मैने देखा कि बंगाल के ग्रामीण अंचल में गरीबी अधिक है, लोग प्राकृतिक संसाधनों पर ही जीवन गुजर बसर कर रहे हैं। बंगाल की कम्युनिस्ट राजनीति ने इन्हे कहीं का नहीं छोड़ा। कम्युनिस्टों का कैडर इनकी जान के पीछे पिस्सुओं जैसे पड़ा रहता है। हर पल इनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता पर नजर रखी जाती है। अगर कोई धोखे से भी किसी दूसरी पार्टी की रैली या भाषण में खड़ा दिख गया तो उसकी शासकीय सुविधाएं जैसे पेंशन-राशन इत्यादि बंद कर दिया जाता है। इसलिए गरीब आदमी सुविधा खोने के डर से किसी दूसरी राजनैतिक पार्टी की ओर चाह कर भी नहीं देख पाता। जिसमें शासकीय सुविधाएं ठुकराने की हिम्मत है वही दूसरे राजनैतिक दलों की ओर जाता है। गरीबी कम्युनिस्टों के शासन की कलई खोलते हुए दिखाई देती है।
13 जुलाई को हम सुबह स्नान प्रात:राश आदि से निवृत्त होकर दक्षिणेश्वर के दर्शन के लिए चल पड़े। हमने हावड़ा स्टेशन से ही ट्रेन पकड़ ली, जिसने हमें दक्षिणेश्वर के करीब के स्टेशन पर पहुंचा दिया। स्टेशन का नाम भूल रहा हूँ, फ़िर इस स्टेशन से हम ओवर ब्रिज पर चढे और वहां से दक्षिणेश्वर के लिए ऑटो लिया। 40 रुपए में ऑटो वाले ने हमें वहां पहुंचा दिया। आज रविवार का दिन था। दक्षिणेश्वर में बहुत भीड़ थी। कलकत्ता आने वाला हर मुसाफ़िर दक्षिणेश्वर के मंदिर में दर्शन करने अवश्य जाता है। इस मंदिर का बहुत बड़ा प्रांगण है। मंदिर के प्रवेश के लिए लम्बी लाईन लगी हुई थी।
दक्षिणेश्वर के विषय में जानकारी है कि इसका निर्माण सन 1847 में प्रारंभ हुआ था। जान बाजार की महारानी रासमणि ने स्वप्न देखा था, जिसके अनुसार माँ काली ने उन्हें निर्देश दिया कि मंदिर का निर्माण किया जाए। इस भव्य मंदिर में माँ की मूर्ति श्रद्धापूर्वक स्थापित की गई। सन 1855 में मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। यह मंदिर 25 एकड़ क्षेत्र में स्थित है।माँ काली का मंदिर विशाल इमारत के रूप में चबूतरे पर स्थित है। इसमें सीढि़यों के माध्यम से प्रवेश कर सकते हैं। दक्षिण की ओर स्थित यह मंदिर तीन मंजिला है। ऊपर की दो मंजिलों पर नौ गुंबद समान रूप से फैले हुए हैं। गुंबदों की छत पर सुन्दर आकृतियाँ बनाई गई हैं। मंदिर के भीतरी स्थल पर दक्षिणा माँ काली, भगवान शिव पर खड़ी हुई हैं। देवी की प्रतिमा जिस स्थान पर रखी गई है उसी पवित्र स्थल के आसपास भक्त बैठे रहते हैं तथा आराधना करते हैं।
हमने एक दुकान वाले के पास जूते चप्पल उतारे और पूजा का सामान लिया। लाईन में लग गए।मंदिर के अंदर काली माई का विग्रह है, यहां रामकृष्ण परम हंस को अनुभूति हूई थी। एक घंटे तक लाईन में लगने के बाद दर्शन का हमारा नम्बर आया। पत्र-पुष्प चढाकर हमने प्रसाद लिया और वहीं कुछ देर बैठ गए। इस मंदिर के प्रांगण में द्वादश ज्योतिर्लिंग भी बनाए गए हैं। हमने इन ज्योतिर्लिंगों पर जल अर्पित किया। यहां एक खास बात देखने में आई कि सभी लोग मौली के धागों में बंधे हुए छोटे-छोटे मिट्टी के ठिकरे ले रहे थे और उन्हे अपनी बांह पर ताबीज जैसे बांध रहे थे। मैने बहुत सारे बंगालियों को ये ठीकरे बांधे हुए पहले भी देखा था।लेकिन अब जाकर पता चला था कि ये ठीकरे दक्षिणेश्वर काली मंदिर से लिए जाते हैं।
मंदिर से निकासी के रास्ते पर रामकृष्ण परम हंस की बैठक है, जहां पर वे बैठकर अपने शिष्यों को ज्ञान दिया करते थे। आगंतुकों से मिलते थे। वहां पर उनका तख्त भी रखा है। माता शारदा एवं विवेकानंद के चित्र भी लगे हैं, उनकी स्मृतियाँ यहां संजोकर रखी गयी हैं। हम भी कुछ देर इस कमरे में बैठे, बहुत शांति मिली। सकारात्मक उर्जा हमेशा मानव मन को शांत और चित्त को स्थिर करती है। ऐसा ही कुछ अनुभव यहां पर हुआ। मोबाईल सब स्विच ऑफ़ कर दिए जाते हैं। यहां से निकल कर हम उस स्थान पर पहुंचे जहां रामकृष्ण बैठा करते थे पेड़ की छांव में। यहां एक कुटिया बना दी गयी और उसका दरवाजा बंद कर दिया गया था। यहां पर भी हमने कुछ देर विश्राम किया। अब थोड़ा बहुत नास्ता करके हम नाव की सवारी को तैयार थे।
चित्र-गुगल से साभार
ललित शर्मा
चलती-का-नाम-गाड़ी,
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