सोमवार, 23 अप्रैल 2012

ब्लॉगर सबसे बड़ा मौन का साधक

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सुबह जब सो कर उठे तो सुरज की किरणें कनात की झिरियों से आकर मुंह पर पड़ रही थी। रात नदी की रेत पर ही अच्छी नींद आयी। काफ़ी साथी लोग नहा धोकर तैयार हो गए थे। मौनी बाबा आदतन मौन थे, ये तो सिर्फ़ दो घंटे ही मौन रहते हैं। ब्लॉगर तो जब तक कम्पयुटर पर रहता है तब तक मौन रहता है। ब्लॉगर से बड़ा साधक कौन है? सारी विद्याएं ही हैं जैसे त्राटक (एक टक मानीटर को देखना) मौन, धारणा, ध्यान, समाधि। वैसे ब्लॉगर को ॠषि तुल्य ही मानना चाहिए। ॠषि का कार्य है कि गुरुओं से मिले हुए ज्ञान को प्रचारित एवं प्रसारित करना। यही काम ब्लॉगर भी मनोयोग से कर रहे हैं। आँख खुली ही थी कि तुरकने जी ने एक विषय छेड़ दि्या और हमने पकड़ लिया। सुबह-सुबह ही एक घंटे का लेक्चर हो गया। अब तैयार होना था, हरिद्वार में तो कल से अफ़रातफ़री का माहौल था।

भगदड़ की घटनाओं को लेकर अफ़वाहों का बाजार गर्म था। जो वहां नहीं था वह भी प्रत्यक्षदर्शी बना हुआ था। कोई कह रहा था कि आतंकवादी घुस गए थे। कोई कह रहा था कि पुलिस वालों ने भगदड़ मचा दी तो कोई कह रहा था कि दंगा हो गया। गंगा तीर से स्नान कर आई महिलाओं ने बताया कि वहां स्नान कर रही दो महिलाएं कह रही थी कि वे यज्ञशाला में थी। वहां यज्ञ की अग्नि में एक महिला जल गयी और उन्होने अपनी आँखों से देखा है। मैने कहा कि इतना बड़ा झूठ, उनकी कनपटी में बजाना था दो, तुम लोग सुन कर कैसे आ गयी। भीड़ की अधिकता से भगदड़ में 16 लोगों के मृत होने की सूचना अवश्य आ रही थी। किसी वृद्ध के बेहोश होकर गिरने के बाद भगदड़ मची। जिसे धुंए की अधिकता से बेहोश होना बताया जा रहा है। उसमें ही लोग घायल हुए हैं और कुछ मरे हैं। पता नहीं लोगों को अफ़वाह फ़ैला कर क्या मिलता है? अफ़वाहें ही सारा माहौल खराब करती है और इन पर लगाम लगाना किसी के बस का नहीं।

भगदड़ होने का एक कारण मेरी समझ में आया कि इतनी भीड़ को संभालना प्रशासन के बस की बात नहीं। स्वअनुशासन की आवश्यकता होती है। ऐसा भी नहीं है कि गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं में अनुशासन की कमी है। पर अधिक भीड़ लाने के चक्कर में कुछ सैलानी भी मात्र घूमने एवं देखने चले आए। इसके कारण अनुशासन कायम नहीं रह सका। भीड़ को कोई नहीं संभाल सकता। गायत्री परिवार का आयोजन उम्दा था। किसी संस्थान के द्वारा किया गया आज तक का सबसे बड़ा आयोजन था। कुंभ में भी सरकार करोड़ों रुपए खर्च करके ऐसा आयोजन नहीं कर सकती, यह तो मानना ही पड़ेगा। भीड़ के कारण कुंभ में भी भगदड़ मची है। नासिक कुंभ इसका ताजा तरीन उदाहरण है। वहाँ भी भगदड़ में काफ़ी लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। हादसों को रोका जाना चाहिए, भीड़ पर नियंत्रण न होने के कारण हादसे होते हैं।

हमारे कुछ साथी चंडी देवी मंदिर और कुछ शांतिकूंज जाना चाहते है। पर मैने अपना रुख अडिग रखा, क्योंकि हमारी ट्रेन 2.40 बजे दोपहर को थी। अगर भीड़ के कारण ट्रेन निकल गयी तो हरिद्वार में ही हरे राम भजना पड़ता। मैने हांका लगा दिया कि जिसको भी स्टेशन चलना है वह मेरे साथ चले। पैदल ही जाना होगा क्योंकि कहीं पर भी सवारी मिलने की संभावना नहीं है और मुसीबतों का एकमात्र पुल भी पार करना है। आधे सहयात्री मेरे साथ चलने को तैयार हो गए। हम अपना सामान लाद कर गौरीशंकर के यात्री स्वागत पंडाल तक पहुंच गए। वहाँ रुक कर साथियों का इंतजार किया। सभी के साथ आने पर गंगा को प्रणाम करके हम आगे बढ गए। महिलाओं ने अपना बैग सिर पर रख लिया। क्योंकि आज तो लगभग 10 किलोमीटर के अधिक चलना था। इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था।

कुछ मास्टरिन भी साथ थी, रास्ते में कहती थी -"रेंगत नई बनत हे महाराज, सुखियार होगे हन गा", तो मैं कहता - "आज तो सुखियारी चले नहीं, रेंगे ला परबेच करही। धीरे बांधे चलव, टैम में पहुंच जाबो।" कुछ साथियों को ऑटो मिल गए, पर ऑटो वालों का पुल पर प्रवेश बंद था, वे भी हमें पुल पर ही इंतजार करते मिले। कुछ महिलाओं ने रास्ते में एक रिक्शा किया 50 रुपए में, जो उनके बैग पुल के प्रवेश द्वार तक पहुंचा दे। इस रिक्शे में प्रताप सेन बैठ गया पुल तक। किसी भी तीर्थ यात्री को यह ध्यान रखना चाहिए कि मेले, स्नान, या कुंभ इत्यादि जैसे पर्वों पर 11 नम्बर की ही सवारी काम आएगी। मतलब पैदल ही चलना पड़ेगा। क्योंकि भीड़ चलने वाले रास्तों पर रिक्शा इत्यादि वाहनों का प्रवेश वर्जित कर दिया जाता है। इसलिए तीर्थ पर जाने से पहले लगभग 15 दिनों की रोज 5 किलोमीटर चलने का अभ्यास कर लेना चाहिए।

पुल पार करके हमने उसके मुहाने पर कुछ देर विश्राम किया। उत्तराखंड पुलिस की महिला विंग की ड्युटी पुल के पास वाले चौराहे पर लगी थी। कभी-कभी मोबाईल पर मुस्कुरा कर बात कर लेती थी फ़िर अपने काम में लग जाती थी। मोबाईल भी मन बहलाने का उम्दा साधन है। बस उपयोग सही होना चाहिए। एक मिस कॉल दो और घंटे भर बात करो। धन धनिए का, माल बनिए। अपना तो हवा हवाई में ही काम चल जाता है। खिरामा खिरामा टहलते टहलते हम स्टेशन तक पहुंच गए।पैदल चलते चलते हरिद्वार की कई बातें और यादें जेहन में चल रही थी। कुछ चित्रों के रुप में यादें संजो ली थी। हरिद्वार के प्लेटफ़ार्म पर जनसुविधा का न होना आश्चर्य चकित कर गया। क्योंकि कुछ महिला सहयात्रियों को आवश्यकता पड़ गयी थी। उन्हे स्टेशन के बाहर जाना पड़ा। जारी है................।
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