गुरुवार, 23 जून 2011

बांधवगढ के किले तक पदयात्रा --- यात्रा - 3

हमें पेंड्रारोड़ के पड़ाव को छोड़ना था और जाना था  बांधवगढ की ओर। होटल पहुंच कर सामान उठाया चल पड़े मंजिल की ओर। वेंकट नगर से हमने मध्यप्रदेश में प्रवेश किया। अनूपपुर होते हुए शहडोल पहुंचे। रास्ते में चचाई पावर प्लांट के पास एक होटल में खाना खाया। उमरिया से बांधव गढ के लिए रास्ता है। 15 किलोमीटर की यह सड़क खराब है। रात को ढाई बजे हम ताला गांव याने बांधवगढ पहुंचे। यहां पहुंचने पर पता चला कि सभी रिजोर्ट और होटल फ़ुल चल रहे हैं। एक रिजोर्ट में गए तो उसने 2000 से कम कोई भी कमरा उपलब्ध नहीं है बताया। तब हमने उससे पूछा कि और किस जगह कमरा मिल सकता है। तो उसने नर्मदा लाज का पता बताया। हम नर्मदा लाज में पहुंचे वहां भी उसने 2000 और 1500 रुपए ही बताए। लेकिन मैने थोड़ा मोल भाव किया तो 800 रुपए में वह तैयार हो गया। ठंड इतनी अधिक थी कि पानी जम रहा था। इसलिए एसी रुम की जरुरत ही नहीं थी। अलबत्ता डबल कंबल के बिना ठंड नहीं रुकने वाली थी। इसलिए हमने और कम्बल लिए। 

बांधवगढ अभ्यारण्य का मेन गेट
बांधवगढ का किला वर्ष में एक बार कबीर दर्शन के नाम से खुलता है। इस दिन हजारों कबीर पंथी श्रद्धालु यहां दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं। इस दिन यहां प्रवेश शुल्क की छूट रहती है। अन्य दिनों में 6 सवारियों के लिए 1200 रुपए की टिकिट और 2700 रुपए जिप्सी का चार्ज लगता है। किले तक नहीं ले जाया जाता। सिर्फ़ शेर दिखाया जाता है। हमें बताया गया कि किले तक की यात्रा पैदल करनी पड़ेगी। गाड़ी ले जाने की मनाही है। अभ्यारण होने के कारण उसके नियमों का पालन करना पड़ेगा। यहां के डायरेक्टर पाटिल ने सिर्फ़ एक ही गाड़ी ले जाने की अनुमति दी थी जिसमें दामाखेड़ा गद्दी के गुरु जी प्रकाश मुनि नाम साहेब जी ही जाएगें। हम 9 बजे करीब अभ्यारण के गेट पर पहुंचे तो वहां जाने वालों की कतार लगी हुई थी। सारी स्थिति को समझ कर हमने तय किया कि सबसे पहले पेट भर कर नास्ता किया जाए और पानी साथ में रख लिया जाए।

हमने डबल नास्ता किया और 4 बोतल पानी साथ में रख लिया। अनुमति पत्र तो मैं पहले ही बनवा चुका था। अभ्यारण में किले तक लगभग 6 किलो मीटर चलना पड़ता है फ़िर किले के लिए 4 किलोमीटर की पहाड़ी चढाई करनी पड़ती है। रास्ते में खाने पीने के लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं है। इसलिए बाहर से ही तैयार होकर जाना पड़ता है। हमने भी अंदर का हाल नहीं देखा था। फ़िर भी 10 बजे हमने पैदल यात्रा प्रारंभ की। जय कारा लगाया बोल बाबा की जय और चल पड़े। रास्ते में प्राकृतिक सौंदर्य का रस पान करते हुए आनंदित हो रहे थे। भक्तों का रेला छोटे बच्चों के साथ चल रहा था। किले के रास्ते को छोड़ कर अन्य रास्तों पर गार्ड लगे थे।

जहां शेर मौजुद था वहां हाथी खड़े कर रखे थे।हम भी गपशप करते चल रहे थे। किले में पहुंचते ही पहली चढाई पर पहाड़ में खोद कर बनाई हुई घुड़साल नजर आई। इसमें कई दरवाजे एक साथ हैं। मैने अंदाजा लगाया कि राजा लोग किले तक रथ या बैलगाड़ी से आते होगें। उसके बाद मैदान में बैलगाड़ी या रथ छोड़कर पहाड़ पर चढने लिए घोड़े का उपयोग करते होगें। इसलिए किले के प्रारंभ में ही घुड़साल बनाई गयी है। धीरे धीरे चढाई चढते रहे। सुमीत भी जोर आजमा रहा था। 103 किलो वजन होने के बाद भी उसकी हिम्मत काबिले तारीफ़ है। मैं शार्टकट के चक्कर में रास्ते को छोड़ कर सीधी चढाई चढ रहा था। एक बार सुमीत को भी चढाया लेकिन बाद में उसने हाथ खड़े कर दिए।

सुमीत दास, ललित शर्मा, शरद(गुड्डु) शेष शय्या के सामने
सबसे पहले शेषशय्या आती है। जहां 35 फ़ुट लम्बे पत्थर को तराश कर सात फ़नों वाले शेषनाग पर विष्णु भगवान लेटे हैं। विष्णु भगवान को समृद्धि और एश्वर्य का देवता माना जाता है। इस प्रतिमा को कलचुरी राजा युवराजदेव के मंत्री गोल्लक ने 10 वीं सदी ईसवीं में बनवाया था। यह मुर्ती बलुवा पत्थर से निर्मित है। मूर्ती के चरणों के पास से एक झरना झरना निकल रहा है इसे चरण गंगा का नाम दिया गया है। पुराणों में इसे वेत्रावली गंगा कहा गया है। चरण गंगा सदानीर जल स्रोत है यहां कई नाले आकर मिलते हैं यह बांधवगढ के वन्यजीवों के लिए जीवन धारा के समान है। चरणगंगा से ताला स्थित पर्यटक संकुल को एवं कई गावों को पानी मिलता है। इस कुंड में काई जमने से पानी हरा हो गया है।
 
यहां से सीधी चढाई शुरु हो जाती है। एक जगह पर मेरे हाथ के पास खुजली हुई। मैने मुड़ कर देखा तो एक पेड़ दिखाई दिया। जिसमें केंवाच की फ़ली लटकी हुई थी। उसे किसी ने हिला दिया था। उसके रेसे हवा में तैर रहे थे। मैं तो तुरंत ही भागा वहां से, कुछ लोग खड़े रहे  बाद में क्या हाल हुआ होगा उनका राम ही जाने। हम किले के मुख्य दरवाजे तक पहुंच गए। तो लगा कि अब पहुच ही गए। लेकिन यहां से दो किलोमीटर और चलना था कबीर तलैया तक। उबड़ खाबड़ रस्ते पर चलते हुए दुसरे दरवाजे तक पहुंचे तो वहां भग्न अवस्था में एक बजरंगबली का मंदिर दिखा। उसके बाद तीसरा दरवाजा आया वहां भी बजरंग बली का मंदिर था। 

इसके आगे चलने पर देखा की लोग एक पेड़ की पत्तियाँ तोड़ने में लगे हुए थे किसी ने इस पेड़ के विषय में कह दिया कि इसकी पत्तियाँ गठिया वात रोग के इलाज में काम आती है। बस फ़िर क्या था लोग लग गए तोड़ने। मैं उनकी फ़ोटो ले रहा था। तभी मुझे उस पेड़ में भी केंवाच की बेल दिखाई दी। लोगों को बताने के बाद भी नहीं माने। मेरे से  ही पूछ रहे थे कि केंवाच क्या होता है। भैया जब तक गोबर से नहीं नहा लेगें तब तक केंवाच ही केवांच रटते रहगें और खुजाते रहेगें। अब भीड़ को कौन समझाए। शायद वे लोग अभी तक खुजा रहे होगें और कह रहे होंगे की फ़ौजी की बात मान ही लेते तो यह दिन नहीं देखना पड़ता।
 
रास्ते में एक बड़ा पक्का तालाब मिला। इसका पानी भी निकासी नहीं होने के कारण हरा हो गया था। तभी मुझे उसमें तैरता हुआ एक मगरमच्छ दिखाई दिया। कैमरे को जूम करने के बाद भी उसकी फ़ोटो नहीं आई। तालाब बहुत बड़ा है। कहते हैं कि किले में 12 तालाब हैं जिसमें से 2 तो हमने देखे बाकी का पता नहीं। इन तालाबों में बारहों महीने पानी भरा रहता है। किले की इमारते तो उजड़ गयी है। लेकिन कुछ मंदिर अभी बचे हुए हैं। किंवदंती है कि रावण को मारने के बाद राम इस जंगल में से गुजरे थे तो उन्होने अपने भाई लक्ष्मण को भेंट करने के लिए इस किले का निर्माण कराया था। इसीलिए इसका नाम बांधवगढ पड़ा। 

घुड़साल में दो घोड़े
किंवदंती की बात छोड़ दें तो यह किला 552 एकड़ में फ़ैला है। समुद्र तल से 811 मीटर की उचाई पर स्थित है। इसका निर्माण तीसरी शताब्दी में हुआ था। तीसरी सदी से लेकर 20 वीं सदी तक वाकटक, कलचुरी, सोलंकी, कुरुवंशी और बघेल राजवंशों ने यहां से राज किया। सोलहवीं सदी में संत कबीर भी यहां कुछ वर्ष रहे थे। जब शेरशाह सूरी हूमायुं का पीछा कर रहा था तब किले में मुगल बादशाह हूमायुं की बेगम को भी शरण मिली थी। इसका अहसान चुकाते हुए हूमायुं के बेटे अकबर ने बांधवगढ के नाम से चांदी के सिक्के जारी किए थे। 1617 में बघेल अपने राज्य की राजधानी रींवा ले गए और उसके बाद इस किले को खाली कर दिया गया तब से इस पर वन्य जीवों का ही कब्जा है। शेर भी यहां घुमते रहते है।

आगे चलने पर हम कबीर तलैया पहुंचे। यहां पर लोग स्नान कर रहे थे। कोई मुंडन करवा रहा था। कोई इसका जल बोतल में भर कर ले जा रहा था जिससे वह इसका उपयोग गंगा जल की तरह पवित्री करण के लिए कर सके। कोई रास्ते में बैठकर भोजन कर रहा था। यहां पहुच कर तो मेला ही लगा हुआ था। हमें भी यहां पहुंच कर अहसास हुआ की कुछ भोजन सामग्री ले कर आना था। क्योंकि भूख लगने लगी थी और यहां कुछ मिलता नहीं है। दो आदमी एक जगह पर चूना पत्थर तोड़ रहे थे। उन्हे मैने भी देखा था तब गुड्डु ने बताया कि एक कह रहा था कि आधा आधा रख लेते हैं साल भर चंदन नहीं खरीदना पड़ेगा। सुनने वाले और हम हँस पड़े। कबीर दास जी ने जिस पाखंड का विरोध किया था। उसका अनुशरण करना छूटा नहीं है।

कबीर गुफ़ा पर श्रद्धालु
जिस स्थान पर कबीरदास जी निवास करते थे वहां एक गुफ़ा है। उस गुफ़ा में दर्शन करने वालों का तांता लगा हुआ था। उसके पास ही महंत लोग बैठे थे अपने-अपने जजमान को मुड़ने के लिए। एक गाड़ी में पानी लाया गया था उसके लिए लोग मारा मारी कर रहे थे। प्रशासन को यहां कम से कम पानी की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए थी। हमारे साथ यात्रा पर एक बूढी माई भी थी, जिनकी उम्र 94 वर्ष थी वे झुकी कमर से पैदल चल कर यहां तक पहुंची थी। एक थानेदार ने उन्हे अपनी जिप्सी में बैठा लिया और खाने का पैकेट दिया। उसे आश्वस्त किया कि जब वे नीचे जाएंगे तो अपने साथ उसे गाड़ी में ले जाएगें। 

94 वर्षीय माई और थानेदार धुर्वे
आस्था बलवान होती है। उस आस्था के बल पर माई इतनी दूर पैदल चली आई।अब वापसी की तैयारी थी। सुमीत चित्त हो रहा था लेकिन वापिस तो जाना ही था। वापसी में कबीर तलैया की दुसरी तरफ़ धनी धर्मदास और आमीन माता का स्थान बना हुआ है। बताते हैं कि यहां पर कबीर दास जी उन्हे उपदेश दिया करते थे। यहां पर भी हम गए। श्रद्धालु इस स्थान पर नारियल और अगरबत्ती जला रहे थे। किले में मुझे बजरंगबली के कई मंदिरों के भग्नावेश दिखाई दिए। इससे महसूस हुआ कि तत्कालीन राजा हनुमान जी के बड़े भक्त रहे होगें। एक जगह पर हनुमान जी के मंदिर के सामने एक लोहे का गदानुमा सामान पड़ा था जिसे उठाकर लोग जोर आजमाईश कर रहे थे। मैने उठाया लेकिन उसका हत्था छोटा होने के कारण हाथ से फ़िसल जाता था। यहां पर राजाओं द्वारा बनाई गयी सैनिक छावनी के भी अवशेष दिखाई दिए। लेकिन राजा के रहने के महल इत्यादि का ठिकाना नहीं मिल सका। पूरे किले में घना जंगल खड़ा हुआ है। कहां से कौन जानवर निकल आए पता नहीं। इसलिए हमने मुख्य मार्ग छोड़कर अन्य कहीं तलाश करने का यत्न नही किया।

अचिंत दास
कबीर पंथ गुरु गद्दी दामाखेड़ा के गद्दीनशीन प्रकाश मुनि नाम साहेब के मुख्य कार्य सहयोगी अचिंत दास से सुबह बांधवगढ में मुलाकात हुई। इस आयोजन के लिए इन्होने बहुत मेहनत की। शासकीय अनुमति से लेकर श्रद्धालुओं के हाल चाल पुछने तक। अभ्यारण्य के डायरेक्टर पाटिल ने इन्हे सिर्फ़ एक ही वाहन किले तक ले जाने की अनुमति दी। ये मंत्री से लेकर संत्री तक फ़ोन लगाते रहे कि और वाहनों की अनुमति मिल जाए। लेकिन उन्हे प्रयास में सफ़लता नहीं मिली। हमारे रुम में ही सदा मुस्कुराने वाले इनके मनमोहक चेहरे का दीदार सुबह ही हो गया था। हमने साथ-साथ ही प्रातराश लिया और ये हमारे साथ अभ्यारण्य के मुख्यद्वार तक आए। अचिंत दास विगत 25 वर्षों से दामाखेड़ा गुरु गद्दी की सेवा में लगे हैं। साहेब बंदगी साहेब
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4 टिप्‍पणियां:

  1. फ़ौजी भाइ की बात ना मानकर पछताये, व गोबर से नहाये वो अलग, चौरानवे साल की माई,
    अगले साल ये मौका कब आयेगा, मैं भी जाना चाहता हूँ।

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  2. सुग्घर बरनन कर हस भईया.. आऊ फोटो मन घालक आंखी म बस जावत हे...
    मज़ा आ गे सिरतोन म.....

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  3. 'जतो नाम ततो गुण'. आप जब लिखते हैं तो लिखते ही जाते हैं और रुक गए तो महीनों तक. मानो गाड़ी यार्ड में खड़ी हो. ......... अच्चा लेखन. इसी भांति स्तर बनाये रखें.
    वैसे पोस्ट के शुरू में सन्दर्भ दिया जाय तो बार बार पिछली पोस्ट न खोलनी पड़े.

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  4. यहां गुफाओं में प्राचीन महत्‍वपूर्ण शिलालेख भी हैं, कई पुराने मंदिर और मूर्तियां हैं जिनकी चर्चा कम ही होती है और ताला का गुलाब-जामुन... चूके तो नहीं होंगे और अगर चूक गए हों तो फिर से कार्यक्रम बनाइए.

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