गुरुवार, 29 जुलाई 2010

110 कैमरा, नारनौल, जल महल एवं बीरबल का छत्ता--और मैं ---------- ललित शर्मा

यात्राएं तो लगातार चलती रहती हैं जीवन ही यात्रा का नाम है,चलते रहना ही जीवन है। अब चलते हैं एक और यात्रा पर। सन् 1985 में मुझे हरियाणा के नारनौल जाने का मौका मिला।बात पुरानी है लेकिन स्मृतियों में ताजा है।उस समय रायपुर से एकमात्र 36 गढ एक्सप्रेस एकमात्र ट्रेन थी जो सीधे दिल्ली तक पहुंचाती थी। नहीं तो बीच में बीना आदि स्टेशन पर एक गाड़ी बदलनी पड़ती थी। 36 गढ एक्सप्रेस रात को लगभग 8 बजे दिल्ली पहुंचाती थी। रात नौ बजे नागपुर पहुचती थी पान्ढुर्णा के बाद सभी स्टेशनों पर रुकती थी। सुबह 5-6 बजे भोपाल पहुंचाती थी, यह मेरी दुसरी लम्बी यात्रा थी। उस समय टिकिट मैन्युअली बनती थी और हमारे यहां की छोटी गाड़ी में जाने वाले टी टी की अगले दिन 36  गढ एक्सप्रेस में ड्युटी लगती थी। मतलब सीट मिल जाती थी मामला फ़िट हो जाता था।

110 छोटा कैमरा
नारनौल में पापा के दोस्त जैन साहब रहते थे। दिल्ली से रात को चलकर नारनौल पहुंचना ठीक नहीं था। कहां किसे उठाया जाए रात को जाकर। इसलिए मैने रात्रि दिल्ली के स्टेशन के यात्री निवास में ही आराम किया और सुबह की मुद्रिका बस पकड़ कर अजमेरी गेट बस स्टैंड पहुंचा, वहां से नारनौल की बस पकड़ी किराया बहुत कम ही था। शायद 15 रुपए ही लिए होगें। रास्ते में गुड़गांव पड़ा, एक गांव ही था उस समय, बस गुड़गांव शहर के अंदर नहीं गयी और सवारियों को इसने बायपास पर भी उतार दिया। बायपास एक दम सुनसान था। आज के गुड़गांव और तब के गुड़गांव की तस्वीर अलग ही थी। मेरे पास उस समय वन टेन कैमरा था, जो एक रील में 25-26 फ़ोटुएं लेता था। फ़ोटोग्राफ़ी भी उस समय मंहगा शौक ही था। रास्ते में रेवाड़ी, अटेली मंडी होते हुए नारनौल पहुंचे।

कैमरा रोल 120 रुपए का आता था उस समय
नारनौल एतिहासिक शहर है, इसका नाम इतिहास में प्रसिद्ध है, औरंगजेब के शासन काल में यहां सतनामियों के साथ युद्ध का उल्लेख है जिनसे औरंगजेब की सेना हार चुकी थी और उसके सेना का मनोबल गिर चुका था। उसकी सेनाएं सतनामियों से पुन: युद्ध लड़ना नहीं चाहती थी। उनमें यह भ्रम फ़ैल गया था कि सतनामियों को जादु टोना आता है जिससे उनमे गैबी ताकते हैं और हम युद्ध पुन: हार जाएंगे। औरंगजेब ने सेना का डर मिटाने के लिए सबके हथियाओं में एक-एक ताबीज बंधवाया और कहा कि अब युद्ध लड़ो, यह ताबीज तुम्हारी गैबी ताकतों से रक्षा करेगा। इसके बाद उसकी सेना में दुबारा युद्ध लड़ा और सतनामियों पर विजय पाई, इस युद्ध का उल्लेख बीए इतिहास प्रथम वर्ष की किताब में है।

जल महल --शाम होने को थी 1985
नारनौल पहुंच कर मुझे वहां के एतिहासिक स्थलों की जानकारी की अभिलाषा थी। मैं इस शहर को घुमना चाहता था। बब्बु के साथ मैं दो दिनों तक पूरा नारनौल घुमा। पुराना शहर होने के कारण यहां बहुत सारी इमारतें पुरानी है। सबसे पहले मैं और बब्बु जलमहल देखने गए, उस समय बब्बु को भी इसके इतिहास के विषय में इतनी जानकारी नहीं थी। वह भी बी कॉम प्रथम वर्ष में ही पढता था। उसने बताया कि यह जल महल अकबर के के विश्राम करने के लिए बनाया था लेकिन हकीकत में जलमहल बहुत खूबसूरत है। महल की दीवारों पर लिखे शिलालेखों के अनुसार इसका निर्माण 1591 ई. में शाह कुली खान ने कराया था। यह महल एक तालाब के बींचो-बीच बना हुआ है। लेकिन अब यह तालाब पूरी तरह से सूख चुका है। शाम हो रही थी मैने बब्बु से कुछ फ़ोटु लेने को कहा।  वे फ़ोटु अभी तक मेरे पास थी।

1985 के चित्र में स्वयं-हां ऐसा ही था
नारनौल में बीरबल का छत्ता नामक एक जगह हैं, इसके विषय में किवदंती है कि यहां से एक सुरंग दिल्ली तक जाती है। इस सुरंग की  जानकारी लेने के लिए एक बारात अंदर गई थी जो फ़िर वापस नहीं आई। इसलिए इसके अंदर कोई जाता नहीं है। मैनें बीरबल का छत्ता भी देखा। इसके उपर बनी हुई ईमारतें खंडहर हो चुकी है। लोग इसका इस्तेमाल कचरे फ़ेंकने एवं शौच के लिए करते दिखे,  बीरबल का छाता पांच मंजिला इमारत है और यह बहुत खूबसूरत है। पहले इसका नाम छाता राय मुकुन्द दास था। इसका निर्माण नारनौल के दीवान राय-ए-रायन ने शाहजहां के शासन काल में कराया था। प्राचीन समय में अकबर और बीरबल यहां पर ठहरे थे। उसके बाद इसे बीरबल का छाता नाम से जाना जाने लगा। इसकी वास्तुकला बहुत खूबसूरत है। देखने में यह बहुत साधारण लगता है क्योंकि इसकी सजावट नहीं की गई है। इसमें कई सभागार, कमरों और मण्डपों का निर्माण किया गया है। कथाओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इसके नीचे चार सुरंगे भी बनी हुई हैं। यह सुरंगे इसको जयपुर, दिल्ली, दौसी और महेन्द्रगढ़ से जोड़ती हैं।

इसके बाद हम नारनौल शहर में बने एक मकबरे पर गए, जो कि बहुत ही सुंदर बना है। उस मकबरे पर अरबी में कुछ लिखा था। मुझे तो अरबी आती नहीं थी। इसलिए एक मुल्ला जी को पकड़ा कि पढकर बताईए इसमें लिखा क्या है। वे मुझे पढ के बताने लगे, किसी ने मुझे बताया था कि यह शेरशाह सूरी का मकबरा है लेकिन बाद में पता चला कि यह शाह कुली खान का मकबरा है। लेकिन है बहुत खुबसूरत, इसके निर्माण में सलेटी और लाल रंग के पत्थरों का प्रयोग किया गया है। यह मकबरा आठ कोणों वाला है। इसके वास्तु शास्‍त्र में पठान शैली का प्रयोग किया गया है। मकबरे में त्रिपोलिया द्वार का निर्माण भी किया गया है। इस द्वार का निर्माण 1589 ई. में किया गया था। मकबरे के पास खूबसूरत तालाब और बगीचे भी हैं। तालाब और बगीचे का निर्माण पहले और मकबरे का निर्माण बाद में किया गया था। यह बगीचा बहुत खूबसूरत है। इसका नाम अराम-ए-कौसर है। जारी है.....................!

कैमरे के चित्र गुगल से साभार Indli - Hindi News, Blogs, Links

लातों के भूत बातों से नहीं मानते--यात्रा--हनुमानगढ

भटनेर का किला
कहानी 1984-85 की चल रही है, अभी तो काफ़ी बदलाव आ गया है,नारनौल से घुम घाम कर हम वापस रिवाड़ी पहुंचे, रिवाड़ी में भी एक दिन आवारागर्दी की। बस युं ही चक्कर काटते हुए, काठ मंडी, गोकलगेट, मुक्तीवाड़ा, नाई वाली, कतोपर, इत्यादि घुमे। इसके बाद हनुमानगढ जाने का कार्यक्रम बनाया। रिवाड़ी से दो गाड़ियाँ हनुमान गढ के रुट पर जाती थी। जोधपुर मेल और बीकानेर मेल। बात अब बहुत पुरानी है, इसलिए इनका समय कुछ रात के 11बजे के आस पास का था। 

भटनेर का किला
नवम्बर का आखरी सप्ताह था। ठंड बहुत थी, मैने एक लेदर की जैकेट,मंकी कैप और दस्ताने पहले ही खरीद लिए थे। अब स्टेशन की ओर चल पड़े। स्टेशन पहुंचकर देखा कि बीकानेर मेल पहले आने वाली थी और आई भी, लेकिन भीड़ इतनी थी कि पैर रखने की जगह ही नहीं थी। हमने यह ट्रेन छोड़ दी। उसके बाद जोधपुर मेल का भी हाल यही था। लेकिन अब तो ट्रेन में चढना मजबूरी थी। नहीं तो वहीं प्लेटफ़ार्म पर पड़े रह जाते। ट्रेन में चढने के बाद थोड़ी जगह दरवाजे के पास मिली, ठंड ज्यादा होने के कारण अपना कंबल ओढकर बैठ गए, बैठते ही नींद आ गयी। हमें सादुलपुर में छोटी लाइन की ट्रेन पकड़नी थी हनुमानगढ के लिए। सोते रहे।

जैसे ही सादुलपुर आया तो किसी ने हमें जगाया, देखा सादुलपुर आ गया, हम सामान समेत ही नींद में ट्रेन के बाहर कूद पड़े। इधर ट्रेन भी चल पड़ी थी। नहीं तो बीकानेर पहुंच कर नींद खुलती। यहां से हमने हनुमानगढ वाली ट्रेन पकड़ी। सुबह 8-9 बजे के आस-पास हनुमानगढ पहुंचे। वहां स्टेशन में उतरे तो सतपाल अंकल पहुंच गए थे, हमे लेने के लिए। उसके बाद हम उनके घर पहुंचे। स्नानादि से कुछ थकान दूर हुई लेकिन नींद आ रही थी। अब इरादा था हनुमानगढ टाउन घुमने का। उस समय टीवीएस50 का चलन था। हीरो मैजेस्टिक के बाद यह एक अच्छी बाईक आई थी। पिकअप भी बहुत बढिया था। यह बाईक मेरे हवाले हो गयी। बस इसी पर मैं घुमता रहा। दो दिन तक पूरा हनुमानगढ शहर घुमा। आगे श्री गंगानगर और सुरत गढ जाने का इरादा था लेकिन समयाभाव के कारण नहीं जा सका।

हनुमानगढ राजस्थान का मुख्य सरहदी जिला है। इसका क्षेत्रफ़ल 9656.09 वर्ग कि.मी. है। यहां कपास का अच्छा व्यवसाय होता है। मैने जगह-जगह कपास के ढेर लगे देखे। मैने सज्जन गढ का किला भी देखा। इस यात्रा के चित्र मेरे पास उपलब्ध नहीं हैं, बच्चे कहीं रख कर भूल गए है, मिलने लगाऊंगा, हनुमानगढ  में स्थित एक किला "भटनेर का किला"  के नाम से जाना जाता है। यह प्राचीन किला घाघर नदी के किनारे पर स्थित है, जिसे जैसलमेर के राजा भाटी के बेटे भुपत ने सन् 295 में बनवाया था।सन् १८०५ में बीकानेर  के  महाराजा सुरत सिंह  ने  राजा भाटी को हराने के बाद भटनेर पर कब्जा कर लिया। उनकी जीत मंगलवार के दिन हुई थे।(भगवान"हनुमान" का दिन), इस कारण से भटनेर का नाम हनुमानगढ़ कर दिया गया।

पहले दिन यहां आया तो शाम हो चुकी थी,इसलिए पुरा नहीं घुम पाया इसलिए दुसरे दिन फ़िर सुबह आया और पुरा किला देखा। मुझे प्राचीन इमारतें देखने का बहुत शौक है। राजस्थान में हर शहर में कोइ न कोई किला है और हवेली है। कई जगह तो ये अच्छी तरह संरक्षित हैं कई जगह इनकी देख-भाल न होने से खंडहर में तब्दील हो गयी हैं। धरोहरों का नाश हो रहा है। इनका पूर्ण संरक्षण होना चाहिए। अब हनुमानगढ से वापसी का समय हो चुका था। रात को फ़िर वही गाड़ी पकड़नी थी।रात को लगभग 10 बजे हम स्टेशन पहुंचे तो बहुत सर्दी हो चुकी थी। ठंड ज्यादा लग रही थी। बहुत सारे फ़ौजी भी बाडर से छुट्टियां मनाने अपने घर जा रहे थे। स्टेशन फ़ौजियों से भरा हुआ था। हमने सोचा चलो अब इनके साथ बातचीत करते सफ़र कट जाएगा।
रेलवई टेसन

ट्रेन आ चुकी थी। देखा कि लोगों ने दरवाजे लॉक कर रखे हैं। आवाज देने और दरवाजा ठोकने के बाद भी कोई खोलने को तैयार नहीं है। सब आराम से एक-एक सीट पकड़ कर कंबल रजाई ओढे सोये हैं। ट्रेन का छुटने का समय हो रहा था। सारे फ़ौजी भी हलाकान थे हम भी अपना सामान लिए खड़े थे कि कोई दरवाजा खोले तो अंदर घुसें। फ़िर एक फ़ौजी बोला-"दरवाजा तोड़ डालो, और इन्हे थोड़ा सुधार भी दो। बस फ़िर क्या था, फ़ौजियों के बूटों की ठोकर और कंधें के धक्कों से लॉक टूट गया। अंदर घुसते ही फ़ौजियों ने बेल्ट निकाल कर दो चार को तो अच्चे से सुधार दिया। पूरी बोगी में एक एक सीटों पर लम्बे पडे हुए सब उठकर बैठ गए और बैठिए साहब, बैठिए साहब करने लगे। कहां तो वे दरवाजा खोलने को तैयार नहीं थे। इसे ही कहते हैं लातों के भूत बातों से नहीं मानते। फ़ौजियों के साथ दिल्ली तक का सफ़र अच्छे से कट गया। उनके किस्से भी बड़े मजेदार थे। इस तरह हमारी हनुमानगढ यात्रा पूरी हुई।

चित्र -गुगल से साभार
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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

बहुत हुई रावण की बकवास- यात्रा का अंतिम भाग

रावण की बकवास
प्रारंभ से पढें-------शाम को सोकर उठे तो प्लान किया कि कल सुबह नागपुर से निकला जाए। नीरज कहने लगा कि यहां किसी अच्छे अस्पताल में शरीर का जनरल चेकअप करवा लेते हैं। मैने मना कर दिया कि रायपुर में करवा लेंगे। अब समय था रिफ़्रेशमेंट का। बहुत फ़ालतु चक्कर काट लिए 5 दिन। हाईवे पर कार दौड़ाते रहे। पूरी प्लानिंग चौपट हो गयी थी। अगर एक फ़ोन नहीं करता तो गोवा से लौट रहे होते, मौज मेल्ले ले के। लेकिन शायद किस्मत को यही मंजुर था। एक बढिया बार देखकर पहुंच गए तीनों रिफ़्रेशमेंट के लिए। बीयर का आनंद लेते हुए गपशप करते रहे। मैं फ़िल्में बहुत कम देखता हूँ क्योंकि आजकल की फ़िल्में मुझे पसंद ही नहीं आती। नयी फ़िल्में कोई एकाध देखी होगी। नीरज कहने लगा खाना खाकर रात को फ़िल्म देखने चलते हैं आईनॉक्स में। मैं होटल में क्या करता? मैने भी कहा ठीक है। नीरज आईनॉक्स टिकिट लेने चला गया और मैं होटल में आ गया।

जब तक नीरज टिकिट लेकर आता तब तक मैं लैपटॉप का उपयोग करने लगा। एक पोस्ट पर पाबला जी की टिप्पणी दिखी कि हो सके तो कल हम भी नागपुर में होंगे। मैने उसके बाद पाबला जी को खुब फ़ोन लगाया,लेकिन फ़ोन ही नहीं लगा। रात के खाने में बिरयानी मंगाई गयी। नीरज नानवेज नहीं लेता,इसलिए उसने सादा खाना मंगवाया। अगर आप नानवेजिटेरियन है और कभी नागपुर आएं तो यहां जमजम की बिरयानी का स्वाद अवश्य लें। बहुत ही लजीज बिरयानी मिलती है। यह रेस्टोंरेंट सेंट्रल एवेन्यु पर ही है। बिरयानी ने तो आनंद ला दिया। मजा आ गया। अब प्लानिंग बन गयी कि यहां से होटल चेक आउट करके ही चलते हैं। फ़िल्म देखकर वहीं से रायपुर के लिए निकल लेंगे। हम होटल चेक आउट करके अपना सामान लेकर फ़िल्म देखने चले गये और वह फ़िल्म थी रावण।

बहुत शोर सुना था पहलु में दिल का,चीरा तो एक कतरा खुन न निकला। रावण के विषय में उसके गाने को लेकर बहुत दिनों से हल्ला मचा हुआ था। लोग कह रहे थे कि फ़िल्म में कुछ दम है और इसके गाने को नक्सलियों ने अपना नक्सल गान बना लिया है। जब फ़िल्म शुरु हुई तो अभिषेक बच्चन, एश्वर्या राय, और गोविंदा समझ में आए। अभिषेक बच्चन राबिन हुड बना हुआ था और पुलिस अधिकारी की पत्नी एश्वर्याराय का हरण करके जंगल में ले जाता है और पुलिस वाला अपनी बीबी को ढुंढते रहता है। बस यही कहानी है फ़िल्म की।
रावण की बकवास

फ़िल्म के सीन अवास्तविक लगे। एश्वर्या का इतनी ज्यादा उंचाई से नदी में कूदना और पेड़ की डाल पर अटकना। उसके पीछे पीछे अभिषेक का भी पानी में छलांग लगाना। फ़िर लताओं के सहारे उसे पहाड़ी पर चढाना। फ़िर गाना शुरु हो जाता है जैसे दोनो में इश्क हो गया हो। पुलिस वाला बैठा बैठा हलाकान होता रहता है। बीबी उधर जंगल में गाना गाती है। गोंविन्दा पगलैट बना घुमता है। यह सब वाहयात आईटम देखकर मुझे तो नींद आने लगी। इंटरवल होते ही मैं तो सो गया। जब फ़िल्म खत्म हुई तो नीरज ने जगाया कि चलिए फ़िल्म खत्म हो गयी। मैने कहा है कि यह तो मेरे लिए बहुत पहले ही खत्म हो गयी थी। क्या  यार एक दम फ़्लाप फ़िल्म दिखाने ले आया। पूरा टैम भी खराब किया।

एक बजे हम रायपुर के लिए निकल लिए। कार विक्की चला रहा था। मैं पिछली सीट पर सोया। रात को ये गाड़ी चलाते रहे। किसी जगह इन्होने ढाबे में रात को बैठकर फ़िर बीयर पी और थोड़ी बहुत गाड़ी चला कर आगे किसी ढाबे में पड़ गए। सुबह 5बजे मेरी आंख खुली तो ये ढाबे में सोए हुए थे। इन्हे जगाया और चलने को कहा। चाय पीकर एक बार फ़िर चल पड़े। रास्ते में पानी गिरने से सड़क के किनारे की मिट्टी कट गयी थी और कीचड़ काफ़ी हो गया था। रायपुर से नागपुर सड़क के चौड़ी करण का काम हो रहा है, मुझे याद है इसे चलते हुए लगभग 10साल हो गए लेकिन अभी तक पूरा नहीं हुआ है। अंजोरा के पास एक ढाबे में आलु के पराठे खाए। भिलाई पहुंचने पर एक बार मन में ख्याल आया कि संजीव तिवारी जी फ़ोन लगाया जाए। लेकिन देर होने का खतरा सोच कर फ़ोन नहीं लगाया सीधे ही निकल लिए।

19 जून से चले हुए 26 जून को 12 बजे घर पहुंचे। बिना प्लानिंग की आवारागर्दी करके। बस दिन रात सड़क ही नापते रहे। रुपयों की भी वाट लगाई और कुछ हासिल भी नहीं हुआ। बस शनि सिंघणापुर और वर्धा ही गए। अचानक आधी रात को उठकर निकलने के यही परिणाम होते हैं। अगर दो चार दिन पहले ही योजना बना लेते ठंडे दिमाग से तो आनंद ही कुछ और रहता। यात्रा का आनंद लेना है तो अपनी गाड़ी से जाने की बजाए, ट्रेन या फ़्लाईट जो सुविधा जेब सह सकती है उससे जाए और इच्छित स्थान पर जाकर टैक्सी किराए कर लें तो वही बेहतर होता है। मुझे यात्रा वही पसंद है जो एक स्थान पर दो चार दिन रुक कर आराम से देखा जाए। भाग-दौड़ और समय की कमी वाली यात्राएं न ही करें तो बेहतर है। यह यात्रा यहीं पर सम्पन्न होती है। पुन: आते हैं अन्य यात्रा स्मरण के साथ।

युद्ध दो मिनट का-विजय दिवस पर विशेष

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बिना लकड़ी और लोहे की छत---यात्रा-4

 अनुसंधान केन्द्र का रास्ता
चिखली में रुकने से से हमारा पूरा कार्यक्रम चौपट हो गया और वापस लौटने लगे। चिखली अगर नहीं रुकते तो हम रात तक मुंबई पहुंच चुके होते। लेकिन शायद कुछ ऐसा था जो हमें आगे बढने से रोक रहा था। वापस जब वर्धा पहुंचे तो सुबह हो चुकी थी। मैने कुछ फ़ोटुएं नीरज के कैमरे ली थी,वह नीरज के साथ ही चली गयी। इसलिए नहीं लगा पा रहा हूँ। वर्धा में ग्रामीण अभियांत्रिकी अनुसंधान केन्द्र है, जो कि ग्रामीणों के रहन-सहन को लेकर नवोन्मेष करते रहता है। मैं उसे देखना चाहता था। वर्धा से नागपुर रोड़ पर मुझे उसका बोर्ड दिख गया और मैने सुबह-सुबह ही गाड़ी उधर मोड़ ली। मैने सोच लिया था कि सुबह सुबह तो आफ़िस स्टाफ़ मिलेगा नहीं। कुछ चौकीदार से पूछ लिया जाएगा। सौभाग्य से चौकीदार वहां मिल गया। मैने वहां की अनुसंधानों के विषय में उससे जानकारी ली।
देशी वाटर फ़िल्टर

वर्धा में एक महत्वपूर्ण अनुसंधान कम लागत में घर बनाने के लिए हुआ है। जिसकी मुझे जानकारी थी। इस विषय पर मैं कुछ अधिक जानकारी लेना चाहता था। इस तरह के मकान में छत बिना लगड़ी और लोहे के सहारे बनाई जाती है और छत भी बहुत मजबूत होती है चाहे उसके उपर हाथी चढालिया जाए।इस तरह की तकनीकि मैं कई वर्षों से जानना चाहता था लेकिन वर्धा जाने का समय नहीं मिल रहा था या शायद उचित कारण नहीं था। यहां इस तकनीक से बनाया हुआ एक बहुत बढा सभागार है। जो बहुत ही सुंदर बना है। चौकीदार ने मुझे वह सभागार खोल कर दिखाया। मैने उसके कुछ चित्र लिए। लगा कि यहां आना सार्थक हुआ। यहां पर एक बहुत ही सस्ता वाटर फ़िल्टर भी बनाया जाता है जो जल को कीटाणु रहित करता है। यह वाटर फ़िल्टर सिर्फ़ 300रुपए का है। कुल मिलाकर देशी इलाज है लेकिन कारगर है। मैने इसका चित्र लिया।
सभागार-बिना लकड़ी,लोहे की छत

चाक पर काम करने वाले कुम्हार वर्तमान में बेरोजगारी के कगार पर हैं। क्योंकि अब घरों में लोग कवेलु लगाना पसंद नहीं करते। थोड़े से और रुपयों का इंतजाम करके कांक्रीट की ही छत बनाना चाहते हैं जिससे जीवन भर का आराम हो जाए। कवेलुओं हर साल एक बरसात पड़ने के बाद फ़िर से पलटना पड़ता है। बिल्ली आदि के कूदने से कवेलु टूट जाते हैं और वहां पानी का रिसाव होता है। कवेलु की छत बनाना भी एक कला है। गाँव में कवेलु की छत बनाने का काम कुछ विशेष लोग ही करते हैं। मिट्टी के घड़ों की जगह घर में फ़्रीज आ गए हैं, जिनकी थोड़ी बहुत ज्यादा आय है वह किश्तों में फ़्रीज ले लेता है। अगर आय नहीं है तो शादी में दहेज में मांग लेता है। इस तरह अब घड़ों का इस्तेमाल बहुत कम हो रहा है। दीवाली में भी दिए वर्तमान में चीन से आ रहे हैं। जिसमें मोम जमाकर बत्ती लगा दी जाती है। अब कौन तेल और बत्ती लगाने का झंझट रखे। सीधा उन्ही रेड़ीमेट दियों का उपयोग कर लेता है। इस तरह कुम्हारों का काम खत्म होता जा रहा है।
कवेलु और छत का डिजाईन

इस छत को बनाने के लिए प्रथम आवश्यक्ता कुम्हारों की है। क्योंकि इसके कवेले चाक पर ही बनते हैं। कोई एक फ़ुट लम्बाई के शंकु आकार के और फ़िर इन्हे भट्टी की आंच में अच्छी तरह पकाया जाता है। फ़िर छत पर इनकी मेहराब बनाई जाती है। एक मेहराब की चौड़ाई 12फ़ुट तक हो सकती है जो दीवारों पर टिकी होती है। पहले चारों तरफ़ दीवार बनाकर उसे लगभग 8फ़ुट की उंचाई दी जाती है। उस पर चारों तरफ़ एक कांक्रीट का बीम डाला जाता है। फ़िर उस पर अर्ध चंद्राकर सेंट्रिंग बांधी जाती है। उस सेंट्रिंग के सहारे शंकुआकार के कवेलुओं को एक दुसरे में फ़ंसाया जाता है। इस तरह एक एक पंक्ति तैयार की जाती है।फ़िर पंक्तियों के बीच में सीमेंट भरकर छत पर सींमेंट का प्लास्टर कर दिया जाता है। आप इसे खुबसुरत रुप देने के लिए टूटी हुई सिरेमिक टाईल्स भी चिपका सकते हैं। इससे बनी छत पर्यावरण की दृष्टि से बहुत अच्छी है और लकड़ी,लोहे की बचत हो जाती है। मजबूती में कोई कमी नहीं है भवन भी बहुत सुदर दिखाई देता है। छत का पूरा वजन मेहराबों से होते हुए दीवालों पर आ जाता है। इसका एक महत्वपूर्ण पहलु यह है कि कुम्हारों को काम मिलेगा और कम लागत में अच्छी छत का निर्माण हो जाएगा।
घाट

अब यहां से निकल कर हम नागपुर की ओर चल पड़े। लगभग 9 बजे नागपुर में प्रवेश कर चुके थे। रात भर गाड़ी चलाने से थकान भी लग रही थी। अब जल्दी से कोई होटल देख कर उसमें सोना चाहते थे। सेंट्रल एवेन्यु नागपुर में रेल्वे स्टेशन के पास बहुत से होटल हैं। पिछले बार हम प्रेशर के चक्कर में गलत होटल में फ़ंस गए। इस बार उससे थोड़ा आगे पैराडाईज होटल था। वहां जाकर किराया पूछने पर उसने नान एसी कूलर वाला कमरा 750 रुपए का बताया। साथ में 12%टैक्स भी। हमने कमरा देखा तो अमीर होटल से बहुत अच्छा था। पिछली गलती का अहसास हुआ। बाथरुम अच्छा बड़ा था। होटल में खाने का रेस्टोरेंट भी था, लेकिन रुम सर्विस के नाम पर 10% चार्ज अलग से लिया जाता है।

नीरज और विक्की तो पड़ते ही सो गए। मैं लग गया लैपटाप पर। मैने एक पोस्ट भी लगाई थी कि अगर कोई हिन्दी ब्लागर नागपुर में है तो कृपया सम्पर्क करे। लेकिन वहां मुझे कोई भी हिन्दी ब्लागर नहीं मिला। इतने दिनों की ब्लागिंग में शायद ही किसी का नागपुर का प्रोफ़ाईल देखा हो। अगर देखा होता तो अवश्य ही याद आ जाता। कुछ टिप्पणियां मार कर मै स्नान कर के सो गया। आगे की कहानी बाकी है दोस्त.........

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रविवार, 25 जुलाई 2010

एक ऐसा गाँव जहां किसी घर में दरवाजे नहीं--यात्रा-3

प्रारंभ से पढें
चिखली हमारी यात्रा का तकलीफ़देह पड़ाव इसलिए बना कि यहीं से हमारी गोवा जाने की योजना खटाई में पड़ती दिख रही थी। चिखली में गाड़ी की पैट्रोल टंकी फ़ुल कराई और वहीं से गाड़ी नीरज चलाने लगा था। अगर पहले रास्ते पर लगातार चलते रहे तो अभी तक चांदवड़ या नासिक तक पहुंच जाते। लेकिन मोबाईल फ़ोने ने समस्या खड़ी कर दी। यह न होता तो हम सालिगराम जी फ़ोन कैसे लगाते और समस्या में कैसे फ़ंसते? बस फ़ंसना ही था। चिखली से औरंगाबाद तक का रोड़ खराब है इस पर चौड़ीकरण के लिए काम चल रहा है। धीरे-धीरे चलते हुए लगभब 4 बजे औरंगाबाद बायपास तक पहुंचे। नीरज ने अब फ़िर शहर में गाड़ी मुझे थमा दी। वहां से हमने पुछताछ कर पूना वाला रोड़ पकड़ लिया। 


बीबी का मकबरा-औरंगाबाद
यहां पहुंचने पर प्रसिद्ध ताजमहल का प्रतिरुप बीबी का मकबरा दूर से ही दिखता है। औरंगाबाद में बहुत सारे उद्योग हैं। बड़ी बड़ी कम्पनियों ने यहां अपने कारखाने खोल रखे हैं। यहां हवाई अड्डा भी है, जहां यात्री विमान सेवा के विमान लगातार आते जाते रहते हैं। औरगाबाद से बाहर 30 किलो मीटर तक बहुत ही ज्यादा ट्रैफ़िक था। विक्की पिछली सीट पर मजे से आराम ही करता रहा यहां तक के सफ़र में। नीरज ने बताया था कि यह गाड़ी बहुत रफ़ चलाता है। इसलिए उसे अभी तक हमने कार चलाने नहीं दी थी। 30किलोमीटर के बाद हाईवे पर कुछ ट्रैफ़िक कम हुआ। इस हाईवे पर गाड़ियाँ बहुत तेज चलती हैं। 100-120 की स्पीड से कम तो कोई चलता ही नहीं है और हाईवे भी बहुत शानदार है। हमने भी पूरा पंजा दबा रखा था। बीच में कहीं पानी बरसने लगा। तब थोड़ी स्पीड कम की। लगातार चलते रहे। हाईवे पर 76किलोमीटर पर शनि मंदिर का गांव सिंघनापुर है। यहां लगभग पूरे भारत से शनि भक्त आते हैं। हाईवे पर 76किलोमीटर पर  घोड़ा सार गांव  आता है और फ़िर वहीं से सीधे हाथ की तरफ़ एक बड़ा प्रवेशद्वार बना है। जहां से सिंघनापुर 2-3किलोमीटर होगा।


शनिदेव सिंगणापुर
प्रवेशद्वार के पास ही हमें कुछ मोटर सायकिल सवार मिले। उन्होने हमसे मंदिर जाने के विषय में पूछा और हमारे आगे आगे पायलेटिंग करने लगे। मेरी समझ में नहीं आया कि ये इतना स्वागत क्यों कर रहे हैं। रास्ते पर गाँव वालों ने एक नाका बना रखा रखा है। वहां पर 6 रु प्रतिवाहन प्रवेश कर लिया जाता है ग्राम पंचायत के द्वारा। मैने महाराष्ट्र में देखा कि हर 25-30किलोमीटर के बाद एक टोल नाका है। जहां कार से 25 रुपया टोल लिया जाता है, अभी तक हम हजारों रुपए टोल के दे चुके थे। ऐसा हमारे 36 गढ में नहीं है। सिर्फ़ एक टोल भिलाई 4 लाईन का है वहां भी 17रुपए एक तरफ़ के लिए जाते हैं। हम मंदिर पहुंचे तो पता चला कि वे मोटर सायकिल वाले पूजा सामग्री दुकान वाले एजेंट हैं। प्रवेशद्वार से ही ग्राहक पकड़ कर लाते हैं और दुकानदार से अपना कमीशन वसुलते हैं। 

शनिदेव सिंगणापुर
हमें एक एक केसरिया कटिवस्त्र दिया गया। हमने गाड़ी में कपड़े उतार कर रखे। वहां बहुत सारे नल लगे हैं जिसमें कपड़ों सहित भीगना पड़ता है। हम एसी से सीधे निकलते ही भीग लिए जिससे ठंड लगने लगी। दुकानदार ने पूजा सामग्री का मुल्य 151 रु से 351 रुपए तक बताया। जबकि उस पूजा सामग्री में तेल नहीं था, वह अलग से लेना पड़ा। हमने एक लीटर तेल लिया 120 रुपए का। शनि सिंघनापुर में सिर्फ़ तेल ही चढता है। बाकी सामग्री प्रवेश द्वार पर ही चढा दी जाती है। दर्शनार्थियों की लाईन कोई ज्यादा बड़ी नहीं थी। हम शाम की आरती के समय पहुंच गए थे। 

शनिदेव सिंगणापुर
यहां शनि देवता के विग्रह के रुप में एक अनगढ चौरस पत्थर है। जिस पर ही सभी तेल चढाते हैं। अगरबत्ती इत्यादि पास ही धुने में लगा दी जाती है। शनि की पूजा के लिए महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। वे कटघरे के बाहर से ही दर्शन करती हैं। पुरुष और बच्चे ही तेल चढाते हैं और वहाँ पूजा करते हैं। जो बहुत ज्यादा तेल चढाता है। पीपा दो पीपा उसे वहां के पड़े अलग ले जाकर पूजा करवाते हैं। पाव आधा पाव वाले को सीधा ही रास्ता दिखा देते हैं। आधे घंटे में हम वहां से दर्शन करके निकल चुके थे। वापस आकर दुकानदार का हिसाब किया। यहां चोरी नहीं होती किसी के घर में भी दरवाजे नहीं है। इस गांव की आमदनी का एक बड़ा साधन दर्शनार्थियों के आगमन से ही है। इस तरह तीन दिनों के बाद हम किसी एक जगह पहुंचे। नहीं तो दिन रात सिर्फ़ सड़क ही नाप रहे थे।


नीरज और विक्की
शनि सिंघनापुर से दर्शन करके निकलते वक्त घर से फ़ोन आया कि अब 5 दिन हो गए हैं निकले हुए,वापस चले आओ। मैने और नीरज ने सहमति बनाई और वापस औरंगाबाद की ओर शाम 7बजे लगभग निकल पड़े। विक्की ने ड्रायविंग संभाल ली और मै पिछली सीट पर सो गया। दिन रात गाड़ी चलाने के कारण थकान हो चुकी थी। लेटते ही नींद आ गयी। जब मेरी आंख खुली तो देखा की कार एक ढाबे पर दो ट्रालों के बीच में खड़ी हुयी है। नीरज और विक्की ढाबे मे सोए हुए हैं। घड़ी देखने पर पता चला कि साढे तीन बज रहे हैं। मैने उठकर ढाबे में मुंह धोया और चाय पीकर ड्रायविंग सीट संभाल ली। कारंजा वहां से 25किलो मीटर था। मतलब हम औरंगाबाद से निकल कर बहुत दूर आ गए थे। कब औरगाबाद पार हुए मुझे तो पता ही नहीं चला। वापस होते समय मन में था कि शेगांव गजानंन महाराज के भी हो आएं। लेकिन यह रास्ता अकोला नहीं जा रहा था। रास्ता वर्धा की ओर जा रहा था। अकोला जाने के लिए फ़िर 125किलोमीटर जाना पड़ता। 

कारंजा टोल पर मैने रास्ता पूछा तो उन्होने यही बताया। लेकिन वापस जाने की बजाए आगे जाना ही ठीक समझा। वर्धा वाली सड़क पर वाहन कम चल रहे थे। नीरज और विक्की सोए हुए थे अकेले गाड़ी चलाते वक्त भ्रम होता था कि गाड़ी हवा में तैर रही है। आसमान में निकले हुए तारे और क्षितिज पर चमकती हुयी दिन निकलने की समय की रोशनी अजीब ही लग रही थी। जैसे किसी रेगिस्तान में हम जा रहे हैं। जहां कोई आबादी नहीं है, निर्जन बीहड़ स्थान में। कहीं कहीं कोई ट्रक आता हूआ दिख जाता था आधे घंटे में। मैं सोच रहा था कि कहीं अंधेरे में कोई गलत रास्ता तो नहीं पकड़ लिया है। फ़िर मन को सांत्वना देता था कि रास्ता तो है कहीं तो जाकर निकलेगा। गाड़ी में पै्ट्रोल है इसलिए अभी चिंता करने की जरुरत नहीं है। बस इसी उधेड़ बुन में दिन निकल गया। सुबह सुबह सैर के समय वर्धा पहुंच गए। जारी है-आगे पढें।

चित्र गुगल और वेबदुनिया से साभार
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शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

हमारे यात्रा का तकलीफ़ देह पड़ाव चिखली---यात्रा 2

हाईवे
प्रारंभ से पढें.....,अमीर होटल में बैठकर हमने कार्यक्रम बनाया कि गुजरात की तरफ़ निकला जाए। सौराष्ट्र और बाकी गुजरात देखा जाए। गांधी नगर,कांडला चला जाए। फ़िर उधर से सिल्वासा भी जाया जाए। रात को हमने अलबेला खत्री जी को फ़ोन लगाया तो उन्होने फ़ोन अटेंड नहीं किया। कुछ देर बाद उनका फ़ोन आया। उन्होने बताया कि वे इस हफ़्ते सुरत से बाहर हैं, इसलिए अपनी मुलाकात नहीं हो पाएगी। तभी नीरज के घर से फ़ोन आया और उसने इरादा बदल दिया। कहने लगा कि मुंबई होते हुए गोवा चलते हैं। फ़िर खंडाला पूना होते हुए वापस आ जाएंगे। रात को हमने अब पक्का विचार कर लिया कि आज रात तक कैसे भी हो मुंबई पहुंच जाएंगे। नागपुर से मुंबई लगभग 800किलो मीटर है और हम तैयार थे एक दिन में यह सफ़र करने को। रात एक बजे हमने होटल छोड़ दिया और चल पड़े मुंबई की ओर,आगे गोवा रत्नागिरी,गणपतिपूळे जाने के मंसुबे बांधते हुए। मैं पहले भी इस इलाके में कार से आ चुका था। लेकिन लगभग 10साल बीत जाने के बाद सड़कें और मार्ग पूरा याद नहीं था।
बुलढाणा का घाट-अजंता मार्ग
अमरावती पहुंचे तो दिन निकलने वाला था, उजाला हो रहा था। अमरावती बायपास से अकोला की तरफ़ चल पड़े। रास्ता अच्छा है सड़क एकदम चकाचक। गाड़ी 100-120 के बीच मजे से चल रही थी। अकोला एक होटल में चाय पीने के बाद हम लगभग 7/30 बजे खामगांव पहुंच गए। खामगांव पहुंच कर सोचा कि स्नान खामगांव में किया जाए या चिखली में। चिखली मेरे सालिगराम जी की ससुराल है और मैने सोचा कि यह मुंबई नासिक हाईवे पर ही है। मैने फ़ोन लगाकर सालिगराम जी से पूछा कि खामगांव से चिखली कितनी दूर है? तो उसने कहा एक घंटे का रास्ता है। हमने चिखली में रुक कर नहाने धोने का इरादा बना लिया। खामगांव बायपास पर मुझे एक रोड़ दाईं तरफ़ जाता दिखाई दिया। मैने उस रोड़ पर गाड़ी डाल दी नीरज सोया हुया था। गाड़ी मोड़ते ही देखा कि बाकी गाड़ियों की कानबाई तो दुसरे रोड़ पर जा रही है। मैने गाड़ी बैक करके फ़िर वही रोड़ पकड़ लिया।
घाट से पर्वत दर्शन
एक घंटे हो गये लगातार गाड़ी चलाते। नांदुरा निकल चुका था। मलकापुर आने वाला था। मुंबई लगभग 500 किलोमीटर दिखा रहा था मील का पत्थर। लेकिन चिखली कहीं नहीं आया। एक जगह चिखली खुर्द नाम का गांव दिखा लेकिन वह छोटा था। मतलब जिस चिखली में हमे जाना था वह नहीं था। मैने सड़क पर गाड़ी रोकी, नीरज उठा और मैदान की चला गया। तभी मेरे मोबाईल पर सालिगराम जी का फ़ोन आया कि कहां पहुंचे? जब मैने स्थान बताया तो उसने कहा कि आप गलत रास्ता पकड़ लिए। वापस आना पड़ेगा। मैने कहा कि अब चिखली आना स्थगित करते हैं और सीधा ही मुंबई चलते हैं। अब हम लगभग 150 किलोमीटर आ चुके थे। ऐसा कहकर मैने फ़ोन बंद कर दिया। आगे निकल लिए, फ़िर सलहज जी का फ़ोन आया कि आपको आना ही पड़ेगा। ऐसे नहीं जा सकते। मेरे मना करने पर उनकी माता जी ने फ़ोन करके आने का निवेदन किया। मैने मना कर दिया। नीरज भी वापस जाने के लिए तैयार नहीं था।

घाट का एक मोड़-कार चलाते हुए फ़ोटो ली
कुछ देर में गृहमंत्री जी फ़ोन आ गया और कहा कि आपको जाना ही पड़ेगा, वे कब से चिखली में आपका इंतजार कर रहे हैं। मैने उन्हे भी मना कर दिया और फ़ोन बंद कर दिया। फ़िर सोचा की लौटकर तो घर ही जाना है। फ़ालतु बात खड़ी रह जाएगी जीवन भर के लिए। जब उन्हे फ़ोन करके मुसीबत मोल ले ही ली तो झेल भी लिया जाए। यह सोच कर मैने गाड़ी वापस मोड़ दी। नीरज कहने लगा कि 125किलोमीटर जाना है और फ़िर मुंबई कब पहुंचेगे? बुलढाणा से चिखली होते हुए औरंगाबाद से मुंबई हाइवे है। उस पर चले जाएंगे, अब देर ही सही। सुनकर नीरज को तसल्ली हुयी। नांदुरा से कटे फ़टे रोड़ से हम मोताळा हो्ते हुए 12 बजे चिखली पहुंचे। हमने उन्हे लौटने की खबर नहीं दी थी। बस स्टैंड में फ़ोन करके अनुप को बुलाया और फ़िर उनके घर गए। अब देखकर वो भी भौंचक्के हो गए। मना करने के बाद भी वहां पहुंच कर उन्हे चौंका दिया।

चिखली से विदा होकर औरंगाबाद की ओर
चिखली के विषय में एक बात बताता चलुं कि यहाँ पर पानी की बहुत समस्या है। 10-10दिन में पानी आता है। अगर किसी को पानी की कीमत जानना है और उसके किफ़ायती प्रयोग देखने हैं तो यहां अवश्य आए। सभी लोगों ने अपने घरों के नीचे टैंक बनवा रखे हैं। टैंकर मंगवा कर उसे भरते हैं। नल आता है तो पानी भरने के लिये हाय तौबा मची रहती है। यहां पानी की बहुत तकलीफ़ है। हमने भी पानी का किफ़ायती इस्तेमाल किया। गाड़ी को सर्विसिंग के लिए भेज कर हमने स्नान किया और फ़िर भोजन करके आगे जाने के लिए तैयार हो गए। वे भी बहुत खुश हुए कि हम आ गए। वहीं आगे के सफ़र के विषय में चर्चा की तो चिखली वालों ने कहा कि औरंगाबाद से आगे शनि सिंघनापुर का मंदिर है। वहां आप दर्शन करके आगे जाएं। लगभग 2 बजे हम औरंगाबाद के लिए चल पड़े थे। चिखली हमारे यात्रा का बहुत तकलीफ़ देह पड़ाव बनने वाला था यह हमने नहीं सोचा था। जारी है--आगे पढें
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