शनिवार, 25 दिसंबर 2010

जान बची लाखों पाए -- लौट के पदयात्रा से घर को आए -- बाबा धाम यात्रा -- अंतिम भाग


हमने अपना सामान संभाला और धर्मशाला से बाहर निकले। देखा की मेरी लाठी गायब है। उसकी जगह कोई अपनी पतली सी लाठी छोड़कर चला गया था। मैनें वह लाठी सुईया पहाड़ के नीचे बह रही नदी में पायी थी। अच्छी मोटी लाठी थी,जो कि सफ़र में सहारा बनी हुई थी। मुझे लाठी न पाकर अफ़सोस हुआ कि चोरों की निगाह लाठी पर भी है। अगर कोई जरुरतमंद मांग लेता तो मैं दे देता। अब छड़ी से ही काम चलाना पड़ेगा सोचकर मैने छड़ी उठाकर यात्रा प्रारंभ कर दी। जब चलने लगा तो ऐसा लगा कि बहुत ही फ़ुर्ती आ गयी है। मैने देवी से कहा कि –“मैं आगे निकल रहा हूँ मेरे से धीरे नहीं चला जा रहा है। अगले स्टाप पर मिलता हूँ। मैं दौड़ता ही जा रहा था। कदम रुक ही नहीं रहे थे। इस तरह लगातार ढाई घन्टे चला।
एक धर्मशाला नजर आई, मुझे गोहाटी में एक सज्जन मिले थे और इस धर्मशाला में आने का विनम्र आग्रह किया था। इस आसाम की धर्मशाला को देख कर मुझे उनकी याद आ गयी। मैने जल रखा और धर्मशाला के अंदर गया। बहुत बड़ी जगह में धर्मशाला निर्माण किया गया था और अस्थाई टेंट लगा कर भी रुकने की व्यवस्था की गयी थी। मैने सोचा की सब लोग पीछे हैं तो थोड़ी रुक जाता हूँ। मैने पानी पीया ही था। तभी गेट की तरफ़ मेरी निगाह गई तो देवी जैसा कोई दिखाई दिया। मैने पानी का गिलास फ़ेक कर दौड़ लगाई तो देखा हमारे ही साथी थे। वे भी रफ़्तार से ही चल रहे थे। अगर मैं देख नहीं पाता तो उनसे पीछे रह जाता और हम बिछड़ जाते।
आठ बज रहे थे। अचानक मुसलाधार वर्षा होने लगी। हमें किसी भी तरह टनटनिया तक जाना था। हमने एक टैंट में शरण ली। मैं तख्त पर बैठा तो बैठा ही नहीं गया। पिंडलियों को हाथ लगाया तो वे पत्थर जैसी हो चुकी थी। देवी भाई ने जैसे ही मेरी पिंडली को दबाया तो दर्द के मारे आँख से आँसू निकल आए। बहुत ही अधिक दर्द था। बरसात रुकने लगी। बरसात रुकते ही हमने फ़िर से चलने का मन बना लिया। हम चल पड़े, जमीन ठंडी हो चुकी थी। हमने बिहार की सीमा से बाहर निकल कर झारखंड की सीमा में स्थित कलकतिया में रुकने का मन बनाया। लगभग 10/30 बजे कलकतिया पहुंचे और एक झोपड़ी में देरा लगाया। यहाँ पहुंच कर लगा कि अब हम बाबा धाम पहुंच गए हैं। रात को चावल और सब्जी खाई। सोने के समय न जाने कहां से मच्छर आ गए। ओडोमास का प्रयोग किया गया कि नींद आ जाए उसके बाद तो चाहे मच्छर उड़ा ही ले जाएं।
सुबह स्नान ध्यान के पश्चात 6 बजे हमने एक बार फ़िर चलना शुरु किया। यह हमारी यात्रा का अंतिम चरण था। 7 बजे मैं भूत बंगला पहुंच गया था। जहां से मंदिर सिर्फ़ 2 किलोमीटर दूर है। यहां रुक कर मैने साथियों का इंतजार किया। वे आधे घंटे विलंब से पहुंचे। नीनी महाराज गुस्सा हो रहे थे और कह रहे थे कि जितना हम मंजिल के नजदीक पहुंचते जा रहे हैं देवी की रफ़्तार कम होते जा रही है। हम धोबी तालाब का एक चक्कर लगा कर मंदिर के पास पहुचे। दर्शनिया से बोल बम की एक किलोमीटर लम्बी कतार लगी हुई थी। हम भी धीरे धीरे सरकते रहे उनके साथ। दो घंटे बाद हम मंदिर के दरवाजे तक पहुंचे। अंदर जाने पर देखा कि तीन मंजिल के प्लेट फ़ार्म पर रस्सीयाँ बांध कर भूल भूलैया जैसा बनाया गया है। बीच में दो चार ढोल बजाने वाले है और पुलिस वाले सभी को इन रस्सियों के बीच से दौड़ा रहे हैं। हम भी दौड़े तब कहीं जाकर बाबा के मुख्य दरवाजे तक पहुंचे।
मंदिर का मुख्य दरवाजा छोटा है और वहां पर पुलिस का पहरा। 50-60 कांवड़ियों के दल को एक साथ छोड़ा जाता है। मंदिर के अंदर पहुंच कर मैने जल चढाया और विग्रह को हाथ से छूने के लिए शिवलिंग के सामने बैठ गया। बैठते ही पंडो ने छड़ी चलानी शुरु कर दी। सिर पर छड़ी से मारने लगे। उठो उठो, मैने अपने हाथ में रखे 20 रुपए का एक नोट उसे दिया। तो दूसरे पंडे की छडी चलनी शुरु हो गयी। इसके बाद मैने उठने की कोशिश की। लेकिन लोगों के हूजुम ने मेरे कंधे दबा दिए। मैं उठ ही नहीं सका। पूरी ताकत लगाई फ़िर भी दरवाजे से आते हुई भीड़ मेरे कंधों पर ही आ पड़ती थी। फ़र्श गीला होने के कारण पैर जम नही पा रहे थे। उपर से छड़ी की मार असह्य हो रही थी। एक बार फ़िर ताकत लगाई तो उठ पाया और मंदिर के बाहर दौड़ कर निकला तब सांस ली। एक बारगी तो लगा कि जान ही निकल जाएगी।
बैद्यनाथ मंदिर का वास्तु शिल्प 7 वीं शताब्दी का और बलूए पत्थर से निर्मित है। इसके सामने आंगन के उस पार पार्वती माता का मन्दिर है। इस प्रांगण में बहुत भीड़ थी। सभी पंडों ने अपनी अपनी चौकियां लगा रखी थी। जिस पर बैठ कर अपने नए पुराने जजमानों की जेब ढीली कर रहे थे। हम लोग भी खाना खाकर आराम करने के लिए पंडे के घर चले गए। मैने दो घंटे आराम किया। नीनी महाराज और देवी घुमने चले गए थे। मै और उमाशंकर बाहर निकले, सेविंग कराई,चप्पल खरीदे, चाट खाई और पुन: मंदिर की ओर चल पड़े। उमाशंकर शयन आरती करना चाहते थे। तभी डॉक्टर का फ़ोन आया उसने पूछा कि हम कहां है? मैने बताया कि पंडे के पास बैठा हूँ मंदिर में यहीं आकर मिल लें। हम सब मंदिर में मिले। बिछड़े हुए एक दिन हो गया था।
रात को भोजन के पश्चात हम आटो से जस्सीडीह पहुंचे, जस्सीडीह लगभग 12 किलोमीटर है देवघर से। टिकिट हमारे पास ही थी, इसलिए दूसरे दल को हमारे पास ही आना था। रात को डेढ बजे साऊथ बिहार एक्सप्रेस आई। हम सबने अपनी-अपनी बर्थ संभाल ली। दोपहर तक सोते रहे। 12 बजे टाटानगर में इडली  का प्रसाद लिया। इडली लेते हुए टाटानगर में कहीं मेरी जेब से पैसे गिर गए। तो दिनेश से मुझे घर तक पहुंचने के लिए 30 रुपए लेने पड़े। 21 जुलाई की रात साढे नौ बजे हम रायपुर पहुंचे। स्टेशन पर रवि श्रीवास मौजुद थे। उन्होने मुझे स्टेशन से काली बाड़ी तक पहुंचाया। जहां से मुझे रात को जगदलपुर वाली बस मिली। घर पहुंच कर मुझे लगा कि एक बार फ़िर इस यात्रा पर चलना चाहिए। बहुत स्फ़ूर्ति दी इस यात्रा ने। एक असंभव सी लगने वाली पदयात्रा सम्पन्न करके मेरा रोम-रोम खुशी से भर उठा। एक बार फ़िर इस यात्रा को करने की तमन्ना है।
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बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

रास्ते में भिखारियों की बाढ---यात्रा--13

सुबह 5 बजे उठकर स्नान पूजा की, बाकी लोग तो कुछ नहीं खाना चाहते थे लेकिन मैने दही और चुड़ा(पोहा) खाया। चलने को तैयार हुए तो पैरों में दर्द होने के कारण चला नहीं जा रहा था। आज की यात्रा अधिक कठिन लग रही थी। हमें सुईया पहाड़ भी पार करना था। जैसे ही मैं दो कदम चला तभी नीनी महाराज ने आवाज दी, मैने मुड़कर देखा तो वे हमारे बगल वाले टेंट में सोए हुए थे। लेकिन हमारे से सम्पर्क नहीं हो सका। उन्होने कहा कि आप लोग चलो हम आ रहे हैं। कल ये लोग हमारे साथ जिलेबिया पहाड़ पर चढते चढते गायब हो गए थे। फ़िर अभी मिले 12 घंटे के बाद। हमने थके हुए कदमों से यात्रा प्रारंभ करके पहाड़ की चढाई चढी। फ़िर जंगल में पहुंच गए, नदी नाले पार करते हुए सुनसान में यात्रा करते रहे। जंगल से बाहर निकल कर एक कस्बे अबरखिया में चाय पी।

यहां पर उमाशंकर किसी की किसी बात का बुरा मान गए। जेब से टिकिट और रुपए निकाल कर फ़ेंक दिए कि अब तुम्हारे साथ नहीं जाउंगा। मैं बस से चला जाउंगा। तुम लोग जाओं। मामला गंभीर हो चुका था। हम चक्कर में फ़ंस चुके थे।मैने उसे बहुत समझाया, सबकी गलतियों की माफ़ी मांग ली, बहुत मिन्नते की,  कहने लगा कि पहले इनको (डॉक्टर बबलु आदि) जाने दो। ये तीनो आगे निकल गए और हम पीछे-पीछे मै, उमाशंकर देवी भाई और नीनी महाराज्। अब हमारा दल दो टुकड़ों में बंट गया था। अलग-अलग चलने लगे।
रास्ते में भिखारियों की बाढ देख कर तो एक बार मुझे लगा कि किसी और दुनिया में आ गया हूँ। तरह तरह के भिखारी, तरह-तरह के कोढी, जिन्हे देख कर जुगुप्सा हो जाए। अगर एक बार उनके कृतिम घावों को देख लें तो तीन दिन खाना नहीं खाया जाए और उबकाई आती रहे। लोगों ने पेशा बना रखा है। रास्ते में कोई शिव, कोई काली, कोई अन्य किसी भगवान का स्वांग भरकर आपके पीछे लग जाएगा। कोई आपके पैरों में पानी की बोतल लेकर पानी डालने लग जाएगा। कोई भीख के लिए मीलों आपके पीछे चले आएगा। सुईया से लेकर इनारावरण तक देखा कि भीख मांगना भी एक कुटीर उद्योग का रुप ले चुका है। इसे मान्यता दे देनी चाहिए और इनकम टैक्स लगा देना चाहिए। यहां से रोज लाखों लोग गुजरते हैं और ये सिर्फ़ एक रुपया मांगते हैं अब आप हिसाब लगा लिजिए कि कितनी आय इनकी हो जाती है। हम लोग तो सावन प्रारंभ होने के पहले ही यात्रा में आ गए थे। सावन के पहले दिन से लोग शुरु होते हैं तब ठीक से रास्ते भर दुकान सज जाती है। जगह-जगह चांपाकल (बोरिंग) लग जाते हैं। सभी सुविधाएं प्रारंभ हो जाती है। हम लोग तीन दिन पहले जाते हैं तब इतनी सुविधाएं प्रारंभ नहीं हुई रहती।

हम लोगों ने दोपहर का खाना इनारावरण में और रात्रि का विश्राम टनटनिया में तय किया। हम लोग चल पड़े 15 किलो मीटर के बाद काफ़ी धूप निकल आई थी, उपर से सूरज और नीचे जांघ की चमड़ी छिल जाने से बड़ी तकलीफ़ हो रही थी। चला नहीं जा रहा था। मैने जांघ में नारियल तेल लगाया और यात्रा आरंभ की। हम सब साथ चल रहे थे आगे और पीछे। इनरावरण तक बहुत गर्मी बढ गई थी पैदल चलना मुस्किल हो गया था। मैं धीरे धीरे चल रहा था। पैर के तलुओं को रेत की गर्मी झुलसा रही थी। इनरावरण बड़ा कस्बा है और सड़क दोनो किनारों पर बसा हुआ है। बस एक अदद छांह की तलाश थी सिर छुपाने को और कुछ भोजन चाहिए था खाने को। हम जगह तलाश करते हुए कस्बे से बाहर निकल आए।
फ़िर एक बड़ी धर्मशाला नजर आई और वहां बैठे हुए नीनी भाई दिखे। मेरी जान में जान आई और कदम घसीटते हुए उनके पास पहुंच गया। मुझे बहुत जोर से भूख लग रही थी और हाईपोग्लासिमिया जैसी स्थिति में पहुंच चुका था। वहीं फ़व्वारे की मुंडेर पर ही लेट गया। मैने नीनी भाई से निवेदन किया कि जल्दी से दो आम ला दें। वे उठे और सामने दुकान से दो आम लेकर आए। आम खाने के बाद काफ़ी शान्ति महसुस हुई और सोचने समझने की शक्ति आई। तब तक देवी और उमाशंकर भी आ चुके थे। यहां पर कोई रायगढ (छत्तीसगढ) का बनिया भंड़ारा करवा रहा था। आज गुरु पूर्णिमा थी। उन्होने ने हमसे भी प्रसाद का निवेदन किया तो हम लोगों ने वहां प्रसाद ग्रहण करके दो घंटे आराम किया। नींद की एक झपकी आ गयी थी। जब हम उठे तो उन्होने हमे चाय भी पिलाई और हम 5 बजे पुन: तैयार थे आज की यात्रा का दूसरा भाग पूरा करने के लिए।
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शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

जवान कांवडीया चल बसा रास्ते में---यात्रा--12

सुबह5 बजे उठकर स्नान किया और नास्ता करके 6 बजे सबने पूजा करके जल उठाया और रामपुर की ओर चल पड़े। मैं और दिनेश यात्रा में आगे ही चल रहे थे। तभी रामपुर में एक होटल से हमे किसी ने पुकारा, देखा तो देवी और नीनी महाराज एक तखत पर पड़े हैं। हमारे को देखते ही वे चढ बैठे, कहने लगे कि तुम लोगों ने हमें चुतिया बना दिया। हम लोग परेशान हो गए, रात को खाना नहीं मिला। यहां सुनसान में लूट-पाट का खतरा अलग से है। बस मत पूछो हमारी अच्छी धुनाई कर दी। नीनी महाराज को रात को बुखार चढ गया था और दवाई मेरे पास थी। मैने उन्हे मनाकर दवाईयाँ दी और उनके साथ चाय पी। अब हम लोग यात्रा के सबसे मुस्किल पड़ाव की ओर बढ रहे थे। रामपुर से नहर के उपर चलना था सड़क को छोड़कर।

रामपुर से नहर का रास्ता कुमरसार तक बहुत खराब है, नहर के उपर नुकीली रोड़ियाँ निकली हुई हैं और चिकनी मिट्टी के कारण फ़िसलन भी बहुत है। यह यात्रा का सबसे कठिन चरण है, इसे पार कर लिया तो और कोई बड़ी कठिनाई सामने नहीं आती, ऐसे लगता है कि हम देवघर पहुंच गए। रोड़ियों पर नंगे पैर नहीं रखे जा सकते। हमने चलते समय तय किया था कि कुमरसार पार करके नदी के किनारे सब मिलेंगे और वहीं पर साथ में भोजन करेंगे। दिनेश महाराज ने नहर पर अपनी चलने की गति बढा दी और मेरे से बहुत आगे निकल गए मैं भी अकेला उनके पीछे-पीछे चलता रहा, कुछ देर के बाद वे मेरी नजरों से ओझल हो गए। यह 9 किलो मीटर का रास्ता मैने 1 घंटा 20 मिनट में तय कर लिया और कुमरसार पहुच कर एक होटल में पीछे आने वालों का इंतजार करने लगा। दिनेश महाराज बिना रुके आगे निकल लिए।

जब ये सब पहुंचे तो इन्होने कहा कि नदी के उस पार रुकेंगे। मैं भी उठकर चल पड़ा, फ़िर रुका नहीं,नदी पार कर लिया। नदी में घुट्नों तक पानी था। कुछ लोग नदी के पार पर बैठ कर टोली में ग़ांजे की चिलम खींच रहे थे और हम आगे बढ रहे थे। विश्वकर्मा टोला पहुंच कर एक होटल में लेमन टी ली और आधा घंटा विश्राम करके आगे बढे, अब दिनेश महाराज का कहीं पता नहीं था और न डॉक्टर लोगों का। मैं अकेला ही बढा जा रहा था। विश्वकर्मा टोला से महादेव नगर और फ़िर चंदरनगर, चंदरनगर से जिलेबिया रोड़। मैं अकेले ही जिलेबिया रोड़ 12:30 को पहुंच चुका था। रास्ते में बहुत बढिया-बढिया होटल थे लेकिन इनका इंतजार करने के लिए किसी अच्छी जगह की तलाश में बस्ती पार कर रहा था, तभी सामने जा रहा एक कांवडीया बम चक्कर खा कर गिरा, लोग उस पर पानी छिड़कने लगे। लेकिन फ़िर वह उठा ही नहीं। उसके प्राण पखेरु वहीं उड़ गए थे। उनके दल को तलाश करने पर पता चला कि वह गोहाटी से आया था। जवान लड़का चल बसा था। 

मेरा मन खट्टा हो गया और वहीं एक होटल के तखत पर पड़ा हुआ इनका इंतजार करने लगा। लगभग 3 बजे जोर की मुसलाधार वर्षा होने लगी। मैने उसी समय खाना खाया। ये सभी लोग भी लोग भी भिगते हुए वहां पहुंचे, हम भी चल पड़े इनके साथ। हमारा रात्रि विश्राम 8 किलोमीटर दूर सुईया में था। आज हम लोग बहुत चल लिए थे। काफ़ी थक गए थे। जांघों की चमड़ी भी छिल गयी थी, चला नहीं जा रहा था। इस विषम परिस्थिति में भी हमने जिलेबिया पहाड़ पार किया। पुलिस वाले हमें जल्दी पहाड़ पार करने की सलाह दे रहे थे। क्योंकि शाम रात को लूट-पाट का खतरा बढ जाता है और फ़िर बिहार पुलिस कहां तक सुरक्षा दे सकती है। हम पहाड़ के बाद जंगल से होते हुए टगेश्वरनाथ पार करते हुए सुईया पहुंचे तब रात के 9 बज रहे थे। यहां डेरा ढुंढने लगे रुक कर, लेकिन शरीर में इतनी जान नहीं बची थी कि आगे चलकर कोई जगह रुकने लिए ढुंढ ली जाए। चलना कोई नहीं चाहता था। सब एक दूसरे को मुंह से आदेश देते थे लेकिन हाथ पैर किसी का काम नहीं कर रहा था। हमने एक बड़े से टैंट में लगे होटल में खाने और रुकने की व्यवस्था देखकर डेरा लगाने का विचार बनाया। वहां पर बढिया पंखे चल रहे थे तो लगा कि रात को आराम अच्छे से हो जाएगा। फ़िर पता चला कि वे रात को पंखे बंद कर देते हैं। ये पंखे तो 11 बजे तक ग्राहक फ़ंसाने के लिए चलाए जाते हैं। 40 रुपए प्रति तखत के हिसाब से सोने का किराया तय हुआ। देवी और नीनी महाराज नहीं पहुंचे थे। अब हम लोग पड़ते ही सो गए।
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शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

सुल्तान गंज से प्रस्थान और मच्छरों को रक्तदान यात्रा 11

सुबह 9 बजे हम सुल्तान गंज पहुंच चुके थे। रेल्वे स्टेशन के रिटायरिंग रुम में हमने स्नान किया, घर से लाए हुए सभी कपड़े, चप्पल-जूते दान कर दिए क्योंकि हम पद यात्रा में कम से कम बोझ ले जाना चाहते थे। सिर्फ़ एक जोड़ी भगवा कपड़े झोले में और एक जोड़ी पहने हुए, बस इतने में ही हम लोग अपना काम चलाते हैं। स्नानादि से निवृत होकर बाजार की तरफ़ चल पड़े, कुछ मित्रों को अपनी कावंड ठीक करानी ही, मुझे भी पिट्ठु बैग लेना था। सब सामान खरीद के हम गंगा जी की ओर चल पड़े। वहां पहुंच कर जल भरा और पूजा कराई और कांवड़ उठा कर मैदान में आ गए, यात्रा प्रारंभ करने के लिए। मैने पहली बार यात्रा पैदल करने का मन बनाया था, यात्रा प्रारंभ होने से पहले आशंकित था कि पैदल चल पाऊंगा कि नहीं, यात्रा बहुत लम्बी है, कहीं रास्ते में थक गया तो क्या होगा? साथी लोग तो छोड़ कर चले जाएंगे और मैं पीछे रह जाऊंगा। जब हमने कांवड़ की पूजा करके गंगा जल उठाया तो एक बज रहे थे।

मैने सोचा था कि जूते नहीं उतारुंगा, पैदल चलने के लिए मैंने पीटी शू ले रखे थे और सोचा था कि यात्रा में पैर में छाले न हो जाएं इसलिए पहन लुंगा। जब हम कांवड़ लेकर शहर की गलियों से पैदल निकले तो स्थानीय निवासियों वृद्ध, बाल, स्त्री सभी की नजर मेरे जुतों पर थी। क्योंकि इस यात्रा में लोग नंगे पैर ही जाते हैं, और मैने जुते पहन रखे थे। सभी की नजर मुझ पर ऐसे पड़ रही थी कि मुझे लगा कि कहीं मै कपड़े पहनना तो नहीं भूल गया। मेरे जुते सभी को नागवार गुजर रहे थे। मुझे लगा कि बहुत बड़ी गलती ही नहीं गलता हो गया। अब इसे कहीं पर सुधारना पड़ेगा। धूप बहुत ज्यादा थी, झुलसा दे रही थी। शुरुवात ही ऐसी हो चुकी थी। दो किलो मीटर चल कर डॉक्टर और साथी रुक गए थे।

कलकत्ता में मेरे पैर में चोट लग गयी थी। उसमें मवाद पड़ गया था, इसको लेकर मैं चिंतित था, कहीं गैंगरीन इत्यादि न हो जाए क्योंकि डायबिटिज के पेशेंट को पैरों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। मुझे उसमें दवाई लगाकर पट्टी भी करनी थी, इसलिए मैं भी रुक गया। देवी शंकर, नीनी महाराज, दिनेश मिश्रा इत्यादि बिना रुके ही निकल गए। मैं भी उठकर चलने लगा तो उमाशंकर भी साथ हो लिए। हम लोगों ने पहला पड़ाव मासूम गंज में किया, वहां पर पहले जाने वाले दल को हमने पकड़ लिया। अब जुते मुझे परेशान करने लगे थे, आसमान पर बादल हो गए थे इसलिए थोड़ी राहत मिल रही थी। मैने एक टैक्टर के पीछे चलते-चलते जुते उतार दिए, तब मुझे लगा कि एक बहुत बड़ी परेशानी से छुटकारा पा लिया। अब नंगे पैर चलने लगा तब लोगों की घूरती नजरों मे कुछ बदलाव हुआ।

जब हम मासूम गंज से चाय पीकर चले तो दिनेश महाराज और मैं सबसे आगे थे। हम लोग शाम होते तक तारापुर आ गए थे। दिनेश महाराज ने कहा कि रात को भी चलेंगे तो मैने कहा कि-बैटरी ले लेते हैं। हम लोग बैटरी लेने लगे और पानी भी लिया, तारापुर पार करके पुल के पास पहुंचे तो डॉक्टर ने आवाज दी पीछे से, दिनेश रुक गए और हम वहीं फ़ंस गए। देवी शंकर और नीनी भाई हमारे से पीछे थे वे धीरे-धीरे चल रहे थे। लेकिन जब हम बैटरी ले रहे थे तब वे हमारे से आगे निकल गए और हमें पता ही नहीं चला। ये सब बोले रात यहीं विश्राम करेंगे। मैने कहा कि देवी और नीनी कहां है उनका पता नहीं है, अभी हमको चलना चाहिए और रामपुर (32 किलो मीटर पर)में रुकना चाहिए। इनकी जिद के आगे हमें तारापुर में ही रात रुकनी पड़ी। रुकने के कारण चला नहीं जा रहा था और मैं लगातार देवी और नीनी को ढुंढता रहा। रात को खाना खाकर सो गए। मच्छर बहुत थे, ओडोमॉस लगाने के बाद भी खून चुसते रहे।
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बुधवार, 1 सितंबर 2010

अधजला आदमी-रेल सेवा और बेवकूफ़ से मुलाकात---यात्रा-10

ट्रेन लगभग 1 बजे आई। हम सब उसमें सवार हुए,रिजर्वेशन पहले से ही था। अपनी-अपनी सीटें संभाल ली। कुछ लोग सोने लगे तो मैं और देवी भैया हंसी मजाक करते हुए सफ़र का आनंद ले रहे थे, ट्रेन में सामान बेचने वालों का रेला लगा था, जो इलेक्ट्रानिक सामान बेच रहे थे। घड़ी, कैमरा, कैलकुलेटर, हवा भरने का पंप, और भी बहुत सारी उपकरण थे उनके पास। हम उनसे मोल भाव करके समय काट रहे थे। देवी भाई ने बहुत मोल भाव करके एक घड़ी 80 रुपए में खरीदी। उसके बाद दूसरा घड़ी बेचने वाला आया मैने उससे मोल भाव करके वही घड़ी 50 रुपए में खरीदी। क्योंकि हमारे किसी के पास घड़ी नहीं थी, इसलिए समय दर्शन के घड़ी लेना जरुरी था। देवी भैया 30 रुपए का नुकसान हमारे देखते देखते ही खा चुके थे।

तभी पुलिस वालों ने ट्रेन में यात्रियों के सामान की तलाशी शुरु कर दी। हमारे पास तो सिर्फ़ गांधी झोले ही थे। जिसमें एक जोड़ी भगवा कपड़ों के अलावा कुछ था ही नहीं। एक मारवाड़ी लड़का मेरे सामने बैठा था। उसे पकड़कर ले गए वो संडास की तरफ़, फ़िर मैने जाकर देखा तो उसका सामान खोल रखा था और उसकी पैंट उतार कर नंगा कर रखा था। वो रोए जा रहा था। कुछ देर बाद उसे छोड़ दिया उन लोगों ने। वह रोते हुए आकर मेरे सामने बैठ गया। मैने पूछा कि क्या हुआ? गांजा अफ़ीम ले जा रहा था क्या? उसने कहा कि मैने अपने पीने के लिए एक जिन का अद्धा रख लिया था। बस उसी के लिए मुझे मारा और 800 रुपए छीन लिए। लेकिन उसने अद्धा बचा लिया। मैने कहा ले बेटे मजे अब, मार अद्धा हजार रुपए का, साले जात भी दी और जगात भी दी। पैसे भी दिए और पैंट भी उतवाई। रोया-गाया अगल से मुफ़्त में। अगर ये अद्धा पहले ही चढा लेता तो सारे ही बच जाते। बेवकूफ़ कहीं का।

अब शाम को जब लैट्रिन जाने की बारी आई तो देखा डिब्बे में पानी ही नहीं था, सबकी हालत खराब थी। हमने टी टी आई से शिकायत की तो उसने कहा कि मैं पिछले स्टेशन में स्टेशन मास्टर को बोगी में पानी नहीं होने की शिकायत मेमो देकर कर चुका हूँ लेकिन अभी तक पानी नहीं भरा गया है। जब तक आप लोग किसी स्टेशन पर चैन नहीं खींचोगे तो पानी नहीं भरा जाएगा। अब आपको चैन खींचनी ही पड़ेगी। हमने न्यु बोंगाई गांव में 3 बार चैन खींची। स्टेशन के कर्मचारियों में हमे दिखाने के लिए बोगी में पानी के पाईप लगा दिए लेकिन उनमें पानी नहीं आ रहा था। आधा घंटा यहां ट्रेन खड़ी रही लेकिन पानी नहीं भरा जा सका। रेल्वे वालों ने कहा कि एल एन जे पी (न्यु जलपाई गुड़ी) में सूचना दे दी है वहां पानी भर दिया जाएगा। हम अब न्यु जलपाई गुड़ी का इंतजार करने लगे।

अब ट्रेन का हाल देखिए लग भग 24 बोगियां थी इस ट्रेन में जिसमें 10 बोगियों में पानी नहीं था। एक बोगी में हम 72 स्लीपर मानते हैं तो 720 व्यक्ति बिना पानी के सफ़र कर रहे थे। लेकिन कोई भी पानी के लिए शिकायत नहीं कर रहा था। सिर्फ़ हमारा 8 लोगों का ही दल पानी के लिए हंगामा मचाए हुए था। जब हम न्यु जलपाई गुड़ी पहुंचे तो वहां भी पानी नहीं भरा गया। रात के 12 बज रहे थे। बरसात भी हो रही थी। जैसे ही गाड़ी चलने लगी हमने हंगामा करने का मन बना लिया था। हमने चैन पुलिंग कर दी। पुलिस वाले आ गए बहुत सारे। हमने कहा कि जब तक गाड़ी में पानी नहीं डाला जाएगा तब तक गाड़ी नहीं चलेगी। चाहे कुछ भी हो जाए। अब हम पूरी तरह से लड़ने का मन बना चुके थे। लेकिन पूरी गाड़ी में से और कोई सवारी उतर कर पानी के लिए समर्थन देने के लिए नहीं आई, हम ही लड़ते रहे पुलिस वालों से।

पुलिस वाले कहने लगे कि गोहाटी से ही पानी भरवा लेना था। गाड़ी तेजपुर से आ रही थी। हमें पानी न होने की जानकारी तो गोहाटी के बाद लगी थी। सब मामला एक दुसरे पर डाल रहे थे। लेकिन पानी नहीं भर रहे थे। उधर पुलिस वाले ट्रेन ड्रायवर को गाड़ी आगे ले जाने को कह रहे थे, लेकिन हम चैन पकड़ कर लटके हुए थे। हम भी अपनी जिद पर अड़ आए थे। लगभग हमने 1 घंटा गाड़ी रोक दी, लेकिन उन्होने भी टंकी में पानी न होने का बहाना बनाए रखा और पानी नहीं भरा। टी टी आई भाग चुका था। तभी युएसए महाराज ने कहा कि यार हमें ही पानी की ज्यादा जरुरत है क्या? इतनी बोगियों में से एक भी उतर कर पानी की मांग करने नहीं आ रहा है और यहां जितनी देर ट्रेन को रोकोगे हम उतनी देर से सुल्तान गंज पहुंचेगें और हमारी यात्रा विलंब से प्रारंभ होगी। छोड़ो जाने दो, चलो सोते हैं। सुबह यात्रा भी प्रारंभ करनी है। अरे ज्यादा होगा तो 10-10 रुपए सुबह और खर्च होगा पानी की एक-एक बोतल और ले लेंगे।उसने बनिया बुद्धि लगाई। हमने भी समझ लिया कि अब कुछ होने वाला नहीं है। हम अपनी बोगी में वापस आ गए और ट्रेन चल पड़ी, पुलिस वालों की सांस में भी सांस आई और हम सो गए।

सुबह तक भी ट्रेन में पानी नहीं भरा गया, ऐसी व्यवस्था हमारे रेल मंत्रालय की है। ट्रेन में भी पानी आपुर्ती ठेकेदारों के भरोसे हो रही है। किसी ट्रेन में  पानी डाल रहे है किसी में नहीं और सवारियां नरक की यात्रा कर रहीं है एडवांस में दो महीना पहले टिकिट का पैसा देकर। सुबह हमने मिनरल वाटर की व्यवस्था की और नित्य क्रिया सम्पन्न की। जब मैं टायलेट में था तभी बाहर बहुत जोर से कोलाहल सुना। टी टी और किसी सवारी के बीच टिकिट को लेकर झगड़ा हो रहा था। टी टी ने कहा कि अगर तुम टिकिट नहीं दिखाओगे तो तुम्हे ट्रेन से बाहर फ़ेंक दुंगा। तभी दूसरी आवाज आई, तुम ट्रेन से बाहर क्या फ़ेंकोगे, मैं अभी तुम्हारा गला काट दुंगा। मैं समझ गया मामला गंभीर हो रहा है। इसलिए जल्दी टायलेट से बाहर निकला। देखा कि एक आदमी जिसका चेहरा आधा जला हुआ और कदकाठी अच्छी थी, टी टी को गरिया रहा था। जैसे ही उसने टी टी से फ़िर दोहराया कि तुम्हारा गला काट दुंगा तो टी टी चुपचाप अगली बोगी में बढ गया। वह आदमी बिना टिकिट ही डटा रहा और गाली बकता रहा।

दादी-----कहानी
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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

ब्रह्मपुत्र-उमानंद आश्रम-टीचर्स की याद-नवग्रह मंदिर-सुल्तान गंज की ओर---यात्रा-9

5-5 रुपए में स्पेसियों वाले ने ब्रह्मपुत्र के किनारे पहुंचा दिया। जहां बोट में होटल बने हुए हैं। ब्रह्मपुत्र में पानी बहुत ज्यादा था। नदी उफ़ान पर थी। किनारे पर बोट होटल बने थे। हमने नदी में फ़ेरा लगाने वाली बोट का पता किया तो पता चला बस थोड़ी ही देर में जाने वाली है जो उमानंद मंदिर का एक चक्कर लगाकर वापस आएगी। बादल घिर आए थे मौसम सुहाना हो गया था। हम बोट पर गए वहां किचन भी थी। अब मजा आ जाएगे, बोट पर नास्ता करने का आनंद लेगें, डेक पर टेबल और कुर्सियां लगी थी, और भी पर्यटक थे। 60-60 रुपए की टिकिट ली हमने और बोट पर सवार हो गए। बोट लगभग डेढ घंटे घुमाता है। बोट चल पड़ी और बरसात  होने लगी। शाम को बरसात में ब्रह्मपुत्र की बोट से सैर करना और गिरते हुए पानी का मजा लेना अद्भुत अनुभव रहा। हमने डेक पर बैठ कर चाउमीन का मजा लिया। बोट जब हवा के थपेड़ों से हिलती थी तो एक हाथ से चम्मच और प्लेट संभालनी पड़ती थी। 

बस हम एक आयटम मिस कर रहे थे। डॉ. दराल भाई साहब वाली टीचर्स को। हा हा हा निकले थे धार्मिक यात्रा में सावन के महीने में, नहीं तो बिना पूरा मजा लिए वापस नहीं आते,सोडा के साथ व्हाईट मिस्चीफ़ भी चल जाती या ट्रांजिट कैम्प में स्कॉच तो मिल ही जाती। लेकिन तौबा ऐसी चीजों का नाम लेना ठीक नहीं है, हमारे देवी भाई नाराज हो जाएंगे। उमानंद आश्रम में पानी भर चुका था इसलिए हम वहां उतर नहीं सके। दूर से ही दर्शन किए, बरसात बढने के कारण डर लग रहा था कहीं बोट ही न डूब जा जाए। जब बोट किनारे लगी तो देखा कि बोट में नीचे केबिन में लोग आराम से जुआ खेल रहे हैं। वाह पुलिस से बचने का तो बहुत ही मुफ़ीद साधन है।

ब्रह्मपुत्र के किनारे-किनारे यह गोहाटी का मुख्य बाजार है, गोहाटी आने वाले एक बार जरुर इस बाजार और सड़क पर आते हैं। हम पैदल-पैदल ट्रांजिट कैंप आए, भोजन किया और रेल्वे स्टेशन पहुंच गए। यहां रेल्वे स्टेशन पर पूरी सुरक्षा व्यवस्था है, फ़ोर्स के जवान सेंड बैग की आड़ में अपनी गन लेकर हमेशा तैनात रहते हैं। अंदर घुसने के लिए मैटल डिक्टेटर से गुजरना पड़ता है और क्लोज सर्किट कैमरा सब रिकार्ड करता रहता और डिस्पले भी करता है। सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही उम्दा किस्म की लगी। अब हम सब अपने लिहाफ़ में जाने को तैयार थे। रात हो चुकी थी, सोने के लिए रात का आमंत्रण था।
नवग्रह मंदिर-गोहाटी
दूसरे दिन सुबह नहा धोकर हम नवग्रह मंदिर दर्शन करने गए। निन्नी महाराज सुबह उठकर एक बार फ़िर कामाख्या दर्शन करने के लिए चले गए। नवग्रह मंदिर एक पहाड़ी पर स्थित है। इस पहाड़ी बहुत सारे घर बने हैं। बरसात जारी थी। पहाड़ी की पतली सड़क पर चढना बहुत कठिन हो रहा था। सांस फ़ुल रही थी। सीधी चढाई थी। नवग्रह मंदिर में बहुत सारे दिए जल रहे थे। जो अंदर के अंधकार को दूर करने की पूरजोर कोशिश कर रहे थे। अंधेरे से दियों की लड़ाई चल रही थी। लोग नौ ग्रहों की पूजा में व्यस्त थे। हमने भी पूजा की। प्रसाद लिया और वापस रेल्वे स्टेशन की ओर चल पड़े। 11 बजे सुल्तान गंज के लिए हमारी ब्रह्मपुत्रा मेल थी। इसलिए समय से रेल्वे स्टेशन पहुंचना जरुरी था। रेल्वे स्टेशन पहुंच कर रिटायरिंग रुम चेक आऊट किया और स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार करने लगे।

रामबती जाग उठी
दो रोटियाँ कितना दौड़ाती हैं?
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गुरुवार, 26 अगस्त 2010

बरसों का सपना - कामाख्या मंदिर--यात्रा--8

रसों का सपना पूरा होने जा रहा था। हमें कामाख्या मंदिर के दर्शन होने जा रहे थे। हमारे छत्तीसगढ़ में इसे कौरु नगर कहा जाता है और यहां तंत्र सीखने वाले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां मंत्र-तंत्र से तांत्रिक आदमी को पशु पक्षी बनाकर अपने घर में रख लेते हैं। जब उससे काम लेना होता है तो उसे आदमी बना देते हैं, जब काम खत्म हो जाता है तो पुन: पशु पक्षी बना दिया जाता है। तंत्र का ज्ञान पूर्ण होने पर उसे आदमी बनाकर घर जाने दिया जाता है। मुझे कामाख्या आने से पहले हमारे गांव के कुछ लोगों ने इस विषय में जानकारी दी थी। मैने कहा था कि वहां जाकर ही देखेंगे।

कामाख्या मंदिर गोहाटी से 12 किलोमीटर पर स्थित है। पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर को उग्र तंत्र पीठ माना जाता है। इसके विषय में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। यहां प्रतिवर्ष ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सौर आषाढ माह के मृगशिरा नक्षत्र के तृतीय चरण बीत जाने पर चतुर्थ चरण में आद्रापाद के मध्य पृथ्वी ॠतुवती होने पर अम्बुवासी मेला भरता है यह मान्यता है कि भगवान विष्णु के चक्र से खंडित होने पर सती की योनी नीलांचल पहाड़ पर गिरी थी 51 शक्ति पीठों में कामाख्या महापीठ को सर्व श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यहां पर योनी की पूजा होती है। यही वजह है कि कामाख्या मंदिर के गर्भ गृह में फ़ोटो लेने की मनाही है एवं तीन दिन मंदिर में प्रवेश करने की भी मनाही होती है। चौथे दिन मंदिर का पट खुलता है तथा विशेष पूजा के बाद भक्तों को दर्शन करने का मौका मिलता है।
इन चार दिनों के अंदर असम में कोई भी शुभकार्य नहीं होता, साधु एव विधवाएं अग्नि को नहीं छूते और आग में पका भोजन नहीं करते, पट खुलने के बाद श्रद्धालु मां पर चढाए गए लाल कपड़े के टुकड़े को पाकर धन्य हो जाते हैं। मान्यता यह भी है कि रतिपति कामदेव शिव की क्रोधाग्नि में यहीं पर भस्म हुए थे। कामदेव ने अपना पूर्व रुप भी यहीं पर प्राप्त किया था इसलिए इस क्षेत्र का नाम कामरुप भी पड़ा। कामाख्या मंदिर में दर्शन करने के बाद ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में उमानंद मंदिर जाना भी जरुरी समझा जाता है। इसका जीर्णोद्वार राजा नर नारायण ने करवाया था।

अहोम राजाओं ने मंदिर की पूजा के लिए कन्नौज एवं मिथिला से ब्राह्मणों को लाकर यहां बसाया था। आज वे असम की संस्कृति में इतने रच बस गए हैं कि उनके और असमियों में कोई अंतर प्रतीत नहीं होता.
कामाख्या मंदिर में दर्शनार्थियों के लिए  तीन प्रकार की टिकिट मिलती है। साधारण 150, वीआईपी 500, एवं वीवीआईपी 1000 की। हमने देखा कि लाईन छोटी है इसलिए 150 वाली टिकिट कटाई और लाईन में लग गए। जहां से हम लाईन में लगे थे उसके बगल में बलि गृह है, जहां भक्त अपनी श्रद्धानुसार बकरे और भैंसे की बलि देते हैं। मैने देखा कि वहां पर ताजा-ताज़ा बलि दी गयी थी। मक्खियां झूम रही थी। हमारी लाईन भी सरकती हुई गर्भ गृह तक पहुंच गयी। गर्भ गृह तल से लगभग 10 फ़िट नीचे है। जहां निरंतर पानी बहते रहता है।

जब हम गर्भ गृह के सामने स्थापित विग्रह के समीप पहुंचे तो एक घटना घट गयी। किसी जोर से ओSSSम ध्वनि का उच्चारण किया, मैने पलट कर देखा तो मेरे  मुझे एक नाटी सी लड़की दिखाई पड़ी। जिसने हाथ और गले में बहुत सारे गंडे डोरे बांध रखे थे। लोवर और टी शर्ट पहन रखी थी सिंदूर से मुंह लाल कर रखा था। उसके साथ में एक लम्बे बालों वाला लड़का था जिसने बालों में हेयर बेन्ड लगा रखा था। मैने डॉक्टर से कहा कि- “यह कोई नयी जादू सीखने वाली सीखाड़ी लगती है।“ तभी पंडे ने सुनकर कहा कि-“यह एकता कपूर है, महाभारत सीरियल की कामयाबी के लिए पूजा करने आई है।“ तो मैने डॉक्टर से कहा कि-“एकाध फ़ोटो ही खींचवा लेते हैं।“ तो डॉक्टर ने कहा कि-“इसके साथ क्या फ़ोटो खिंचवाना जिसने लोगों के घर बरबाद कर दिए।“ फ़िर मैं उससे सहमत होकर चुप हो गया।

हम गर्भ गृह में पहुंच चुके थे अंदर सिर्फ़ एक दीये का प्रकाश था, कुछ सूझ नहीं रहा था। काफ़ी अंधेरा था। पड़ों की लाईन लगी थी सब अपने अपने जजमान को पूजा करवा रहे थे। सबकी अलहदा दुकान सजी थी। हमने पूजा की और बाहर आ गए। कुछ देर मंदिर प्रांगण में बैठे, वहीं पार्श्व में बलि प्रकरण चल रहा था। भैंसे और बकरे काटे जा रहे थे। मुलायम सिंग की सरकार को बचाने के लिए समाजवादी पार्टी के एक विधायक समरीते ने 307 बकरे एवं 15 भैंसों की बलि दिलाई थी। सोचता हूँ कितना भयानक दृश्य रहा होगा। मंदिर पशुओं की कत्लगाह में बदल गया होगा और इतना मांस कौन खाएगा? चारों तरफ़ मक्खियां भिन-भिना रही थी। क्या कहा जा सकता है जब लोगों ने बलि  को धर्म और संस्कृति से जोड़ रखा है। तभी मंदिर की प्रसाद शाला खुली जहां मांस भात का प्रसाद मिल रहा था। लोग दौड़ पड़े लेने के लिए, हम बैठे देखते रहे।हमने मंदिए के ट्रस्ट में दान किया तो हमें लाल कपड़े का एक छोटा टुकड़ा दिया गया, जिसकी मान्यता कामख्या के प्रसाद के रुप में है, हमारे पहुंचने से चार दिन पहले ही अम्बुवासी मेला सम्पन्न हो चुका था। हमने प्रसाद को रख लिया और ट्रस्ट से दान की रसीद ली। वापस गोहाटी के लिए चल पड़े। 

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बुधवार, 25 अगस्त 2010

गोहाटी स्टेशन, ट्रांजिट कैम्प एवं ब्रह्मपुत्र से भेंट---यात्रा 7

म असम की राजधानी गोहाटी के करीब पहुंच चुके थे। रेल में बैठे हुए पटरियों के किनारे बनी हुई झोंपड़ पट्टियों को देख रहा था। भारत के अन्य स्थानों जैसा यहां भी था। लोगों ने रेल्वे की जमीन पर कब्जा करके रिहायश बना ली थी। कहीं पर मछली मार्केट कहीं पर मटन मार्केट, बस भीड़ भाड़ लगी हुई थी। असम में 27 जिले हैं। असम शब्द संस्कृत के अस्म शब्द से बना है जिसका अर्थ आसमान होता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में इस स्थान को प्रागज्योतिषपुर के नाम से जाना जाता था । पुराणों के अनुसार यह कामरूप की राजधानी था । महाभारत के अनुसार कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध ने यहां के उषा नाम की युवती पर मोहित होकर उसका अपहरण कर लिया था । हंलांकि यहां की दन्तकथाओं में ऐसा कहा जाता है कि अनिरुद्ध पर मोहित होकर उषा ने ही उसका अपहरण कर लिया था । इस घटना को यहां कुमार हरण के नाम से जाना जाता है ।
कुछ लोगों की मान्यता है कि "आसाम" संस्कृत के शब्द "अस्म " अथवा "असमा", जिसका अर्थ असमान है का अपभ्रंश है। कुछ विद्वानों का मानना है कि 'असम' शब्‍द संस्‍कृत के 'असोमा' शब्‍द से बना है, जिसका अर्थ है अनुपम अथवा अद्वितीय। लेकिन आज ज्‍यादातर विद्वानों का मानना है कि यह शब्‍द मूल रूप से 'अहोम' से बना है। ब्रिटिश शासन में इसके विलय से पूर्व लगभग छह सौ वर्षो तक इस भूमि पर अहोम राजाओं ने शासन किया। आस्ट्रिक, मंगोलियन, द्रविड़ और आर्य जैसी विभिन्‍न जातियां प्राचीन काल से इस प्रदेश की पहाड़ियों और घाटियों में समय-समय पर आकर बसीं और यहां की मिश्रित संस्‍कृति में अपना योगदान दिया। इस तरह असम में संस्‍कृति और सभ्‍यता की समृ‍द्ध परंपरा रही है।

चारों तरफ़ हरियाली, पहाड़ों और नदियों से समृद्ध ब्रह्मपुत्र के देश असम मन को मोह लेता है। रमणीय प्रदेश है, लेकिन यहां की हवाओं में बारुद की गंध आती है, जिससे मन में एक अज्ञात भय उत्पन्न होता है। सब तरफ़ मिलेट्री वर्दी ही दिखाई देती है। जहां देखो वहीं गन लिए हुए मिलेट्री और बार्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स के जवान ही दिखाई देते हैं। यहां के लोगों को इनके साथ ही मिलकर जीने की आदत पड़ गयी है। अगर कोई नया आदमी यहां आए तो एकबारगी उसके मस्तिष्क में कई भ्रांतियां जन्म ले लें। हम लगभग सुबह 7-8 बजे रेल्वे स्टेशन गोहाटी पहुंच चुके थे। अपना सामान लेकर होटल की तलाश में निकले। 

गोहाटी शहर रेल्वे लाईन के दोनो तरफ़ बसा हुआ है। होटल इत्यादि रेल्वे स्टेशन के परली तरफ़ हैं। हम अपना सामान उठा कर रेल्वे लाईन पार कर बाजार में पहुंचे, और होटल ढुंढने लगे। दो घंटे में हमें किसी भी होटल में कमरा नहीं मिला। कहीं एक दो कमरे मिले। लेकिन हम सभी के लिए एक जगह पर रुम की व्यवस्था नहीं हो सकी। दो घन्टे धक्के खाने के बाद हम वापस रेल्वे स्टेशन आ गए। युएसए ने कहां कि यहीं रिटायरिंग रुम में रुका जाए। सबसे महफ़ूज जगह है। हमने 750 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से 4 एसी रुम लिए। जिसमें 8 लोग सेट हो गए। नहा धोकर सबसे पहले भोजन की व्यवस्था करनी थी। गोहाटी हमारे लिए नया था, जो जान पहचान के लोग थे उनका नम्बर मैं डायरी में घर ही भूल आया था।

स्टेशन से बाहर निकलते ही सामने बीएसएफ़ एवं आर्मी के ट्रांजिट कैंप हैं। वहां इनकी मेस भी है। हमने मेस में पहुंचकर उनसे भोजन की व्यवस्था का निवेदन किया तो उन्होने हमारा निवेदन स्वीकार कर लिया, मेस में 20 रुपए में भरपेट अच्छा भोजन मिल जाता है, लेकिन यह भोजन सिर्फ़ सुरक्षा बलों के लिए ही उपलब्ध है। बाद में हमें पता चला कि ब्रह्मपुत्र के किनारे बहुत से मारवाड़ी भोजनालय हैं जहां भोजन की व्यवस्था हो सकती है। लेकिन हमने मेस में ही भोजन करना उपयुक्त समझा। यहां गेंहू के आटे की रोटियां मिल जाती थी। हम पहले ही मैदा की रोटी खाकर अपना पेट खराब कर चुके थे। मेस में हमने खाना खाकर कचहरी के पास से प्रसिद्ध कामख्या मंदिर के लिए बस पकड़ी।

चित्र-गुगल से साभार Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, 23 अगस्त 2010

चल पड़े गोहाटी की ओर-----यात्रा 6

हम हावड़ा पहुंच चुके थे, हमारे साथी काली घाट जाना चाहते थे लेकिन मेरा मन नहीं था। काफ़ी थकान महसूस हो रही थी। शाम को 4/30 पर हमारी ट्रेन गोहाटी जाने लिए थी। मैने देवी भाई को बहुत मनाया कि रुक जाओ लेकिन वे भी नहीं रुके, ये सब काली घाट चले गए, मैं रेल्वे की कैंटीन में बैठ गया। सोचा कि एकाध नींद की झपकी ले ली जाए, बाहर मुसलाधार वर्षा हो रही थी। खाना खाने के काफ़ी देर बाद मित्र लोग 4 बजे हावड़ा पहुंचे हमने जल्दी से रुम चेक ऑउट किया और स्टेशन पर सरायघाट एक्सप्रेस पकड़ने के लिए पहुंच गए। अब हमें गोहाटी जाना था। ट्रेन आने पर हमने अपनी-अपनी सीट संभाली और चल पड़े गोहाटी की ओर।

इस रास्ते में सबसे पहले जाने पहचाने नाम का स्टेशन बोलपुर मिला, जिसको सोमनाथ चटर्जी के कारण जाना जाता है, यह बरसों से उनका संसदीय क्षेत्र रहा है। इस इलाके में चाय बगान भी है। यहां 36 गढ और उड़ीसा से बरसों पूर्व काम की तलाश में आने वाले लोग भी रहते हैं। उन्हे यहां के लोग आदिवासी कह के सम्बोधित करते हैं। लेकिन आदिवासियों की सूची में उनका नाम नहीं है। यहां के काफ़ी लोग मुझे दिल्ली में जार्ज फ़र्नांडीज के यहां मिले थे, मैं उनकी इस समस्या से वहीं पर रुबरु हुआ था। यहां के आदिवासियों के विषय में मैं पूर्व से ही जानता था।

अगले स्टेशन पर जब ट्रेन पहुंची तो यह भी जाना पहचाना लगा। एक समय में यह स्टेशन अखबारों की सूर्खियाँ बना रहता है, इसका नाम है कोकराझार। यह उल्फ़ा के हमलों के कारण हमेशा चर्चा में बना रहता था। अगले स्टेशन मालदा पहुंचते तक हमें जोर की भूख लग चुकी थी। घर का बना सूखा खाना भी खत्म हो चुका था, इसलिए बाहर के खाने की ओर रुख करना पड़ा। मालदा स्टेशन पर पहुंच कर खाना ढुंढा तो वहां मैदा की रोटियाँ बनी हुई थी और आलु का साग। चावल भी नहीं था। मजबूरी में मैदा की रोटी खानी पड़ी, बड़ी मुस्किल से दो रोटियाँ खाई, यहां रसगुल्ला सस्ता मिल रहा था। एक रुपए में एक रसगुल्ला। मैने पांच रसगुल्ले खाए मनाही होते हुए भी। भूख जो शांत करनी थी। बाकी साथियों ने भी रसगुल्ले खाए। न्यु जलपाई गुड़ी आने से पहले हम लोग खर्राटे भरने लगे।

उत्तर-पूर्व में सुबह जल्दी होती है, एटानगर से जब मेरे मित्र आचार्य तेजनारायण आर्य मुझे फ़ोन करते थे तो यहां सुबह का 4 बजे रहता था, हमारे यहां सुबह 5-6 बजे होती है जबकि अरुणाचल में सुबह 4 बजे ही हो जाती है। इस हिसाब से यहां 4/30 के आस पास दिन निकल आया था। हम जाग चुके थे। लेकिन कुछ कुम्भकर्ण अभी भी सोए हुए थे। मैने जाग कर प्रकृति का नजारा लिया। अद्भुत मनोरम दृश्य था। बरसाती सुबह थी, नदी नाले भरे हुए थे, चारों तरफ़ हरियाली थी, पहाड़ों पर बादल चक्कर काट रहे थे। सूरज कि किरणे चोटियों पर पड़ रही थी। कभी सूरज बादलों में छुप जाता था और छांया हो जाती थी। पहाड़ों की तराई में अंधेरा हो जाता था। खेतों में किसान पहुंच चुके थे। हल चल रहा था। हल में बैलों के साथ भैंसे की जुताई भी होती है। बहुत ही मनमोहक वातावरण था।

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शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

बेलूर मठ और कलकत्ता की बस-------यात्रा 5

दक्षिणेश्वर मंदिर हुगली गंगा के किनारे पर स्थित हैं यहां से बेलुर मठ के लिए नाव जाती है जो कि नदी के दूसरे किनारे पर स्थित है। हूगली नदी पानी से लबालब भरी हुई थी। बताते हैं इस नदी में शार्क मछलियां भी है जो यदा कदा मछुआरों के जाल में फ़ंस जाती है। इस नदी के बीच में पानी मे से रेत निकालने वाली मशीन भी लगी हैं जो रेत निकाल कर नाव में भरती है और यह रेत भवन निर्माताओं तक पहुंचती है। इस तरह नदी के पानी में से रेत निकालना मैने पहली बार देखा था। नाव वाले ने एक साथ 25 लोगों को नाव में सवार किया। इसका किराया प्रति व्यक्ति 10 रुपए था। हमारे साथ और भी अन्य लोग सवार हुए, कुछ लोगों ने सवार होने से पहले नाव को प्रणाम किया। मैं यह सब देख रहा था।

बरसात का मौसम होने के कारण नदी का पानी हिलोरें ले रहा था। नाव डगमगाती सी लगती थी। यहां नाव डूबने की घटनाएं होते रहते हैं। हमें तो तैरना आता है, लेकिन नदी के बहते पानी में तैरना और स्विमिंग पुल में तैरने में बहुत अंतर है। लेकिन मैने नदी में भी बहुत तैराई की है, इसलिए नदी में तैरने का भी अनुभव है। कुछ टूरिस्ट हमारे साथ नाव पर दार्जलिंग के भी मिल गए। उन्होने बताया कि दार्जलिंग में अभी तो छुट्टी चल रही हैं। वे सरकारी कर्मचारी है। दार्जलिंग में गोरखा आन्दोलन के चलते सभी दफ़्तर बंद हैं। कर्मचारी घर में बैठ कर आराम कर रहे हैं या पर्यटन के लिए निकल गए हैं। बोड़ो, गोरखा, नगा, कुकी, उल्फ़ा, सुल्फ़ा, इत्यादि आन्दोलनों ने इस सुंदर उत्तर-पूर्व के क्षेत्र के लोगों का जीना हराम कर दिया है। यह इलाका भी स्वर्ग से कम नही है। लेकिन उग्रवादी लोगों को स्वर्गवासी बनाने पर तूले हुए हैं। हमारी उनसे चर्चा होते रही। थोड़ी देर में नाव बेलुर मठ के पिछले दरवाजे के पास बने घाट पर लग चुकी थी, हम बेलुर मठ तक पहुंच चुके थे।

बेलूर मठ में एक बहुत सुंदर विशाल भवन है, जिसके चित्र यदा कदा देखने में आते हैं, यहां पर रामकृष्ण परम हंस की मूर्ती रखी हुई है। जिसके दर्शन निश्चित समय पर कराए जाते हैं। हम भी हाल में जाकर चुप चाप बैठ गए, कोई दो घंटे के बाद दर्शन हुए। लोगों ने आरती इत्यादि की। इसके बाद हम बेलुर मठ में घुमने निकले। एक जगह विवेकानंद विश्रांति स्थल हैं जहां पर उनका स्मारक बनाया हुआ है। इसे ओम मंदिर भी कहा जाता है। बेलुर मठ में दोपहर को भोजन मुफ़्त मिलता है, इसके लिए टोकन लेकर लाईन लगानी पड़ती है। हमारे पास इतना समय नहीं था कि टोकन लेकर भोजन के लिए लाईन लगायें। इसलिए हम बेलुर मठ से दर्शन करके बाहर निकल गए, और बस पकड़ने के लिए रोड़ तक पैदल चल कर पहुंचे।

बाबा धाम की यात्रा में हम अपने साथ कैमरे नहीं रखते क्योंकि रास्ते में कांवड़ियों के साथ लूट पाट हो जाती है। मैने सिर्फ़ मोबाईल रखा था सस्ता जिससे बात हो सके और लुट जाने पर कोई तकलीफ़ न हो। बाकी साथियों ने तो मोबाईल भी नहीं रखा था सब घर पर छोड़ आए थे। बात करनी होती थी तो एसटीडी पर कर लेते थे और उन्होने अपने घर मेरा मोबाईल नम्बर दे रखा था। इमरजेंसी में उनके घर के लोग मेरे मोबाईल पर फ़ोन कर सकते थे। इसलिए इस यात्रा के चित्र मेरे पास उपलब्ध नहीं है। जो भी चित्र हैं सब गुगल से साभार लिए गए हैं। अगर किसी को आपत्ति होती है तो हटा दिए जा सकते हैं।सड़क पर पहुंच कर हमने चाय पी, चाय का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि यह कुछ विशेष है, हमने 5-5 कप चाय पी थी। यहां 1 रुपए में चाय छोटे छोटे सकोरे में दी जाती है जिसमें सिर्फ़ एक घूंट चाय ही आती है। इसलिए हमें अपनी चाय की इच्छा शांत करने के लिए 5-5 सकोरे चाय पी । इसके बाद कलकत्ता की नगरीय बस सेवा का आनंद पहली बार लिया। इतनी खटारा बस में हम पहली बार बैठे होगें। इसकी बॉडी भी अंग्रेजों के जमाने की लकड़ियों की बनी हुई थी। टीन टप्पर लगा हुआ था, जो बाबूजी की पैंट फ़ाड़ने के लिए काफ़ी था। हिचकोले लेती हुई बस कलकत्ता शहर के बीचों बीच रही थी जमाने को चिढाते हुए। अरे दो चार रुपए किराया बढा दो लेकिन बसें तो अच्छी रखो। ऐसी सलाह हमने बस वालों को दी।

चित्र - गुगल से साभार
ललित शर्मा Indli - Hindi News, Blogs, Links

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

जय काली कलकत्ते वाली-दक्षिणेश्वर धाम-- यात्रा 4

मैने देखा कि बंगाल के ग्रामीण अंचल में गरीबी अधिक है, लोग प्राकृतिक संसाधनों पर ही जीवन गुजर बसर कर रहे हैं। बंगाल की कम्युनिस्ट राजनीति ने इन्हे कहीं का नहीं छोड़ा। कम्युनिस्टों का कैडर इनकी जान के पीछे पिस्सुओं जैसे पड़ा रहता है। हर पल इनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता पर नजर रखी जाती है। अगर कोई धोखे से भी किसी दूसरी पार्टी की रैली या भाषण में खड़ा दिख गया तो उसकी शासकीय सुविधाएं जैसे पेंशन-राशन इत्यादि बंद कर दिया जाता है। इसलिए गरीब आदमी सुविधा खोने के डर से किसी दूसरी राजनैतिक पार्टी की ओर चाह कर भी नहीं देख पाता। जिसमें शासकीय सुविधाएं ठुकराने की हिम्मत है वही दूसरे राजनैतिक दलों की ओर जाता है। गरीबी कम्युनिस्टों के शासन की कलई खोलते हुए दिखाई देती है।
13 जुलाई को हम सुबह स्नान प्रात:राश आदि से निवृत्त होकर दक्षिणेश्वर के दर्शन के लिए चल पड़े। हमने हावड़ा स्टेशन से ही ट्रेन पकड़ ली, जिसने हमें दक्षिणेश्वर के करीब के स्टेशन पर पहुंचा दिया। स्टेशन का नाम भूल रहा हूँ, फ़िर इस स्टेशन से हम ओवर ब्रिज पर चढे और वहां से दक्षिणेश्वर के लिए ऑटो लिया। 40 रुपए में ऑटो वाले ने हमें वहां पहुंचा दिया। आज रविवार का दिन था। दक्षिणेश्वर में बहुत भीड़ थी। कलकत्ता आने वाला हर मुसाफ़िर दक्षिणेश्वर के मंदिर में दर्शन करने अवश्य जाता है। इस मंदिर का बहुत  बड़ा प्रांगण है। मंदिर के प्रवेश के लिए लम्बी लाईन लगी हुई थी। 
दक्षिणेश्वर के विषय में जानकारी है कि इसका निर्माण सन 1847 में प्रारंभ हुआ था। जान बाजार की महारानी रासमणि ने स्वप्न देखा था, जिसके अनुसार माँ काली ने उन्हें निर्देश दिया कि मंदिर का निर्माण किया जाए। इस भव्य मंदिर में माँ की मूर्ति श्रद्धापूर्वक स्थापित की गई। सन 1855 में मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। यह मंदिर 25 एकड़ क्षेत्र में स्थित है।माँ काली का मंदिर विशाल इमारत के रूप में चबूतरे पर स्थित है। इसमें सीढि़यों के माध्यम से प्रवेश कर सकते हैं। दक्षिण की ओर स्थित यह मंदिर तीन मंजिला है। ऊपर की दो मंजिलों पर नौ गुंबद समान रूप से फैले हुए हैं। गुंबदों की छत पर सुन्दर आकृतियाँ बनाई गई हैं। मंदिर के भीतरी स्थल पर दक्षिणा माँ काली, भगवान शिव पर खड़ी हुई हैं। देवी की प्रतिमा जिस स्थान पर रखी गई है उसी पवित्र स्थल के आसपास भक्त बैठे रहते हैं तथा आराधना करते हैं।
हमने एक दुकान वाले के पास जूते चप्पल उतारे और पूजा का सामान लिया। लाईन में लग गए।मंदिर के अंदर काली माई का विग्रह है, यहां रामकृष्ण परम हंस को अनुभूति हूई थी। एक घंटे तक लाईन में लगने के बाद दर्शन का हमारा नम्बर आया। पत्र-पुष्प चढाकर हमने प्रसाद लिया और वहीं कुछ देर बैठ गए। इस मंदिर के प्रांगण में द्वादश ज्योतिर्लिंग भी बनाए गए हैं। हमने इन ज्योतिर्लिंगों पर जल अर्पित किया। यहां एक खास बात देखने में आई कि सभी लोग मौली के धागों में बंधे हुए छोटे-छोटे मिट्टी के ठिकरे ले रहे थे और उन्हे अपनी बांह पर ताबीज जैसे बांध रहे थे। मैने बहुत सारे बंगालियों को ये ठीकरे बांधे हुए पहले भी देखा था।लेकिन अब जाकर पता चला था कि ये ठीकरे दक्षिणेश्वर काली मंदिर से लिए जाते हैं।
मंदिर से निकासी के रास्ते पर रामकृष्ण परम हंस की बैठक है, जहां पर वे बैठकर अपने शिष्यों को ज्ञान दिया करते थे। आगंतुकों से मिलते थे। वहां पर उनका तख्त भी रखा है। माता शारदा एवं विवेकानंद के चित्र भी लगे हैं, उनकी स्मृतियाँ यहां संजोकर रखी गयी हैं। हम भी कुछ देर इस कमरे में बैठे, बहुत शांति मिली। सकारात्मक उर्जा हमेशा मानव मन को शांत और चित्त को स्थिर करती है। ऐसा ही कुछ अनुभव यहां पर हुआ। मोबाईल सब स्विच ऑफ़ कर दिए जाते हैं। यहां से निकल कर हम उस स्थान पर पहुंचे जहां रामकृष्ण बैठा करते थे पेड़ की छांव में। यहां एक कुटिया बना दी गयी और उसका दरवाजा बंद कर दिया गया था। यहां पर भी हमने कुछ देर विश्राम किया। अब थोड़ा बहुत नास्ता करके हम नाव की सवारी को तैयार थे।

चित्र-गुगल से साभार

ललित शर्मा

चलती-का-नाम-गाड़ी, Indli - Hindi News, Blogs, Links

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

सुन्दरवन, गंगा का डेल्टा, गंगा सागर, शेर, मधुमक्खी,कलकत्ता--यात्रा 3

मारी मंजिल 170 किलोमीटर दूर थी। रास्ते में काफ़ी हरियाली थी। 1 बजे हम काक द्वीप पहुंचे। यहां गंगा नदी अपना डेल्टा बनाती है, जिसे सुंदर वन कहते हैं, सुंदर वन में अभी शेर हैं,यदा कदा मछुवारों पर इनके हमले की खबर आते रहती है। ये शेर पानी में शिकार करने के अभ्यस्त हो गए हैं, पानी में चुपके से तैर कर नाव पर हमला बोल देते हैं। सुंदर वन में मधुमक्खी के छत्ते भी बहुत है, सैकड़ों परिवारों का रोजगार इन छत्तों से शहद निकालने से चलता है। ये विशेष जाति के लोग शहद ही निकालते हैं अपनी जान जोखिम में डालकर क्योंकि कभी भी शेर के हमले का शिकार हो सकते हैं। एक खासियत और है ये कभी मधुमक्खी के छत्ते को जड़ से खत्म नहीं करते, जितने हिस्से में शहद है उसे ही तेज धार हंसिए से काट लेते हैं।

यहां पर गंगा नदी का पाट लगभग2-3 किलोमीटर चौड़ा है, गंगा सागर वाले द्वीप तक पहुंचाने के लिए बड़े-बड़े स्टीमर चलते हैं जिसमें सैकड़ों आदमी, अपनी भेड़-बकरी सायकिल, मोटर सायकिल के साथ बैठ जाते हैं। हर घंटे में यहां स्टीमर आता और जाता है। प्रति सवारी शायद साढे तीन रुपया किराया लिया। यहां किराया बहुत सस्ता है। हम टिकिट लेकर स्टीमर में सवार हो गए। ड्रायवर ने बताया की उस पार जाने में लगभग डेढ घंटा लगेगा। हम लोगों ने विचार किया कि खुली छत पर ही बैठकर नजारे देखे जाएं। हम टीन की बनी हुई छत पर बैठ गए और वहीं पर भोजन भी किया। भोजन हम अपने साथ ले गए थे। डॉक्टर श्रीधर के यहां की बनी हुई इटली यहां काम आई।

हम डेल्टा में पहुंचे यहां से सागर का किनारा 32 किलो मीटर की दूरी पर है। हमने फ़िर यहां एक टाटा सूमो 500रुपए में किराए पर ली, जो कि हमे वापस भी पहुंचाएगा। जब हम यहां के सागर के किनारे पर पहुंचे तो ऐसा लगा कि जैसे मॉरिसश का कोई सागर तट है। बहुत ही सुंदर सागर तट है। मैने लगभग भारत के सभी सागर तट देखे हैं, लेकिन मुझे सबसे सुंदर यहां का सागर तट लगा। यहां मकर सक्रांति को मेला भरता है दुनिया भर के तीर्थ यात्री यहां आते हैं। कहा गया है कि”सारे तीरथ बार बार-गंगा सागर एक बार” कहते हैं कि यहां कपिल मुनि ने आश्रम बनाकर तपस्या की थी। वह आश्रम अब समुद्र में समा गया है। मकर सक्रांति को ज्वार आने पर वह आश्रम दिखाई देता है और वहां दर्शन होते थे, ऐसी किवदंती है। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है।

समुद्र के किनारे पूजा का सामान बेचने वालों की दुकाने हैं। वे बिछाने के लिए पालिथिन भी देते हैं जिसपर आप सामान और कपड़े भी रख सकते हैं, लेकिन कपड़ों का ध्यान रखना जरुरी है, नहीं तो अंडरवियर में ही कलकत्ता वापस आना पड़ेगा। यहां नारियल पानी मिलता है, काफ़ी बड़ा नारियल था मैं तो एक भी पूरा नहीं पी सका। हमने लगभग डेढ घंटे समुद्र में अठखेलियाँ की, जम कर स्नान किया। उपर का पानी गरम था और अंदर का पानी ठंडा। दूर-दूर तक समुद्र ही समुद्र अपनी विशालता और महानता प्रदर्शित कर रहा था। एक पंडा महाराज पहुंच गए,उनसे हमने समुद्र पूजा कराई।

अब हम कपिल मुनि के मंदिर पहुंचे जो समुद्र से डेढ किलोमीटर पर बना हुआ है। मंदिर के पुजारी से मेरी चर्चा हुई, उसने बताया कि समुद्र के अंदर की कपिल मुनि की मूर्ती को बाहर निकाल कर यहीं मंदिर में स्थापित किया गया है। यह मंदिर हनूमान गढी अयोध्या वालों की देख रेख में संचालित होता है। सभी पुजारी वहीं से आते हैं। हमने मंदिर में पूजा करवाई और प्रसाद लिया। गांव में बांटना जो था। तीर्थ यात्रा का प्रसाद इष्ट मित्रों के यहां पहुंचाने की परम्परा है। हम अपनी गाड़ी के पास पहुंचे क्योंकि आखरी स्टीमर के जाने का समय हो रहा था। उसका भोंपू बज जाता तो हमें रात गंगा सागर में ही गुजारनी पड़ती

हमें स्टीमर टाईम पर मिल गया। इतना समय भी मिल गया कि हम चाय पी सकें। वहीं किनारे पर बने हुए एक होटल में चाय पी। स्टीमर चल पड़ा। उस पार हमारी टैक्सी इंतजार कर रही थी। आज रथ यात्रा का दिन था याने रथ दूज, यहां रथ यात्रा का त्योहार जोर शोर से मनाया जाता है। रास्ते में जगह-जगह रथ यात्रा के कारण सड़कें जाम मिली। सारी भीड़ बाजे-गाजे के साथ सड़क पर ही थी। हम रात 9 बजे कलकत्ता पहुंचे। युएसए ने कहा कि अब के सी दास के होटल में मिठाई खाएंगे, यह कलकत्ता का मशहूर होटल हैं जहां मिठाइयाँ बनते ही बिक जाती हैं। मेरा मन नहीं था मिठाई खाने का, इन्होने सब तरह की मिठाइयाँ चखी। मैने सिर्फ़ संदेश का स्वाद लिया। फ़िर पहुंच गए अपने रिटायरिंग रुम में बिस्तर पर लोटने के लिए।    

गंगा सागर के विषय में पौराणिक जानकारी हेतु यहां क्लिक करें।

फ़ोटो गुगल से साभार

ललित शर्मा Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

चले बाबा की नगरिया-हम पहुंच गए कलकत्ता--यात्रा 2

यात्रा प्रारंभ से पढें---ट्रेन आ चुकी थी, हमने अपनी-अपनी सीटें संभाल ली, देवी भैया इटली लेकर आए थे। बैठते ही सब की इच्छा से उनकी इटली पर हाथ साफ़ किया। क्योंकि इटली को ज्यादा देर रखना ठीक नहीं था। खराब हो सकती थी,आपस में हंसी मजाक चलती रही। दे्वी भैया से पू्छा गया कि कुछ लेने का इरादा है क्या? अभी तो सावन नहीं लगा है। थोड़ी देर में वह तैयार हुए,कुछ सज्जनों ने मना कर दिया, देवी भैया और मैने मन बना लिया था, आगे रायगढ़ आने वाला था। मैने विजय भाई साहब को फ़ोन करके फ़रमाईश बता दी। वे सब इंतजाम करके स्टेशन पहुंच गए मिनरल वाटर की बोतल में।

पहले मैने देवी भैया को दिया, तो उन्होने पहले श्रध्दा से बोतल को सिर में लगा कर प्रणाम किया, सब सवारियां उनकी हरकत को देख रही थी, लोग सोच रहे थे कि ये पानी को प्रणाम करके क्यों पी रहा है। मैं भी हंस रहा था कि जिन मंगाने का कोई मतलब ही नहीं निकला, इसने सारी पोल तो खोल ही दी। सभी मित्र उनकी इस भोली हरकत पर मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। आधी बोतल खत्म करने के बाद उन्होने मेरी ओर बढाई, मैने उसे कम्पलीट कर दिया। अब सारी सवारियों में हम दोनो पहचाने गए। अब खा पीकर अपनी-अपनी सीटें सीधी कर ली। उड़ीसा में प्रवेश कर रहे थे। इसके बाद बिहार और बंगाल आने वाला था।

एक बात और बताता चलुं, जो कि मैने इतने सफ़र में महसूस की। मुझे सफ़र में विभिन्न प्रातों , भाषाओ और संस्कृतियों के लोग मिले। सबसे मेरी बातचीत होती है, और सफ़र के साथी होने के कारण कभी किसी सहयोग की आवश्यकता पड़ी तो उन्होने सहयोग भी किया है। लेकिन बंगाली लोग इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। वे सफ़र में आपका कोई सहयोग नहीं करेंगे, ये मान कर चलिए, क्योंकि मैने कई बार आजमा कर देख लिया है। आपको बैठने के लिए सीट नहीं देगें, भले ही पूरी सीट खाली पड़ी हो। बंगाली में बात-चीत शुरु कर देंगे जिससे आपकी समझ में नहीं आए, अकेले रहे तो बिना बोले ही 1000-2000किलो मीटर का सफ़र तय कर लेंगे। मेरा तो यही अनुभव रहा है,हो सकता है किसी का अनुभव अच्छा रहा हो।

सूर्योदय हुआ तो हम खड़गपुर के पास पहुंच चुके थे। हम जितना पूर्व की तरफ़ जाएगें सूर्योदय जल्दी ही होगा। चारों तरफ़ बरसात का पानी खेतों में भरा हुआ था। हरियाली ही हरियाली के दर्शन हो रहे थे। हम हावड़ा पहुंचने वाले थे। वैसे हमारा ट्रेन को हावड़ा सुबह 6-7 बजे पहुंच जाना था। लेकिन विलंब होने के कारण 9 बजे हावड़ा स्टेशन पहुंचे। हावड़ा में वर्षा हो रही थी। स्टेशन के सामने प्रसिद्ध हावड़ा ब्रिज दिखाई दे रहा था। बड़ा अद्भुत दृश्य था। हावड़ा ब्रिज सामने ही था।

 अब यहां हमें रुकना था। सोचा कि आगे कि यात्रा करनी है इसलिए स्टेशन में ही रिटायरिंग रूम ले लिया जाए, रिटायरिंग रुम 8 आदमियों के लिए तो होना चाहिए। सभी को एक साथ ही रुकना है।  हमने रिटायरिंग रुम ले लिया और नहा धोकर एक टैक्सी 1800 रुपए में किराए की। स्टेशन के बाहर निकलते ही टैक्सी वाले पीछे पड़ गए थे। एक टाटा सूमो वाले से मामला पट ही गया। 10/30 बजे हम गंगा सागर चल पड़े। कलकत्ता बहुत पूराना शहर है बहुत भीड़ भरा है, हमने ट्राम देखी जो शहर के बीचों बीच चल रही थी, रेल की पटरियों पर चलती हुई बस जैसी लग रही थी। आगे पढें
ललित शर्मा
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

चलिए बाबा की नगरिया-पहला पड़ाव कलकत्ता---यात्रा1

सावन का महीना हिन्दू धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस पूरे माह को भोले बाबा के नाम से अर्पित किया गया है। जगह-जगह कांवर यात्राएं चलती हैं। लोग नदियों से जल लेकर भोले बाबा को चढाते हैं और अपनी मनौती मानते हैं। ऐसी ही एक प्रसिद्ध यात्रा पर हम चलते हैं सुल्तानगंज से बैजनाथ धाम(देवघर) तक। हम सब मित्र रायपुर से प्रतिवर्ष सावन के महीने में यात्रा करते हैं। बड़ा मजा आता है, एक रुट निर्धारित कर उसकी सर्कुलर टिकिट बनाई जाती है, फ़िर चल पड़ते हैं सब यात्रा में। इस वर्ष 11 जुलाई को हमारी यात्रा निर्धारित हुई। यात्रा के संयोजन का काम उमाशंकर अग्रवाल याने युएसए बखूबी संभालते हैं।यात्रा मार्ग निर्धारित करने के साथ टिकिट तक की व्यवस्था करते हैं। बहुत जिम्मेदार और धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। इनका साथ आनंददायी रहता है।

मुझे इन्होने फ़ोन से बताया कि-“महाराज टिकिट हो गयी है और अपने को 11 जुलाई को शाम 4 बजे मुंबई हावड़ा मेल से चलना है। हमने अपनी तैयारी की, एक गांधी झोला, दो जोड़ी केसरिया कुर्ता-हाफ़पैंट,एक अंगोछा, दवाईयाँ,नारियल तेल की शीशी(ये मैने क्यों रखी?इसका विषय में आगे चल कर बताऊंगा)खाने का सूखा सामान, और अपना पहचान पत्र (पहचान पत्र-अत्यावश्यक है-इसे कभी न भूलें,नही तो कम से कम वोटर आई डी कार्ड ही रख लें)बस जितना कम से कम सामान से गुजारा हो जाए,उतना रख लिया था।(वैसे हमारे साथ एक डॉक्टर भी है, इसलिए दवाई रखने की जरुरत कम ही थी, फ़िर भी अपने हिसाब रख ही लिया।) क्योंकि कभी भी जरुरत पड़ सकती है।

जब मैं रेल्वे स्टेशन पहुंचा तो डॉक्टर श्रीधर राव, उमाशंकर अग्रवाल, निन्नी महाराज, देवी शंकर अय्यर, बबलु भाई, दिनेश मिश्रा, कमलकांत, रेल्वे स्टेशन पर मिले। गर्मजोशी से राम राम हूई। एक बंदे का और इंतजार था, रवि श्रीवास  का, लेकिन ये महाशय टिकिट बनने के बाद भी नहीं आए। अब हम बैजनाथ धाम जाने  के लिए तैयार थे। जहां सुल्तान गंज से बैजनाथ मंदिर तक 115 किलो मीटर पैदल चल कर जाना पड़ता है। मैं इस यात्रा के लिए उत्साहित था तथा इस बार संकल्प कर लिया था कि पैदल चल कर ही जाऊंगा। मैने 15 दिनों तक लगातार नगें पैर पैदल चल कर भी देख लिया था। मैं एक घंटे में 10 किलोमीटर नान स्टाप चल लेता था। इसका परीक्षण भी अच्छी तरह से कर लिया।

पहले भी हम लोग साथ आते थे, लेकिन ये सभी पहले ही मेरा मनोबल तोड़ देते थे। रास्ता बहुत खराब है, नहीं चल सकोगे यार, पैर में छाले हो जाते हैं, फ़िर तुम्हे कौन संभालेगा। यहां तो सब अपना-अपना देखते हैं। एक बार यात्रा शुरु होने के बाद कहीं बिछड़ गए तो मुस्किल हो जाएगी, नयी जगह है लूट-पाट भी हो जाती है कावंरियों के साथ, फ़लाने को पिछले साल कलकतिया के पास लूट लिया था,एक काम करना तुम बस से निकल जाना जल लेकर 3दिन में हम मिल लेंगे तुमसे देवघर में,इत्यादि नाना प्रकार की बातें करते थे। बस यह सुनकर हिम्मत जवाब दे जाती थी। लेकिन इस बार मैने इनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दि्या।

यात्रा प्रारंभ होने से पहले एक बात बताता चलुं कि कुछ नियमों का पालन करना है। आपको पूरी यात्रा नंगे पैर करनी है, कांवर को जमीन पर नहीं रखना है, स्नान के समय तेल और साबुन का उपयोग नहीं करना है। कावंर को पीठ की तरफ़ से घुमाकर कंधा नहीं बदलना है, खाने,लघु शंका या शौचादि के बाद कपड़े सहित स्नान करना है, कुत्ते से बचकर चलना है, पीछे मुड़कर नहीं देखना है, किसी कावरिएं को ओवरटेक नहीं करना है, अगर करना है तो उसे संबोधित कर दो (जैसे-साईड बम बोलो) जिससे वह अपने-आप रास्ता दे दे। बोल बम का उद्घोष करते चलो, अपने साथी की आहट लेनी है तो उसका नाम लेकर बोल बम बोलो, अगर वह आपके पीछे होगा तो आपका नाम लेकर जवाब दे देगा। जिससे आपको पता चल जाएगा कि वह साथ ही है। जारी है-आगे पढें........
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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

110 कैमरा, नारनौल, जल महल एवं बीरबल का छत्ता--और मैं ---------- ललित शर्मा

यात्राएं तो लगातार चलती रहती हैं जीवन ही यात्रा का नाम है,चलते रहना ही जीवन है। अब चलते हैं एक और यात्रा पर। सन् 1985 में मुझे हरियाणा के नारनौल जाने का मौका मिला।बात पुरानी है लेकिन स्मृतियों में ताजा है।उस समय रायपुर से एकमात्र 36 गढ एक्सप्रेस एकमात्र ट्रेन थी जो सीधे दिल्ली तक पहुंचाती थी। नहीं तो बीच में बीना आदि स्टेशन पर एक गाड़ी बदलनी पड़ती थी। 36 गढ एक्सप्रेस रात को लगभग 8 बजे दिल्ली पहुंचाती थी। रात नौ बजे नागपुर पहुचती थी पान्ढुर्णा के बाद सभी स्टेशनों पर रुकती थी। सुबह 5-6 बजे भोपाल पहुंचाती थी, यह मेरी दुसरी लम्बी यात्रा थी। उस समय टिकिट मैन्युअली बनती थी और हमारे यहां की छोटी गाड़ी में जाने वाले टी टी की अगले दिन 36  गढ एक्सप्रेस में ड्युटी लगती थी। मतलब सीट मिल जाती थी मामला फ़िट हो जाता था।

110 छोटा कैमरा
नारनौल में पापा के दोस्त जैन साहब रहते थे। दिल्ली से रात को चलकर नारनौल पहुंचना ठीक नहीं था। कहां किसे उठाया जाए रात को जाकर। इसलिए मैने रात्रि दिल्ली के स्टेशन के यात्री निवास में ही आराम किया और सुबह की मुद्रिका बस पकड़ कर अजमेरी गेट बस स्टैंड पहुंचा, वहां से नारनौल की बस पकड़ी किराया बहुत कम ही था। शायद 15 रुपए ही लिए होगें। रास्ते में गुड़गांव पड़ा, एक गांव ही था उस समय, बस गुड़गांव शहर के अंदर नहीं गयी और सवारियों को इसने बायपास पर भी उतार दिया। बायपास एक दम सुनसान था। आज के गुड़गांव और तब के गुड़गांव की तस्वीर अलग ही थी। मेरे पास उस समय वन टेन कैमरा था, जो एक रील में 25-26 फ़ोटुएं लेता था। फ़ोटोग्राफ़ी भी उस समय मंहगा शौक ही था। रास्ते में रेवाड़ी, अटेली मंडी होते हुए नारनौल पहुंचे।

कैमरा रोल 120 रुपए का आता था उस समय
नारनौल एतिहासिक शहर है, इसका नाम इतिहास में प्रसिद्ध है, औरंगजेब के शासन काल में यहां सतनामियों के साथ युद्ध का उल्लेख है जिनसे औरंगजेब की सेना हार चुकी थी और उसके सेना का मनोबल गिर चुका था। उसकी सेनाएं सतनामियों से पुन: युद्ध लड़ना नहीं चाहती थी। उनमें यह भ्रम फ़ैल गया था कि सतनामियों को जादु टोना आता है जिससे उनमे गैबी ताकते हैं और हम युद्ध पुन: हार जाएंगे। औरंगजेब ने सेना का डर मिटाने के लिए सबके हथियाओं में एक-एक ताबीज बंधवाया और कहा कि अब युद्ध लड़ो, यह ताबीज तुम्हारी गैबी ताकतों से रक्षा करेगा। इसके बाद उसकी सेना में दुबारा युद्ध लड़ा और सतनामियों पर विजय पाई, इस युद्ध का उल्लेख बीए इतिहास प्रथम वर्ष की किताब में है।

जल महल --शाम होने को थी 1985
नारनौल पहुंच कर मुझे वहां के एतिहासिक स्थलों की जानकारी की अभिलाषा थी। मैं इस शहर को घुमना चाहता था। बब्बु के साथ मैं दो दिनों तक पूरा नारनौल घुमा। पुराना शहर होने के कारण यहां बहुत सारी इमारतें पुरानी है। सबसे पहले मैं और बब्बु जलमहल देखने गए, उस समय बब्बु को भी इसके इतिहास के विषय में इतनी जानकारी नहीं थी। वह भी बी कॉम प्रथम वर्ष में ही पढता था। उसने बताया कि यह जल महल अकबर के के विश्राम करने के लिए बनाया था लेकिन हकीकत में जलमहल बहुत खूबसूरत है। महल की दीवारों पर लिखे शिलालेखों के अनुसार इसका निर्माण 1591 ई. में शाह कुली खान ने कराया था। यह महल एक तालाब के बींचो-बीच बना हुआ है। लेकिन अब यह तालाब पूरी तरह से सूख चुका है। शाम हो रही थी मैने बब्बु से कुछ फ़ोटु लेने को कहा।  वे फ़ोटु अभी तक मेरे पास थी।

1985 के चित्र में स्वयं-हां ऐसा ही था
नारनौल में बीरबल का छत्ता नामक एक जगह हैं, इसके विषय में किवदंती है कि यहां से एक सुरंग दिल्ली तक जाती है। इस सुरंग की  जानकारी लेने के लिए एक बारात अंदर गई थी जो फ़िर वापस नहीं आई। इसलिए इसके अंदर कोई जाता नहीं है। मैनें बीरबल का छत्ता भी देखा। इसके उपर बनी हुई ईमारतें खंडहर हो चुकी है। लोग इसका इस्तेमाल कचरे फ़ेंकने एवं शौच के लिए करते दिखे,  बीरबल का छाता पांच मंजिला इमारत है और यह बहुत खूबसूरत है। पहले इसका नाम छाता राय मुकुन्द दास था। इसका निर्माण नारनौल के दीवान राय-ए-रायन ने शाहजहां के शासन काल में कराया था। प्राचीन समय में अकबर और बीरबल यहां पर ठहरे थे। उसके बाद इसे बीरबल का छाता नाम से जाना जाने लगा। इसकी वास्तुकला बहुत खूबसूरत है। देखने में यह बहुत साधारण लगता है क्योंकि इसकी सजावट नहीं की गई है। इसमें कई सभागार, कमरों और मण्डपों का निर्माण किया गया है। कथाओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इसके नीचे चार सुरंगे भी बनी हुई हैं। यह सुरंगे इसको जयपुर, दिल्ली, दौसी और महेन्द्रगढ़ से जोड़ती हैं।

इसके बाद हम नारनौल शहर में बने एक मकबरे पर गए, जो कि बहुत ही सुंदर बना है। उस मकबरे पर अरबी में कुछ लिखा था। मुझे तो अरबी आती नहीं थी। इसलिए एक मुल्ला जी को पकड़ा कि पढकर बताईए इसमें लिखा क्या है। वे मुझे पढ के बताने लगे, किसी ने मुझे बताया था कि यह शेरशाह सूरी का मकबरा है लेकिन बाद में पता चला कि यह शाह कुली खान का मकबरा है। लेकिन है बहुत खुबसूरत, इसके निर्माण में सलेटी और लाल रंग के पत्थरों का प्रयोग किया गया है। यह मकबरा आठ कोणों वाला है। इसके वास्तु शास्‍त्र में पठान शैली का प्रयोग किया गया है। मकबरे में त्रिपोलिया द्वार का निर्माण भी किया गया है। इस द्वार का निर्माण 1589 ई. में किया गया था। मकबरे के पास खूबसूरत तालाब और बगीचे भी हैं। तालाब और बगीचे का निर्माण पहले और मकबरे का निर्माण बाद में किया गया था। यह बगीचा बहुत खूबसूरत है। इसका नाम अराम-ए-कौसर है। जारी है.....................!

कैमरे के चित्र गुगल से साभार Indli - Hindi News, Blogs, Links

लातों के भूत बातों से नहीं मानते--यात्रा--हनुमानगढ

भटनेर का किला
कहानी 1984-85 की चल रही है, अभी तो काफ़ी बदलाव आ गया है,नारनौल से घुम घाम कर हम वापस रिवाड़ी पहुंचे, रिवाड़ी में भी एक दिन आवारागर्दी की। बस युं ही चक्कर काटते हुए, काठ मंडी, गोकलगेट, मुक्तीवाड़ा, नाई वाली, कतोपर, इत्यादि घुमे। इसके बाद हनुमानगढ जाने का कार्यक्रम बनाया। रिवाड़ी से दो गाड़ियाँ हनुमान गढ के रुट पर जाती थी। जोधपुर मेल और बीकानेर मेल। बात अब बहुत पुरानी है, इसलिए इनका समय कुछ रात के 11बजे के आस पास का था। 

भटनेर का किला
नवम्बर का आखरी सप्ताह था। ठंड बहुत थी, मैने एक लेदर की जैकेट,मंकी कैप और दस्ताने पहले ही खरीद लिए थे। अब स्टेशन की ओर चल पड़े। स्टेशन पहुंचकर देखा कि बीकानेर मेल पहले आने वाली थी और आई भी, लेकिन भीड़ इतनी थी कि पैर रखने की जगह ही नहीं थी। हमने यह ट्रेन छोड़ दी। उसके बाद जोधपुर मेल का भी हाल यही था। लेकिन अब तो ट्रेन में चढना मजबूरी थी। नहीं तो वहीं प्लेटफ़ार्म पर पड़े रह जाते। ट्रेन में चढने के बाद थोड़ी जगह दरवाजे के पास मिली, ठंड ज्यादा होने के कारण अपना कंबल ओढकर बैठ गए, बैठते ही नींद आ गयी। हमें सादुलपुर में छोटी लाइन की ट्रेन पकड़नी थी हनुमानगढ के लिए। सोते रहे।

जैसे ही सादुलपुर आया तो किसी ने हमें जगाया, देखा सादुलपुर आ गया, हम सामान समेत ही नींद में ट्रेन के बाहर कूद पड़े। इधर ट्रेन भी चल पड़ी थी। नहीं तो बीकानेर पहुंच कर नींद खुलती। यहां से हमने हनुमानगढ वाली ट्रेन पकड़ी। सुबह 8-9 बजे के आस-पास हनुमानगढ पहुंचे। वहां स्टेशन में उतरे तो सतपाल अंकल पहुंच गए थे, हमे लेने के लिए। उसके बाद हम उनके घर पहुंचे। स्नानादि से कुछ थकान दूर हुई लेकिन नींद आ रही थी। अब इरादा था हनुमानगढ टाउन घुमने का। उस समय टीवीएस50 का चलन था। हीरो मैजेस्टिक के बाद यह एक अच्छी बाईक आई थी। पिकअप भी बहुत बढिया था। यह बाईक मेरे हवाले हो गयी। बस इसी पर मैं घुमता रहा। दो दिन तक पूरा हनुमानगढ शहर घुमा। आगे श्री गंगानगर और सुरत गढ जाने का इरादा था लेकिन समयाभाव के कारण नहीं जा सका।

हनुमानगढ राजस्थान का मुख्य सरहदी जिला है। इसका क्षेत्रफ़ल 9656.09 वर्ग कि.मी. है। यहां कपास का अच्छा व्यवसाय होता है। मैने जगह-जगह कपास के ढेर लगे देखे। मैने सज्जन गढ का किला भी देखा। इस यात्रा के चित्र मेरे पास उपलब्ध नहीं हैं, बच्चे कहीं रख कर भूल गए है, मिलने लगाऊंगा, हनुमानगढ  में स्थित एक किला "भटनेर का किला"  के नाम से जाना जाता है। यह प्राचीन किला घाघर नदी के किनारे पर स्थित है, जिसे जैसलमेर के राजा भाटी के बेटे भुपत ने सन् 295 में बनवाया था।सन् १८०५ में बीकानेर  के  महाराजा सुरत सिंह  ने  राजा भाटी को हराने के बाद भटनेर पर कब्जा कर लिया। उनकी जीत मंगलवार के दिन हुई थे।(भगवान"हनुमान" का दिन), इस कारण से भटनेर का नाम हनुमानगढ़ कर दिया गया।

पहले दिन यहां आया तो शाम हो चुकी थी,इसलिए पुरा नहीं घुम पाया इसलिए दुसरे दिन फ़िर सुबह आया और पुरा किला देखा। मुझे प्राचीन इमारतें देखने का बहुत शौक है। राजस्थान में हर शहर में कोइ न कोई किला है और हवेली है। कई जगह तो ये अच्छी तरह संरक्षित हैं कई जगह इनकी देख-भाल न होने से खंडहर में तब्दील हो गयी हैं। धरोहरों का नाश हो रहा है। इनका पूर्ण संरक्षण होना चाहिए। अब हनुमानगढ से वापसी का समय हो चुका था। रात को फ़िर वही गाड़ी पकड़नी थी।रात को लगभग 10 बजे हम स्टेशन पहुंचे तो बहुत सर्दी हो चुकी थी। ठंड ज्यादा लग रही थी। बहुत सारे फ़ौजी भी बाडर से छुट्टियां मनाने अपने घर जा रहे थे। स्टेशन फ़ौजियों से भरा हुआ था। हमने सोचा चलो अब इनके साथ बातचीत करते सफ़र कट जाएगा।
रेलवई टेसन

ट्रेन आ चुकी थी। देखा कि लोगों ने दरवाजे लॉक कर रखे हैं। आवाज देने और दरवाजा ठोकने के बाद भी कोई खोलने को तैयार नहीं है। सब आराम से एक-एक सीट पकड़ कर कंबल रजाई ओढे सोये हैं। ट्रेन का छुटने का समय हो रहा था। सारे फ़ौजी भी हलाकान थे हम भी अपना सामान लिए खड़े थे कि कोई दरवाजा खोले तो अंदर घुसें। फ़िर एक फ़ौजी बोला-"दरवाजा तोड़ डालो, और इन्हे थोड़ा सुधार भी दो। बस फ़िर क्या था, फ़ौजियों के बूटों की ठोकर और कंधें के धक्कों से लॉक टूट गया। अंदर घुसते ही फ़ौजियों ने बेल्ट निकाल कर दो चार को तो अच्चे से सुधार दिया। पूरी बोगी में एक एक सीटों पर लम्बे पडे हुए सब उठकर बैठ गए और बैठिए साहब, बैठिए साहब करने लगे। कहां तो वे दरवाजा खोलने को तैयार नहीं थे। इसे ही कहते हैं लातों के भूत बातों से नहीं मानते। फ़ौजियों के साथ दिल्ली तक का सफ़र अच्छे से कट गया। उनके किस्से भी बड़े मजेदार थे। इस तरह हमारी हनुमानगढ यात्रा पूरी हुई।

चित्र -गुगल से साभार
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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

बहुत हुई रावण की बकवास- यात्रा का अंतिम भाग

रावण की बकवास
प्रारंभ से पढें-------शाम को सोकर उठे तो प्लान किया कि कल सुबह नागपुर से निकला जाए। नीरज कहने लगा कि यहां किसी अच्छे अस्पताल में शरीर का जनरल चेकअप करवा लेते हैं। मैने मना कर दिया कि रायपुर में करवा लेंगे। अब समय था रिफ़्रेशमेंट का। बहुत फ़ालतु चक्कर काट लिए 5 दिन। हाईवे पर कार दौड़ाते रहे। पूरी प्लानिंग चौपट हो गयी थी। अगर एक फ़ोन नहीं करता तो गोवा से लौट रहे होते, मौज मेल्ले ले के। लेकिन शायद किस्मत को यही मंजुर था। एक बढिया बार देखकर पहुंच गए तीनों रिफ़्रेशमेंट के लिए। बीयर का आनंद लेते हुए गपशप करते रहे। मैं फ़िल्में बहुत कम देखता हूँ क्योंकि आजकल की फ़िल्में मुझे पसंद ही नहीं आती। नयी फ़िल्में कोई एकाध देखी होगी। नीरज कहने लगा खाना खाकर रात को फ़िल्म देखने चलते हैं आईनॉक्स में। मैं होटल में क्या करता? मैने भी कहा ठीक है। नीरज आईनॉक्स टिकिट लेने चला गया और मैं होटल में आ गया।

जब तक नीरज टिकिट लेकर आता तब तक मैं लैपटॉप का उपयोग करने लगा। एक पोस्ट पर पाबला जी की टिप्पणी दिखी कि हो सके तो कल हम भी नागपुर में होंगे। मैने उसके बाद पाबला जी को खुब फ़ोन लगाया,लेकिन फ़ोन ही नहीं लगा। रात के खाने में बिरयानी मंगाई गयी। नीरज नानवेज नहीं लेता,इसलिए उसने सादा खाना मंगवाया। अगर आप नानवेजिटेरियन है और कभी नागपुर आएं तो यहां जमजम की बिरयानी का स्वाद अवश्य लें। बहुत ही लजीज बिरयानी मिलती है। यह रेस्टोंरेंट सेंट्रल एवेन्यु पर ही है। बिरयानी ने तो आनंद ला दिया। मजा आ गया। अब प्लानिंग बन गयी कि यहां से होटल चेक आउट करके ही चलते हैं। फ़िल्म देखकर वहीं से रायपुर के लिए निकल लेंगे। हम होटल चेक आउट करके अपना सामान लेकर फ़िल्म देखने चले गये और वह फ़िल्म थी रावण।

बहुत शोर सुना था पहलु में दिल का,चीरा तो एक कतरा खुन न निकला। रावण के विषय में उसके गाने को लेकर बहुत दिनों से हल्ला मचा हुआ था। लोग कह रहे थे कि फ़िल्म में कुछ दम है और इसके गाने को नक्सलियों ने अपना नक्सल गान बना लिया है। जब फ़िल्म शुरु हुई तो अभिषेक बच्चन, एश्वर्या राय, और गोविंदा समझ में आए। अभिषेक बच्चन राबिन हुड बना हुआ था और पुलिस अधिकारी की पत्नी एश्वर्याराय का हरण करके जंगल में ले जाता है और पुलिस वाला अपनी बीबी को ढुंढते रहता है। बस यही कहानी है फ़िल्म की।
रावण की बकवास

फ़िल्म के सीन अवास्तविक लगे। एश्वर्या का इतनी ज्यादा उंचाई से नदी में कूदना और पेड़ की डाल पर अटकना। उसके पीछे पीछे अभिषेक का भी पानी में छलांग लगाना। फ़िर लताओं के सहारे उसे पहाड़ी पर चढाना। फ़िर गाना शुरु हो जाता है जैसे दोनो में इश्क हो गया हो। पुलिस वाला बैठा बैठा हलाकान होता रहता है। बीबी उधर जंगल में गाना गाती है। गोंविन्दा पगलैट बना घुमता है। यह सब वाहयात आईटम देखकर मुझे तो नींद आने लगी। इंटरवल होते ही मैं तो सो गया। जब फ़िल्म खत्म हुई तो नीरज ने जगाया कि चलिए फ़िल्म खत्म हो गयी। मैने कहा है कि यह तो मेरे लिए बहुत पहले ही खत्म हो गयी थी। क्या  यार एक दम फ़्लाप फ़िल्म दिखाने ले आया। पूरा टैम भी खराब किया।

एक बजे हम रायपुर के लिए निकल लिए। कार विक्की चला रहा था। मैं पिछली सीट पर सोया। रात को ये गाड़ी चलाते रहे। किसी जगह इन्होने ढाबे में रात को बैठकर फ़िर बीयर पी और थोड़ी बहुत गाड़ी चला कर आगे किसी ढाबे में पड़ गए। सुबह 5बजे मेरी आंख खुली तो ये ढाबे में सोए हुए थे। इन्हे जगाया और चलने को कहा। चाय पीकर एक बार फ़िर चल पड़े। रास्ते में पानी गिरने से सड़क के किनारे की मिट्टी कट गयी थी और कीचड़ काफ़ी हो गया था। रायपुर से नागपुर सड़क के चौड़ी करण का काम हो रहा है, मुझे याद है इसे चलते हुए लगभग 10साल हो गए लेकिन अभी तक पूरा नहीं हुआ है। अंजोरा के पास एक ढाबे में आलु के पराठे खाए। भिलाई पहुंचने पर एक बार मन में ख्याल आया कि संजीव तिवारी जी फ़ोन लगाया जाए। लेकिन देर होने का खतरा सोच कर फ़ोन नहीं लगाया सीधे ही निकल लिए।

19 जून से चले हुए 26 जून को 12 बजे घर पहुंचे। बिना प्लानिंग की आवारागर्दी करके। बस दिन रात सड़क ही नापते रहे। रुपयों की भी वाट लगाई और कुछ हासिल भी नहीं हुआ। बस शनि सिंघणापुर और वर्धा ही गए। अचानक आधी रात को उठकर निकलने के यही परिणाम होते हैं। अगर दो चार दिन पहले ही योजना बना लेते ठंडे दिमाग से तो आनंद ही कुछ और रहता। यात्रा का आनंद लेना है तो अपनी गाड़ी से जाने की बजाए, ट्रेन या फ़्लाईट जो सुविधा जेब सह सकती है उससे जाए और इच्छित स्थान पर जाकर टैक्सी किराए कर लें तो वही बेहतर होता है। मुझे यात्रा वही पसंद है जो एक स्थान पर दो चार दिन रुक कर आराम से देखा जाए। भाग-दौड़ और समय की कमी वाली यात्राएं न ही करें तो बेहतर है। यह यात्रा यहीं पर सम्पन्न होती है। पुन: आते हैं अन्य यात्रा स्मरण के साथ।

युद्ध दो मिनट का-विजय दिवस पर विशेष

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बिना लकड़ी और लोहे की छत---यात्रा-4

 अनुसंधान केन्द्र का रास्ता
चिखली में रुकने से से हमारा पूरा कार्यक्रम चौपट हो गया और वापस लौटने लगे। चिखली अगर नहीं रुकते तो हम रात तक मुंबई पहुंच चुके होते। लेकिन शायद कुछ ऐसा था जो हमें आगे बढने से रोक रहा था। वापस जब वर्धा पहुंचे तो सुबह हो चुकी थी। मैने कुछ फ़ोटुएं नीरज के कैमरे ली थी,वह नीरज के साथ ही चली गयी। इसलिए नहीं लगा पा रहा हूँ। वर्धा में ग्रामीण अभियांत्रिकी अनुसंधान केन्द्र है, जो कि ग्रामीणों के रहन-सहन को लेकर नवोन्मेष करते रहता है। मैं उसे देखना चाहता था। वर्धा से नागपुर रोड़ पर मुझे उसका बोर्ड दिख गया और मैने सुबह-सुबह ही गाड़ी उधर मोड़ ली। मैने सोच लिया था कि सुबह सुबह तो आफ़िस स्टाफ़ मिलेगा नहीं। कुछ चौकीदार से पूछ लिया जाएगा। सौभाग्य से चौकीदार वहां मिल गया। मैने वहां की अनुसंधानों के विषय में उससे जानकारी ली।
देशी वाटर फ़िल्टर

वर्धा में एक महत्वपूर्ण अनुसंधान कम लागत में घर बनाने के लिए हुआ है। जिसकी मुझे जानकारी थी। इस विषय पर मैं कुछ अधिक जानकारी लेना चाहता था। इस तरह के मकान में छत बिना लगड़ी और लोहे के सहारे बनाई जाती है और छत भी बहुत मजबूत होती है चाहे उसके उपर हाथी चढालिया जाए।इस तरह की तकनीकि मैं कई वर्षों से जानना चाहता था लेकिन वर्धा जाने का समय नहीं मिल रहा था या शायद उचित कारण नहीं था। यहां इस तकनीक से बनाया हुआ एक बहुत बढा सभागार है। जो बहुत ही सुंदर बना है। चौकीदार ने मुझे वह सभागार खोल कर दिखाया। मैने उसके कुछ चित्र लिए। लगा कि यहां आना सार्थक हुआ। यहां पर एक बहुत ही सस्ता वाटर फ़िल्टर भी बनाया जाता है जो जल को कीटाणु रहित करता है। यह वाटर फ़िल्टर सिर्फ़ 300रुपए का है। कुल मिलाकर देशी इलाज है लेकिन कारगर है। मैने इसका चित्र लिया।
सभागार-बिना लकड़ी,लोहे की छत

चाक पर काम करने वाले कुम्हार वर्तमान में बेरोजगारी के कगार पर हैं। क्योंकि अब घरों में लोग कवेलु लगाना पसंद नहीं करते। थोड़े से और रुपयों का इंतजाम करके कांक्रीट की ही छत बनाना चाहते हैं जिससे जीवन भर का आराम हो जाए। कवेलुओं हर साल एक बरसात पड़ने के बाद फ़िर से पलटना पड़ता है। बिल्ली आदि के कूदने से कवेलु टूट जाते हैं और वहां पानी का रिसाव होता है। कवेलु की छत बनाना भी एक कला है। गाँव में कवेलु की छत बनाने का काम कुछ विशेष लोग ही करते हैं। मिट्टी के घड़ों की जगह घर में फ़्रीज आ गए हैं, जिनकी थोड़ी बहुत ज्यादा आय है वह किश्तों में फ़्रीज ले लेता है। अगर आय नहीं है तो शादी में दहेज में मांग लेता है। इस तरह अब घड़ों का इस्तेमाल बहुत कम हो रहा है। दीवाली में भी दिए वर्तमान में चीन से आ रहे हैं। जिसमें मोम जमाकर बत्ती लगा दी जाती है। अब कौन तेल और बत्ती लगाने का झंझट रखे। सीधा उन्ही रेड़ीमेट दियों का उपयोग कर लेता है। इस तरह कुम्हारों का काम खत्म होता जा रहा है।
कवेलु और छत का डिजाईन

इस छत को बनाने के लिए प्रथम आवश्यक्ता कुम्हारों की है। क्योंकि इसके कवेले चाक पर ही बनते हैं। कोई एक फ़ुट लम्बाई के शंकु आकार के और फ़िर इन्हे भट्टी की आंच में अच्छी तरह पकाया जाता है। फ़िर छत पर इनकी मेहराब बनाई जाती है। एक मेहराब की चौड़ाई 12फ़ुट तक हो सकती है जो दीवारों पर टिकी होती है। पहले चारों तरफ़ दीवार बनाकर उसे लगभग 8फ़ुट की उंचाई दी जाती है। उस पर चारों तरफ़ एक कांक्रीट का बीम डाला जाता है। फ़िर उस पर अर्ध चंद्राकर सेंट्रिंग बांधी जाती है। उस सेंट्रिंग के सहारे शंकुआकार के कवेलुओं को एक दुसरे में फ़ंसाया जाता है। इस तरह एक एक पंक्ति तैयार की जाती है।फ़िर पंक्तियों के बीच में सीमेंट भरकर छत पर सींमेंट का प्लास्टर कर दिया जाता है। आप इसे खुबसुरत रुप देने के लिए टूटी हुई सिरेमिक टाईल्स भी चिपका सकते हैं। इससे बनी छत पर्यावरण की दृष्टि से बहुत अच्छी है और लकड़ी,लोहे की बचत हो जाती है। मजबूती में कोई कमी नहीं है भवन भी बहुत सुदर दिखाई देता है। छत का पूरा वजन मेहराबों से होते हुए दीवालों पर आ जाता है। इसका एक महत्वपूर्ण पहलु यह है कि कुम्हारों को काम मिलेगा और कम लागत में अच्छी छत का निर्माण हो जाएगा।
घाट

अब यहां से निकल कर हम नागपुर की ओर चल पड़े। लगभग 9 बजे नागपुर में प्रवेश कर चुके थे। रात भर गाड़ी चलाने से थकान भी लग रही थी। अब जल्दी से कोई होटल देख कर उसमें सोना चाहते थे। सेंट्रल एवेन्यु नागपुर में रेल्वे स्टेशन के पास बहुत से होटल हैं। पिछले बार हम प्रेशर के चक्कर में गलत होटल में फ़ंस गए। इस बार उससे थोड़ा आगे पैराडाईज होटल था। वहां जाकर किराया पूछने पर उसने नान एसी कूलर वाला कमरा 750 रुपए का बताया। साथ में 12%टैक्स भी। हमने कमरा देखा तो अमीर होटल से बहुत अच्छा था। पिछली गलती का अहसास हुआ। बाथरुम अच्छा बड़ा था। होटल में खाने का रेस्टोरेंट भी था, लेकिन रुम सर्विस के नाम पर 10% चार्ज अलग से लिया जाता है।

नीरज और विक्की तो पड़ते ही सो गए। मैं लग गया लैपटाप पर। मैने एक पोस्ट भी लगाई थी कि अगर कोई हिन्दी ब्लागर नागपुर में है तो कृपया सम्पर्क करे। लेकिन वहां मुझे कोई भी हिन्दी ब्लागर नहीं मिला। इतने दिनों की ब्लागिंग में शायद ही किसी का नागपुर का प्रोफ़ाईल देखा हो। अगर देखा होता तो अवश्य ही याद आ जाता। कुछ टिप्पणियां मार कर मै स्नान कर के सो गया। आगे की कहानी बाकी है दोस्त.........

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