शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

सुल्तान गंज से प्रस्थान और मच्छरों को रक्तदान यात्रा 11

सुबह 9 बजे हम सुल्तान गंज पहुंच चुके थे। रेल्वे स्टेशन के रिटायरिंग रुम में हमने स्नान किया, घर से लाए हुए सभी कपड़े, चप्पल-जूते दान कर दिए क्योंकि हम पद यात्रा में कम से कम बोझ ले जाना चाहते थे। सिर्फ़ एक जोड़ी भगवा कपड़े झोले में और एक जोड़ी पहने हुए, बस इतने में ही हम लोग अपना काम चलाते हैं। स्नानादि से निवृत होकर बाजार की तरफ़ चल पड़े, कुछ मित्रों को अपनी कावंड ठीक करानी ही, मुझे भी पिट्ठु बैग लेना था। सब सामान खरीद के हम गंगा जी की ओर चल पड़े। वहां पहुंच कर जल भरा और पूजा कराई और कांवड़ उठा कर मैदान में आ गए, यात्रा प्रारंभ करने के लिए। मैने पहली बार यात्रा पैदल करने का मन बनाया था, यात्रा प्रारंभ होने से पहले आशंकित था कि पैदल चल पाऊंगा कि नहीं, यात्रा बहुत लम्बी है, कहीं रास्ते में थक गया तो क्या होगा? साथी लोग तो छोड़ कर चले जाएंगे और मैं पीछे रह जाऊंगा। जब हमने कांवड़ की पूजा करके गंगा जल उठाया तो एक बज रहे थे।

मैने सोचा था कि जूते नहीं उतारुंगा, पैदल चलने के लिए मैंने पीटी शू ले रखे थे और सोचा था कि यात्रा में पैर में छाले न हो जाएं इसलिए पहन लुंगा। जब हम कांवड़ लेकर शहर की गलियों से पैदल निकले तो स्थानीय निवासियों वृद्ध, बाल, स्त्री सभी की नजर मेरे जुतों पर थी। क्योंकि इस यात्रा में लोग नंगे पैर ही जाते हैं, और मैने जुते पहन रखे थे। सभी की नजर मुझ पर ऐसे पड़ रही थी कि मुझे लगा कि कहीं मै कपड़े पहनना तो नहीं भूल गया। मेरे जुते सभी को नागवार गुजर रहे थे। मुझे लगा कि बहुत बड़ी गलती ही नहीं गलता हो गया। अब इसे कहीं पर सुधारना पड़ेगा। धूप बहुत ज्यादा थी, झुलसा दे रही थी। शुरुवात ही ऐसी हो चुकी थी। दो किलो मीटर चल कर डॉक्टर और साथी रुक गए थे।

कलकत्ता में मेरे पैर में चोट लग गयी थी। उसमें मवाद पड़ गया था, इसको लेकर मैं चिंतित था, कहीं गैंगरीन इत्यादि न हो जाए क्योंकि डायबिटिज के पेशेंट को पैरों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। मुझे उसमें दवाई लगाकर पट्टी भी करनी थी, इसलिए मैं भी रुक गया। देवी शंकर, नीनी महाराज, दिनेश मिश्रा इत्यादि बिना रुके ही निकल गए। मैं भी उठकर चलने लगा तो उमाशंकर भी साथ हो लिए। हम लोगों ने पहला पड़ाव मासूम गंज में किया, वहां पर पहले जाने वाले दल को हमने पकड़ लिया। अब जुते मुझे परेशान करने लगे थे, आसमान पर बादल हो गए थे इसलिए थोड़ी राहत मिल रही थी। मैने एक टैक्टर के पीछे चलते-चलते जुते उतार दिए, तब मुझे लगा कि एक बहुत बड़ी परेशानी से छुटकारा पा लिया। अब नंगे पैर चलने लगा तब लोगों की घूरती नजरों मे कुछ बदलाव हुआ।

जब हम मासूम गंज से चाय पीकर चले तो दिनेश महाराज और मैं सबसे आगे थे। हम लोग शाम होते तक तारापुर आ गए थे। दिनेश महाराज ने कहा कि रात को भी चलेंगे तो मैने कहा कि-बैटरी ले लेते हैं। हम लोग बैटरी लेने लगे और पानी भी लिया, तारापुर पार करके पुल के पास पहुंचे तो डॉक्टर ने आवाज दी पीछे से, दिनेश रुक गए और हम वहीं फ़ंस गए। देवी शंकर और नीनी भाई हमारे से पीछे थे वे धीरे-धीरे चल रहे थे। लेकिन जब हम बैटरी ले रहे थे तब वे हमारे से आगे निकल गए और हमें पता ही नहीं चला। ये सब बोले रात यहीं विश्राम करेंगे। मैने कहा कि देवी और नीनी कहां है उनका पता नहीं है, अभी हमको चलना चाहिए और रामपुर (32 किलो मीटर पर)में रुकना चाहिए। इनकी जिद के आगे हमें तारापुर में ही रात रुकनी पड़ी। रुकने के कारण चला नहीं जा रहा था और मैं लगातार देवी और नीनी को ढुंढता रहा। रात को खाना खाकर सो गए। मच्छर बहुत थे, ओडोमॉस लगाने के बाद भी खून चुसते रहे।
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6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह महाराज जी ... रक्तदान करना तो बड़ी अच्छी बात है ... पर मच्छरों को रक्तदान करना बीमारी को बुलाना है ....

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  2. हे भगवान् -इस समय मच्छरों की बात मत करिए ...नाम सुन कर डेंगू का भय हो जाता है -आगे ?

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  3. भाई, अपने यहां हरिद्वार में कांवड में जूते का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। ज्यादातर लोग चप्पल तो पहनते ही हैं। आनन्द बहुत आता है थकान और मच्छरों के बावजूद भी।

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  4. मच्‍छरों के बहाने
    कहां चले गुनगुनाने
    ब्‍लॉगिंग का क्‍या किया
    यह बतलाते जाना
    एक बार फिर
    दिल्‍ली आ जाना।

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  5. काँवडिये तो खूब देखे हैं पर अपनी पहचान का खोई भी काँवडिया है जानकर बढिया लगा ।

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