सभागार, कमरों और मण्डपों का निर्माण किया गया है। कथाओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इसके नीचे चार सुरंगे भी बनी हुई हैं। यह सुरंगे इसको जयपुर, दिल्ली, दौसी और महेन्द्रगढ़ से जोड़ती हैं।
इसके बाद हम नारनौल शहर में बने एक मकबरे पर गए, जो कि बहुत ही सुंदर बना है। उस मकबरे पर अरबी में कुछ लिखा था। मुझे तो अरबी आती नहीं थी। इसलिए एक मुल्ला जी को पकड़ा कि पढकर बताईए इसमें लिखा क्या है। वे मुझे पढ के बताने लगे, किसी ने मुझे बताया था कि यह शेरशाह सूरी का मकबरा है लेकिन बाद में पता चला कि यह शाह कुली खान का मकबरा है। लेकिन है बहुत खुबसूरत, इसके निर्माण में सलेटी और लाल रंग के पत्थरों का प्रयोग किया गया है। यह मकबरा आठ कोणों वाला है। इसके वास्तु शास्त्र में पठान शैली का प्रयोग किया गया है। मकबरे में त्रिपोलिया द्वार का निर्माण भी किया गया है। इस द्वार का निर्माण 1589 ई. में किया गया था। मकबरे के पास खूबसूरत तालाब और बगीचे भी हैं। तालाब और बगीचे का निर्माण पहले और मकबरे का निर्माण बाद में किया गया था। यह बगीचा बहुत खूबसूरत है। इसका नाम अराम-ए-कौसर है। जारी है.....................!
कैमरे के चित्र गुगल से साभार