मंगलवार, 21 जून 2011

मणिधारी सर्प और सोनकुंड से बांधवगढ की ओर - यात्रा-1

र्षों की तमन्ना थी कि कभी बांधवगढ का किला देखा जाए। लेकिन वहाँ जाने का योग ही नहीं बन रहा था। 18 तारीख को सुबह सुमीत का फ़ोन आया कि-“ भैया बांधवगढ़ चलेंगे। मुझे मनचाही मुराद मिल गयी। मैने कहा कि-“कब चलना है? उसने बताया कि आज ही चलते हैं। मैं तुरंत तैयार हो गया। रात को लगभग 9 बजे हम लोग बांधवगढ की ओर चल पड़े। ड्रायवर को मिला कर हम तीन ही थे। पहला पड़ाव हमने पेंड्रारोड़ को बनाया। मैं तो खाना खाकर सो गया। पेंड्रारोड़ में हमने सुरभि लाज में रुम फ़ोन पर बुक कर लिया था। जब भी पेंड्रारोड़ आते हैं तो हम यहीं रुकते हैं। लगभग 3 बजे सुमीत ने जगाया कि-“उठो भैया पेंड्रारोड़ आ गया।“ आंखे मलते हुए देखा तो गाड़ी सुरभि लाज के सामने खड़ी थी। रुम में अंदर होते हैं बिस्तर में घुस गए। बहुत ठंड थी यहाँ पर।

सुबह 9 बजे तक सोते रहे। तब तक गुड्डु (शरद सरोरा) भी आ चुका था। साथ हमने चाय पी और तैयार होकर मरवाही ब्लाक में स्थित सोनकुन्ड की ओर चल पड़े। सोनकुंड मैं पहले भी गया हूँ। लेकिन इसके एतिहासिक महत्व पर कभी ध्यान नहीं दिया। यहां शोणभद्र और नर्मदा का मंदिर है। एक जल का कुंड और बाबा जी का धूना भी है। यहां एक बाबा जी निवास करते हैं और यहां मेला भी भरता है। हम सोनकुंड पंहुचे यहां हमें कुछ मित्रों से मिलना था। वे भी पहुंच चुके थे। चंद्रभान, शनिराम, फ़ूलचंद इत्यादि। तभी गुड्डु को एक पेड़ पर अमरुद दिख गए। वह उसे तोड़ने का प्रयास करने लगा। एक बाबा जी वहां पर थे उन्होने गुड्डु को और भी पेड़ बताए और कहा कि वहां से तोड़ लो। वे छोटे पेड़ हैं अमरुद हाथ आ ही जाएंगे।

मैने बाबा जी से इस स्थान के महत्व के विषय में चर्चा की तो उन्होने बताया कि यह स्थान मानस तीर्थ शोण भद्र का उदगम स्थल है इस स्थान को सोनकुंड कहा जाता है। इसी कुंड से उसका उदगम हुआ है। यह नदी नही उसका नर रुप नद है। मैने नदी के नर रुप में होने के विषय में ब्रह्मपुत्र (लोहित) को ही जाना था। लेकिन शोणभद्र के नद रुप होने की जानकारी पहली बार मिली। उन्होने बताया कि शोण राजा मैकल की पुत्री रेवा से विवाह करने के लिए अमरकंटक गए थे। अमकंटक के रास्ते में जोहिला नदी पड़ती है। वह रेवा की दासी रही है। खुबसूरत और चतुर होने के कारण उसने रेवा का रुप धर लिया और उसके कपड़े गहने पहन कर शोण को मोहित करके ब्याह करने के लिए चली आई।विवाह का पहला फ़ेरा ही हुआ था तभी रेवा को पता चला कि दासी जोहिला से शोण विवाह कर रहे हैं। वह विवाह स्थल पर चली आई।

रेवा ने शोण की तरफ़ क्रोधित होकर देखा, रेवा के क्रोध का सामना शोण नहीं कर सके उन्होने सिर झुका लिया। इसके घटना के बाद वह शोण से शोण भद्र कहलाने लगे। क्योंकि सिर का झुकना याने भद्र होना होता है। रेवा को भी अपनी गलती का अहसास होता है तो वह ग्लानिवश उल्टी दिशा (पश्चिम) की तरफ़ बहने लगती है। नर का मर्दन (अपमानित) करने के कारण रेवा का नाम नर्मदा पड़ा। वापस आकर शोण जी मानस कुंड से शोण भद्र के रुप में प्रवाहित होने लगे। जोहिला कुछ दूर तक प्रवाहित होकर लुप्त होकर शोण से मिल जाती हैं।शोण भारत की सबसे चौड़ा नद है। झारखंड सोनपुर और गढवा घाट पर 99 पाए का पुल 6 किलोमीटर लम्बा बना हुआ है। इस पुल पर सात मेल एक्सप्रेस एक साथ खड़ी हो सकती है।

पेन्ड्रा रोड़ से 13 किलोमीटर दूर एक गांव कारीआम है। इसका पुरातन नाम श्री गणेशपुरी कारी ग्राम है। पेन्ड्रागढी के मालगुजार लाल अमोल सिंह ने कालीग्राम मंदिर की माँ काली की मूर्ती को पेन्ड्रागढी में लाकर स्थापित कर दिया जिसके कारण उन्हे शापित होना पड़ा। उनका परिवार धीरे धीरे समाप्त होने लगा। राजा और रानी सोनकुंड में पूजा करने आते थे। तो उन्होने स्वामी एकनाथ जी को अपनी समस्या बताई। तो उन्होने कुंड एवं शिव जी का एक मंदिर बनाने को कहा। तब लाल अमोल सिह ने यहां कुंड एवं शिव का मंदिर बनाया। जिससे वे शाप मुक्त हुए।

यहां त्रिभुवन नाथ नामक शिव जी का विग्रह है जो निरंतर बढते ही जा रहा है।इसकी स्थापना स्वामी एकनाथ जी ने ही की थी। बाबा जी ने बताया कि 6 साल में शिव लिंग 6 इंच बढ चुका है। इस मंदिर की छत अस्थाई है जब शिवलिंग और अधिक बढा जाएगा तो छत हटाई जा सकती है। छत का निर्माण इसी हिसाब से किया गया है। यहाँ तरह तरह से सर्प भी हैं। बाबा जी कहते हैं कि उन्होने यहां मणिहारी सर्प भी देखा है। वह श्वेत रंग का है उनका दर्शन कभी कभी होता है। एक बड़ा नाग सर्प भी है जो आश्रम की चालिस जरीब जमीन भ्रमण करता है। राजा ने इस आश्रम को 70 एकड़ जमीन दी थी। जिस पर खेती होती है।गुरु पूजा पर्व पर यहां मेला भरता है और 20 क्विंटल धान कोठियों से निकाला जाता है। यह धान 6 वर्ष पुराना होता है। इस धान की खपत एक दिन में ही होती है। 

गुरु पूजा के अवसर पर 20 क्विंटल महुआ के लड्डु बनाए जाते हैं प्रसाद के रुप में भक्तों को वितरित करने के लिए। महुआ से दारु बनाते हुए तो देखा सुना था लेकिन महुआ के फ़ूल से लड्डु बनाए जाने की बात सुनकर कुछ उत्सुकता बढी कि यह लड्डु कैसे बनाए जाते हैं और उसका स्वाद कैसा होता है? बाबा जी ने महुआ से सिद्द करके बनाया हुआ प्रसाद खिलाया। बड़ा स्वादिष्ट था। उनसे महुआ का प्रसाद मांग कर मैं घर भी लेकर आया। एकदम चाकलेटी स्वाद लगा। इस महुआ प्रसाद  को बनाने का तरीका भी मैने बाबा जी से पूछा। उन्होने बताया कि पहले महुआ के फ़ूलों को कड़ाही में धीमी आंच पर भूना जाता है। जब फ़ूल चुटकी में लेने से फ़ुटने लगे तो उसे कूटा और पीसा जाता है। इसी तरह समान मात्रा में अलसी और तिल को भी भूना जाता है। महुआ फ़ूल,अलसी और तिल के चुर्ण को देशी घी में सिद्ध किया जाता है।

महुआ चुर्ण में काजु किसमिश बादाम इत्यादि मेवे भी डाले जाते हैं। इसमें थोड़ा सा गुड़ मिलाकर लड्डू बांध लिया जाता है। जिसे गुरु पूजा पर भक्तों को प्रसाद के रुप में दिया जाता है। यहां का धूना सैकड़ो वर्षों पुराना है जिसमें अनवरत अग्नि प्रज्जवलित हो रही है। धुने को शीश नवाने लोग आते हैं। बम बम भोले का चिलम प्रसाद भी यहां चलता है। चिलमची भक्त भी पहुंचते हैं। धुने पर एक भैरव (कुकुर देव) भी दिखे। ये हमेशा धुने पर ही बैठते हैं। तभी एक बिल्ली आकर मेरी गोदी में बैठ गयी। कुकुर और बिलाई दोनो साथ-साथ रह नहीं सकते। दोनो का बैर जग जाहिर है। लेकिन यहाँ दोनो एक साथ दिखाई दिए। साथ-साथ ही रहते हैं।
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7 टिप्‍पणियां:

  1. आपके यात्रा वृतांत की सबसे अच्छी बात मुझे उस जगह से जुडी कहानियों की लगती है.जिन्हें पढकर उस समय काल के चित्र से आँखों में खिंच जाते हैं.
    रोचक वर्णन.आभार.

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  2. आपका यह वृतांत पढ़ा अब है ... जिस जगह का भी वर्णन करते हैं वहाँ की संस्कृति से जुडी बातें भी विस्तार से पता चलती हैं ... रोचक वर्णन

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