tag:blogger.com,1999:blog-15626662616104683612024-03-13T19:17:15.655+05:30चलती का नाम गाड़ीब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.comBlogger61125tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-20429667645499501112012-04-23T16:44:00.002+05:302012-04-23T16:44:58.660+05:30झूलती मीनार और अलबेला खत्री की डुबकी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-nGvSlljwKkw/Tx5JXxG_GzI/AAAAAAAAFa8/ZpTKJ2boXYA/s1600/Image6556.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-nGvSlljwKkw/Tx5JXxG_GzI/AAAAAAAAFa8/ZpTKJ2boXYA/s320/Image6556.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html">प्रारंभ से पढें</a><br />
अगली सुबह अलबेला खत्री जी से बात हुई तो उन्होने बताया कि वे एक दिन पहले अहमदाबाद में ही थे। फ़िर उन्होने कहा कि अगले दिन मैं सुबह की गाड़ी से अहमदाबाद आ रहा हूँ। वहीं मुलाकात हो जाएगी। मैने कहा कि अहमबाद स्टेशन पर आपको गाड़ी तैयार मिलेगी। मुझे फ़ोन कर देना, ड्रायवर आपको हमारे ठिकाने पर पहुंचा देगा। मेरी यह चर्चा अलबेला भाई से लोथल से लौटते वक्त हो रही थी। सुबह जब हम ऑफ़िस में पहुचे और उन्हे फ़ोन लगाया तो पता चला कि उनकी गाड़ी छुट गयी। उन्होने कहा कि जब शाम को आप सूरत पहुंचेगें तो मिलते हैं। चलो कोई बात नहीं यह भी खूब रही। संजय बेगानी जी को वापसी की सूचना देने के लिए फ़ोन लगाया तो उनकी तबियत भी नासाज थी। सर्द गर्म और वायरल से जूझ रहे थे। उन्हे आराम करने की सलाह देते हुए मैने वापसी का समाचार दिया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-6DkwmDB6mpo/Tx5JyWZ9CZI/AAAAAAAAFbE/oCUgPvD25tY/s1600/Image6752.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-6DkwmDB6mpo/Tx5JyWZ9CZI/AAAAAAAAFbE/oCUgPvD25tY/s320/Image6752.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">मेरे रास्ते का खाना घर से बन कर आ गया था। पोरबंदर हावड़ा एक्सप्रेस अपरान्ह 3.40 पर थी। हम दोपहर का भोजन करके स्टेशन पहुंचे। विनोद गुप्ता जी भी साथ ही थे। वहाँ पहुंचने पर पता चला कि ट्रेन रात को 10.50 पर आएगी। सुन कर झटका लगा, सात घंटे लेट थी ट्रेन। आगे कोई भरोसा भी नहीं कब आए। हावड़ा रुट की सभी गाड़ियाँ रिशेडयुल हो कर चल रही हैं ज्ञानेश्वरी दुर्घटना के बाद। रेल्वे की वेबसाईट पर रिशेडयुल समय नहीं दिखाता। इसके कारण यात्रियों को परेशानी होती है। अगर मुझे सही समय का पता लग जाता तो अहमदाबाद पुरी से टिकिट करवाता। काहे के लिए हावड़ा वाली गाड़ी में मगजमारी करता। यह रेल्वे की सरासर धोखाधड़ी है यात्रियों के साथ। अगर पहले पता चल जाए कि ट्रेन 7-8 घंटे लेट चलेगी तो यात्री उसके हिसाब से इंतजाम करके आए। अल्पना जी का सामान मुझ तक पहुंच चुका था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-qfSizZ2mHP4/Tx5KST_fZXI/AAAAAAAAFbM/OyTEw8S47Mc/s1600/Image6751.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-qfSizZ2mHP4/Tx5KST_fZXI/AAAAAAAAFbM/OyTEw8S47Mc/s320/Image6751.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">स्टेशन के पास झूलती हुई मीनार है, विनोद भाई ने कहा कि अब आ गए हैं तो वही देख लेते हैं। हम समीप में बनी झूलती मीनार देखने गए। दो मीनारें बनी हुई है। इन्हे चारों तरफ़ से घेर दिया गया है। कहते हैं कि हाथ से धक्का देने पर यह मीनारें हिलती हैं। इसलिए इन्हे झूलती हुई मीनार कहा जाता है। मीनारे गिरने का खतरा देखते हुए इन्हे घेर कर बाड़ कर दी है। आस-पास गंदगी फ़ैली हुई है। जबकि गुजरात पर्यटन के कैलेंडर में इन मीनारों की फ़ोटो भी लगी है। अगर कोई पर्यटक आएगा तो क्या गंदगी देखने आएगा। जहाँ सड़ांध उठ रही हो। हुँ छुँ अमदाबाद वाला बोर्ड शायद यही प्रदर्शित कर रहा है। आओ देखो अहमदाबाद में पर्यटक स्थलों का क्या हाल है। मीनारे देखने के बाद हम पुन: आफ़िस आ गए। अब रात को ट्रेन पकड़नी थी। तब तक नेट पर ही टाईम पास किया जाए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-ZXbu2lekIxE/Tx5KprKT1SI/AAAAAAAAFbU/da3jX5js2Oo/s1600/Image6759.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-ZXbu2lekIxE/Tx5KprKT1SI/AAAAAAAAFbU/da3jX5js2Oo/s320/Image6759.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">शाम को विनोद भाई के साथ घर पहुंचे, फ़िर रात का भोजन करके साढे दस बजे स्टेशन रवाना हुए। रास्ते में सैंटा क्लाज की ड्रेस बिक रही थी। एक ड्रेस उदय के लिए ली। स्टेशन पहुंचने पर पता चला कि गाड़ी एक घंटे लेट और हो गयी है। इंतजार करते समय बीतता गय। सवा बारह बजे ट्रेन आई। हमने अपनी सीट संभाली और सो गए। सुबह आँख खुली तो सूरत निकल चुका था। सूरत नरेश अलबेला खत्री का कहीं पता नहीं था। न वो आए, न उनका फ़ोन आया। गजब ही कर दिया कविराज ने। कोई बात नहीं, परदेश का मामला ही ऐसा होता है। अगर कही सूरत पहुंच जाते तो वे शायद मुंबई में मिलते। वापसी की यात्रा का फ़ोन सूर्यकांत गुप्ता जी को कर दिया था। नागपुर में वे इंतजार कर रहे थे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-ICtOpXesboI/Tx5K7BRRNNI/AAAAAAAAFbc/OStBx75vq7U/s1600/Image6754.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-ICtOpXesboI/Tx5K7BRRNNI/AAAAAAAAFbc/OStBx75vq7U/s320/Image6754.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">ट्रेन नागपुर लगभग 4 बजे पहुंची। गुप्ता जी स्टेशन पर मिल गए। अब एक से भले दो। रात और आधा दिन मैने सोकर ही काटा था। गुप्ता जी के आने से बहार आ गए। गुंजने लगे हंसी के ठहाके और ट्रेन चलने लगी। साढे सात बजे लगभग हमारी ट्रेन दुर्ग स्टेशन पहुंच गयी। गुप्ता जी विदा लेकर अपने गंतव्य की ओर बढ लिए। अब हमें रायपुर आने का इंतजार था। लगभग 8 बजे हम रायपुर पहुंचे। स्टेशन के बाहर अल्पना जी इंतजार करते मिली। उनका सामान जो लाए थे। ठंड बढ गयी थी, एक मित्र की सहायता रात घर पहुंचे। उन्होने गाड़ी भेज दी थी। इस तरह गुजरात की अधूरी यात्रा सम्पन्न हुई। होली के बाद बाकी यात्रा पुरी करनी है। कुछ देखना छूट गया, उसे पूरा करना है। </div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-20376883714902317282012-04-23T16:42:00.002+05:302012-04-23T16:42:35.373+05:30उतेलिया पैलेस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html">प्रारंभ से पढें</a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-1uQ-DvwXGJs/Txu8fLdifnI/AAAAAAAAFZ8/h0PmQtDGH9g/s1600/uteliya.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-1uQ-DvwXGJs/Txu8fLdifnI/AAAAAAAAFZ8/h0PmQtDGH9g/s320/uteliya.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;">उ</span>तेलिया पैलेस का नाम सुनते ही हम तुरत-फ़ुरत उतेलिया की निकल पड़े। मैने सोचा कि राजस्थान के किलों या महलों जैसा ही कुछ होगा। उतेलिया गाँव के चौराहे पर पहुंच कर लोगों से पैलेस का रास्त पूछा। उतेलिया एक गाँव ही नजर आया। हमारे छत्तीसगढ के ग्रामीण अंचल जैसे ही कवेलू के घर और उसी तरह की बसाहट। खेती के औजार लोगों के घर के सामने रखे थे। पशु यहाँ वहाँ सड़क पर बैठे-खड़े थे। येल्लो जी पहुंच गए उतेलिया पैलेस। हमें बताया गया था कि यहाँ एक होटल है और हम पैलेस देखने के साथ दोपहर के खाने का मंसूबा लिए आ पहुंचे। देखने से लगा कि हमारे यहाँ के किसी मालगुजार का रिहायशी बाड़ा है। सामने कवेलू का ऊंचा सा बरामदा है, जिसमें कवेलू लगाने के लिए बांस का उपयोग किया है। कम ऊंचाई का लोहे का दरवाजा दिखा। बरामदे में कुछ ग्रामीण बैठे गपशप मार रहे थे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-O0HAXniVicI/Txu85gAdvDI/AAAAAAAAFaE/97-TeNCqbAE/s1600/uteliya+raj+chinh.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="243" src="http://4.bp.blogspot.com/-O0HAXniVicI/Txu85gAdvDI/AAAAAAAAFaE/97-TeNCqbAE/s320/uteliya+raj+chinh.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">गाड़ी की आवाज सुनकर एक बंदा बाहर निकला। मैने पूछा कि उतेलिया पैलेस यही है? उसने हाँ में जवाब देते हुए प्रश्न किया - किससे मिलना है? विनोद भाई ने कहा कि पैलेस देखना है। बात करते हुए गेट खोल कर हम भीतर प्रवेश कर चुके थे। यह बंदा तो हमें मंगल ग्रह से उतरे एलियन जैसा ही समझ रहा था। तभी एक वृद्ध बाबा आए उन्होने हमें पैलेस के विषय में जानकारी दी। बताया कि इस पैलेस के मालिक ठाकुर अहमदाबाद में रहते हैं। यहां कभी-कभी आते हैं। इसकी मरम्मत करवा के होटल में तब्दील कर रहे हैं। वे हमें पैलेस के भीतर ले गए और सभी जगहों को दिखाया। होटल के लिए कमरे तैयार किए जा रहे हैं, ठेठ गुजराती स्टाईल में इंटिरियर का काम चल रहा है। बड़े-बड़े पीतल के हंडे सज्जा की दृष्टि से रखे हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-93EPj5O6YvQ/Txu9TqjTEVI/AAAAAAAAFaM/AgCGwGuO1A0/s1600/Image6747.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-93EPj5O6YvQ/Txu9TqjTEVI/AAAAAAAAFaM/AgCGwGuO1A0/s320/Image6747.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">पूछने पर बाबा ने बताया कि उतेलिया स्टेट में 12 गांव आते हैं। मैने इतनी छोटी स्टेट नहीं देखी थी। हमारे छत्तीसगढ में तो 12 गाँव के मालिक को दीवान कहते हैं। अगर ऐसा ही होता तो हर 12 गाँव पर एक राजा होता। पैलेस के सिंह द्वार पर हार्स पोलो खेलने की स्टीक करीने स्टेंड में लगी थी। पैलेस के बगल में स्थित घुड़साल में दो मरियल घोड़ियाँ भी थी। अगर कोई जवान सवार ही हो गया तो घोड़ी रहेगी या वह खुद, अस्पताल जाना तय। बाबा ने बताया कि यह गुजरात की स्पेशल नस्ल कि घोड़ियाँ हैं। गजब हो गया, अब इससे भी अधिक स्पेशल नस्ल की घोड़ी मिल जाए तो वह कैसी होगी। मुझे सोचने पर मजबूर हो गया। मैं तो एक बार ही घोड़ी पर बैठने की सजा भुगत रहा हूँ, पता नहीं ठाकुर कितने बार भुगतेगें, हा हा हा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-phqL74KEDlw/Txu98frCKjI/AAAAAAAAFaU/Q5ZqNvVd8RA/s1600/Image6740.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-phqL74KEDlw/Txu98frCKjI/AAAAAAAAFaU/Q5ZqNvVd8RA/s320/Image6740.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">मैने बड़े-बड़े पैलेस और किले देखे हैं, इसलिए इस पैलेस का महत्व कम करके आंक रहा हूँ। लेकिन इसका महत्व इस इलाके में कम नहीं है। उतेलिया पैलेस को देखकर किसी का एक शेर याद आ रहा है इस मौके पर - <b>कल जिसने हजारों की किस्मतें खरीदी थी, आज उसी हवेली के दाम लगने लगे</b>। पैलेस का मुख्य द्वार बुलंदी के साथ खड़ा है। दरवाजे पर गुजरात के सुथारों की परम्परागत कारीगरी दिखाई दे रही है। फ़र्नीचर पर भी बारीक खुदाई का काम दिखाई दिया। मुख्यद्वार पर उतेलिया राज्य का राज चिन्ह लगा हुआ है। पुरानी हवेली अभी भी शान से खड़ी है। हवेली की दो चार फ़ोटो लेकर हमने यहाँ से अहमदाबाद वापसी का विचार बनाया। अब भूख लगने लगी थी और उतेलिया पैलेस में खाने का कोई इंतजाम नहीं था। हम उतेलिया से अहमदाबाद की ओर बढ लिए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-4yLBJ6ZcmzM/Txu-M-NphNI/AAAAAAAAFac/hjtkbCoxxJo/s1600/Image6741.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-4yLBJ6ZcmzM/Txu-M-NphNI/AAAAAAAAFac/hjtkbCoxxJo/s320/Image6741.jpg" width="320" /></a>चौराहे पर एक ढाबा नुमा रेस्टोरेंट दिखा दिया। हमने भोजन करने लिए यही गाड़ी लगाई। छाछ के साथ तन्दूर की रोटी, खीर और कोफ़्ते की सब्जी मंगाई। पहले ही इधर के ढाबों के नाम से अनुभव ठीक नहीं रहा। इसलिए थोड़ा डरते-डरते ही खाया। भोजन करके हम अहमदाबाद चल पड़े। शाम 4 बजे हम अहमदाबाद पहुंच गए। अब वापसी की टिकिट बनाने का समय हो चुका था। वैसे गुजरात तो घूमना बहुत था लेकिन मुझे आए 6 दिन हो चुके थे। अब घर जाने का मन हो गया। विनोद भाई से टिकिट बनवाने के लिए कहा और हम पहुंच गए अपने गेस्ट हाऊस में। जब उतेलिया में था तो अल्पना का फ़ोन आया कि उसका कुछ सामान अहमदाबाद में छूट गया है, अगर ले आएं तो ..........। हमने कहा ले आएगें भाई, कांई वांदो नथी। अब इंतजार था अगली सुबह का.......... <a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_27.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-36034808018992307462012-04-23T16:41:00.002+05:302012-04-23T16:41:40.893+05:30मुर्दों के जीवित शहर लोथल (લોથલ) में एक दिन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-W6dd0hdwJio/TxsAGFv0nFI/AAAAAAAAFY8/RyPDSwMHsC8/s1600/lothal.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="http://3.bp.blogspot.com/-W6dd0hdwJio/TxsAGFv0nFI/AAAAAAAAFY8/RyPDSwMHsC8/s320/lothal.JPG" width="218" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लोथल का आसमानी चित्र</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><div style="color: black;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html"><span style="font-size: small;">प्रारंभ से पढें</span></a></div><span style="color: red; font-size: large;">लो</span>थल (લોથલ) का उत्खनित स्थल संग्रहालय से थोड़ी दूर पर ही है। मुख्यद्वार से प्रवेश करने पर सामने एक गोदी नुमा संरचना दिखाई दी। वहाँ से हम आगे बढ लिए, जिस बंदे से हमें मुलाकात करके इस बंदरगाह के विषय में जानना था वह नगर की बसाहट के नीचे की तरफ़ था। वहाँ पहुंचने पर देखा कि कुछ लोग घास काट रहे हैं। बरसात के समय बड़ी बड़ी घास उग आई थी। वहीं आवाज देने पर विपुल नामक बंदा टोपी लगाते हुए आया। उसने बताया कि वह यहां का चौकीदार है, जो भी पर्यटक आते हैं उन्हे वही लोथल (લોથલ) नगरी की सैर कराता है। मकवाना के फ़ोन के बारे में पूछने पर उसने बताया कि उनकी मिस कॉल आई थी, पर यह नहीं बताया कि कोई आ रहे हैं उत्खनित स्थल पर। चलो कोई बात नहीं, भ्रमण किधर से शुरु किया जाए। उसने निचली बस्ती से यात्रा प्रारंभ करवाई। मोहन जोदरो एवं हड़प्पा में मानव सभ्यता के प्राप्त होने पर इसे सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया। जब इस काल की सभ्यता के चिन्ह अन्य जगहों पर मिलने से इसे सैंधव सभ्यता कहा जाने लगा। लोथल दुनिया भर के पुराविदों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। प्राचीन सभ्यता को देखने जिज्ञासु यहाँ आते ही रहते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-T1_aAMR--GI/TxsFQh3n9NI/AAAAAAAAFZE/WJzTfh6F95E/s1600/lothal.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="http://4.bp.blogspot.com/-T1_aAMR--GI/TxsFQh3n9NI/AAAAAAAAFZE/WJzTfh6F95E/s320/lothal.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लोथल की बसाहट (चित्र गुगल से साभार)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">इसकी खोज 1954 में हुई थी, यह अहमदाबाद शहर से 83 किलोमीटर पर स्थित है। लोथल में उत्खनन का कार्य सन १९५५ से १९६२ के वर्षों में आर्कियोलाजिकल सर्वे ओफ इंडिया के विख्यात पुरातत्त्वविद डॉ. एस रंगनाथ राव के नेतृत्व में किया गया था। जैसा कि पाया जाता है यहाँ पर भी एक बड़ा टीला था। यह टीला खंभात की खाड़ी से 18 किलोमीटर पर स्थित है। लोथल शब्द से जैसे जाहिर होता है लोथ, लोथड़ा। मृत्यु के पश्चात शरीर लोथड़ा हो जाता है। किसी प्राकृतिक आपदा के कारण यह नगर मुर्दों के टीले में तब्दील हो गया। इसलिए स्थानीय लोग इसे लोथल के नाम से संबोधित करने लगे होगें। मोहन जोदरों का अर्थ भी मुर्दों का टीला ही किया गया। जहाँ कभी आपदा के कारण नगर नष्ट हो जाते थे वहाँ दुबारा नगर बसाए जाने पर मुर्दे ही मिलते थे। शायद इसीलिए इन स्थानों का नामकरण मुर्दों से संबंध रखता है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-F1WEgcYnV9c/TxsGjkPDfvI/AAAAAAAAFZM/hgSY00Ef19s/s1600/DSC00930.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-F1WEgcYnV9c/TxsGjkPDfvI/AAAAAAAAFZM/hgSY00Ef19s/s320/DSC00930.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">विनोद गुप्ता जी, विपुल और गड़े मुर्दे उखाड़ने वाला</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">सम्पूर्ण नगर चार दीवारी से घिरा है। चार दीवारी के भीतर ही सभी संरचनाएं प्राप्त होती हैं। विपुल भाई टोपी संभालते जाते हैं और बताते जाते हैं। इधर श्मशान है, वहाँ से कंकाल मिले हैं। इधर नगर के बड़ेरे लोगों का घर है। एक बडी सी घर की संचरना की ओर इशारा करके बताते हैं। हम आगे बढते हैं तो एक कुंआ नजर आता है। नगर में पीने के जल के लिए संभवत: इसका उपयोग किया जाता होगा। नगर में गंदे पानी की निकासी के लिए नालियों की समुचित व्यवस्था नजर आ रही थी। चौड़े रास्ते हैं नगर निवेश की चुस्त दुरुस्ती दिखाई दे रही थी। यहाँ से प्राग ऐतिसाहिक काल से बहुत से मिट्टी के बर्तन मिले हैं। जब यह नगर अपने उत्कर्ष पर था तब इसके समीप से साबरमती नदी एवं भोगोवो नदी बहा करती थी। उनके जल से यहाँ निर्मित गोदी में भराव होता था तथा मालवाहक नौकाएं गोदी में आकर लगती थीं। जिनसे सामान उतार कर गोदी के सामने बने गोदामों में रखा जाता था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-s_jRIllHVVI/TxsHtNjewAI/AAAAAAAAFZU/D29F9MbB9Rs/s1600/DSC00934.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-s_jRIllHVVI/TxsHtNjewAI/AAAAAAAAFZU/D29F9MbB9Rs/s320/DSC00934.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">निचली बस्ती की बसाहट</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">लोथल नगर का वर्तमान विस्तार 580X300 मीटर का है। लेकिन नगर के आकार को देख कर लगता है कि भूतकाल में यह अधिक रहा होगा। एक पूर्ण विकसित समृद्ध नगर का आकार इतना छोटा नहीं हो सकता। उत्खनन में प्राप्त जानकारी से इस बस्ती के तीन स्तरों का पता लगा। सबसे नीचे वाले स्तर में मकान जमीन से ही बनाए गए थे। लगभग 2350 ई पू बाढ का पानी भर जाने से यह नगरी डूब गयी। पुन: बसाहट होने पर बाढ से बचाने के लिए समुचित उपाए किए गए। नगर को बाढ से बचाने के लिए चारों तरफ़ कच्ची ईंटो की दीवार बनाई गयी। चौड़ी सड़कों से छोटी गलियां भी निकलती हैं। सड़के के दोनो ओर मकानों की बसाहट है। सभी मकानों में स्नानगृह एवं जल निकालने के लिए मोरी की व्यवस्था नजर आ रही थी। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-t8SHQmCSINY/TxsIf3JiRcI/AAAAAAAAFZc/nh6_2wFm9c4/s1600/Image6732.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-t8SHQmCSINY/TxsIf3JiRcI/AAAAAAAAFZc/nh6_2wFm9c4/s320/Image6732.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">धातु गलाने की फ़ाउंडरी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">नगर के दक्षिण पूर्व में शासक का बड़ा आवास भी मिला है। जिसमें पानी निकलने के लिए बड़ी मोरियां बनी हुई हैं। आवास का प्लेट फ़ार्म भी अन्य आवासों से ऊंचाई लिए हुए है। उसके सामने ही बर्तन पकाने की बड़ी भट्ठी भी मिली है। विपुल उसे गलाई कारखाना (फ़ाउंडरी) बता रहा था। मिट्टी में धातुओं की पहचान करके उसे निकालने की विधि जानना उस समय का क्रांतिकारी अविष्कार रहा होगा। उन्होने बड़ी तकनीक विकसित करके तांबा, लोहा मिट्टी से पृथक किया होगा तदुपरांत उससे बर्तन, मूर्तियाँ, मुहर, सिक्के आदि ढाले होगें। यहाँ भी धातुओं से निर्मित सामग्री प्राप्त हुई है। जिससे जाहिर होता है कि लोथल में धातुओं से निर्मित सामग्री का उपयोग होता था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-fka2v98qOx8/TxsKAjGXGrI/AAAAAAAAFZk/cAfbY_ST5as/s1600/DSC00915.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-fka2v98qOx8/TxsKAjGXGrI/AAAAAAAAFZk/cAfbY_ST5as/s320/DSC00915.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">डॉक यार्ड पर विनोद गुप्ता जी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">लोथल के पूर्वी छोर पर निचले भाग में एक आयताकार संरचना में पानी भरा हुआ था। हम उसके पास पहुंचे तो विपुल ने बताया कि यहाँ पर नाव आकर रुकती थी, उससे सामान उतार कर सामने गोदाम में रखा जाता था। वैसे यह गोदी जैसी संरचना काफ़ी बड़ी है। जानकारी लेने पर पता चला कि इसकी पश्चिमी दीवार 212 मीटर, पूर्वी दीवार 209 मीटर, उत्तरी दीवार 36 मीटर और दक्षिणी दीवार 34 मीटर लंबी है। दीवारों की अधिकतम ऊंचाई 4 मीटर है। उत्तरी दीवार में 12.5 मीटर चौड़ा प्रवेशद्वार है। ज्वार-भाटे के समय इस द्वार से जलपोत भीतर घुसते थे। रेत भर जाने से जब नदी का प्रवाह बदल गया, तब पूर्वी दीवार पर 6.5 मीटर चौड़ा एक दूसरा द्वार बनाया गया। इस गोदी में पानी के घटाने एवं बढाने की व्यवस्था है। एक तरफ़ ओव्हर फ़्लो बनाया गया है। जो पूर्व से पश्चिम की ओर छोटी नहर से जाकर फ़िर नदी में मिल जाता है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-dtRFtZhEevE/TxsLCTAfWWI/AAAAAAAAFZs/ez6CYrDTxao/s1600/DSC00922.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-dtRFtZhEevE/TxsLCTAfWWI/AAAAAAAAFZs/ez6CYrDTxao/s320/DSC00922.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">नगर क्षेत्र में विनोद गुप्ता जी एवं कुशवाहा जी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">संग्रहालय में देखने से पता चलता है कि यहाँ अनेक मुद्राएं प्राप्त हुई, इन मुद्राओं और मुहरों का ऐतिहासिक महत्व है। ये पत्थर, पकी हुई मिट्टी अथवा तांबे की हैं। बहुत सी मुद्राएं चौरस आकार की हैं, लगभग 2.5 से 2.5 सेंटीमीटर की। इनके एक ओर बैल, हाथी, बाघ आदि कोई पशु का चित्र बना है और दूसरी ओर कुछ अक्षर कुरेदे गए हैं। एक मुद्रा में तीन-चार पशु दिखाई देते हैं। बहुत-सी आयताकार मुद्राएं भी मिली हैं। इनमें केवल लिखावट है। ये सब मुद्राएं हड़प्पा-मोहेंजोदड़ो से मिली मुद्राओं जैसी ही हैं। इन मुद्राओं पर अंकित अक्षरों को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। बाजार क्षेत्र में कई सार्वजनिक स्नानागार बने हैं तथा इस इलाके में एक कुंआ भी है। साथ पीने के पानी को छानने का एक यंत्र भी बना देखा। जिसमें दो घड़े लगे हुए हैं। उपर के घड़े में पानी डालने से नीचे के घड़े में स्वच्छ पीने का पानी उपलब्ध हो जाता था। लोथल से प्राप्त होने वाला मछली पकड़ने कांटा ठीक वैसा ही है जैसा आज भी प्रचलन में है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-zp0G84qfVy4/TxsL-HtSRMI/AAAAAAAAFZ0/svqkDhe25zk/s1600/DSC00928.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-zp0G84qfVy4/TxsL-HtSRMI/AAAAAAAAFZ0/svqkDhe25zk/s320/DSC00928.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">प्राचीन कुंए की बनावट पर गंभीर मशविरा </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">जब हम श्मशान की ओर जाना चाहते हैं तो विपुल कहता है कि उधर जाने का रास्ता साफ़ नहीं है। यहाँ से जो भी सामग्री मिली है, वह सब संग्रहालय में रखी है। हमने संग्रहालय से जो भी किताबें खरीदी उससे हमें जानकारी लेने में सहायता हुई। लगभग 2 घंटे लोथल बंदरगाह के उत्खनित स्थल पर बिताने के पश्चात हम वापस संग्रहालय की तरफ़ पहुंचे। वहाँ पहुंच कर आस-पास मौजूद अन्य स्थलों के विषय में जानकारी ली तो पता चला कि समीप ही लगभग 8 किलोमीटर उतेलिया पैलेस है। वहाँ पर खाने की व्यवस्था भी हो जाएगी। उतेलिया पैलेस के रास्ते में खाली जमीन पर हमें नमक जमा नजर आता है। यह स्थान गुजरात के नक्शे में समुद्र के किनारे है। अगर गुजरात के मैप मे देखे तो हमें एक पतली सी धार दिखाई देती है। यह समुद्र इस धारा के रुप में लोथल के समीप पहुंच जाता है। हमें उतेलीया पैलेस देखने की प्रबल इच्छा हो रही थी। लोथल देखने की बरसों की इच्छा पूरी कर हम उतेलिया पैलेस की ओर बढ रहे थे …………<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_26.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-80304056790211094622012-04-23T16:40:00.000+05:302012-04-23T16:40:09.270+05:30लोथल (લોથલ) : हड़प्पा कालीन नगर -- भाग 1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html">प्रारंभ से पढें</a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-xrgfijmIO34/TxkXz43JzFI/AAAAAAAAFW0/ckoXp8hjO38/s1600/lalit.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="249" src="http://1.bp.blogspot.com/-xrgfijmIO34/TxkXz43JzFI/AAAAAAAAFW0/ckoXp8hjO38/s320/lalit.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लोथल के प्रवेश द्वार पर विनोद गुप्ता जी और लेखक</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;">प्रा</span>थमिक पाठशाला में पढते थे तो एक पाठ <b>सिंधुघाटी की सभ्यता</b> पर था। पाठ के आलेख में <b>मोहन जोदड़ो</b> एवं <b>हड़प्पा</b>, से प्राप्त खिलौने में चक्के वाली चिड़िया, मुहर और पुरुष का रेखा चित्र भी था। साथ ही उस समय के लोगों के रहन-सहन, नगर विन्यास के विषय में भी बताया गया। <b>लोथल</b> <b>(લોથલ)</b> का जिक्र भी हड़प्पा कालीन सभ्यता के साथ ही होता है, तब से मेरा मन इन स्थानों को देखने का था। मोहन जोदरो तो पाकिस्तान में चला गया। <b>लोथल</b> <b>(લોથલ)</b> भारत में मिला। आज समय आ गया था प्राचीन इतिहास से रुबरु होने का। सुबह से ही मन में उत्साह था। जाने को तैयार हो चुका था। पराठे और छाछ का प्रात:राश ले कर चल पड़े। विनोद गुप्ता जी को घर से लिए और साथ ही कुशवाहा जी भी थे। लगभग साढे नौ बजे लोथल के लिए चल पड़े। किसी भी पुरास्थल की जानकारी के लिए वहाँ पर उपस्थित व्यक्ति ही आपकी सहायता कर सकता है, अन्यथा सभी स्थल एक जैसे ही हैं। हम डेढ घंटे में लोथल के गेट तक पहुंच चुके थे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-V7wS7xfCh_E/TxkYu7CxQHI/AAAAAAAAFW8/QagVpJnFC1s/s1600/Image6724.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-V7wS7xfCh_E/TxkYu7CxQHI/AAAAAAAAFW8/QagVpJnFC1s/s320/Image6724.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">चिरचिरा (अपामार्ग)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">जनसुविधा के लिए रुकने पर घास में एक पौधा दिखाई दिया। इसे हमारे यहाँ स्थानीय भाषा में "चिरचिरा" और आयुर्वेद की भाषा में "अपामार्ग" कहते हैं। यह पौधा बड़े काम का है, अब इस पर नजर पड़ गयी तो चर्चा करते चलें। इस पौधे के कांटो वाले फ़ल को कूटने के बाद कोदो के दाने जैसे दाने निकलते हैं। इन 50 ग्राम दानों की खीर बनाकर खाने के बाद सप्ताह भर तक भूख प्यास नहीं लगती, शौच और लघु शंका भी नहीं होती। इसका प्रयोग हठयोगी करते हैं या नवरात्र पर शरीर पर नौ दिन तक जंवारा उगाने वाले भक्त भी। कहते हैं कि इसकी जड़ को किसी प्रसूता स्त्री की कमर में प्रसव के वक्त बांध दिया जाए तो प्रसव बिना किसी दर्द के निर्विघ्न हो जाता है। प्रसवोपरांत इस जड़ को तुरंत ही खोलना पड़ना है, अन्यथा नुकसान होने की भी आशंका रहती है, इसलिए इसका उपयोग किसी कुशल वैद्य की देख रेख में ही होना चाहिए। वरना लेने के देने भी पड़ सकते हैं। कुछ और भी जड़ी-बूटियाँ दिखाई दी पर हमें तो लोथल का स्थल देखना था, इसलिए बोर्ड के पास से पैदल ही आगे बढ लिए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-nf2UO_bRBHw/TxkZnPvDX0I/AAAAAAAAFXE/ZaMZEve7IUU/s1600/DSC00909.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-nf2UO_bRBHw/TxkZnPvDX0I/AAAAAAAAFXE/ZaMZEve7IUU/s320/DSC00909.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">संग्रहालय की वर्तमान स्थिति (नो साईन बोर्ड)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">इस स्थान के इर्द - गिर्द एक "रसोड़ा" (टीन शेड की रसोई) भी बना हुआ है। पर्यटक इस स्थान पर अपना खाना बनाने का सामान साथ लाते हैं। यहाँ भ्रमण करने के बाद पिकनिक मनाकर चले जाते हैं। हम सामने दिख रही एक ईमारत की बाउंड्री तक पहुंचे तो वहां के गेट पर लिखा था "वाहनो का प्रवेश वर्जित है"। हमने वाहन बाहर ही लगा लिया। भीतर जाने पर पता चला कि यह पुरातत्व सर्वेक्षण का संग्रहालय है। इस ईमारत पर कहीं पर भी संग्रहालय होने का चिन्ह नहीं लगा है। कोई साईन बोर्ड नहीं, वहां मिले लोगों से पूछने पर उन्होने बताया कि यह संग्रहालय है। संग्रहालय के भीतर पहुंचने पर कुछ लोग बैठे दिखे, सामने टीवी पर लोथल की डाक्युमेंट्री फ़िल्म का प्रदर्शन हो रहा था। उनसे पूछने पर पता चला कि यह फ़िल्म सिर्फ़ अग्रेंजी और गुजराती में ही उपलब्ध है, अब हिन्दी भाषा गुजरातियों के लिए विदेशी भाषा हो गयी है तो हिन्दी में अब आगे मिलना संभव नहीं है। वहाँ पर 4 लोगों का स्टाफ़ दिखाई दिया। एक मकवाना जी थे उन्होने हमें संग्रहालय की सैर करवाई। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-t-GzEsofjTI/TxkaNPJ8MBI/AAAAAAAAFXM/-7dMobP8fVk/s1600/lalit-lothal.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="252" src="http://3.bp.blogspot.com/-t-GzEsofjTI/TxkaNPJ8MBI/AAAAAAAAFXM/-7dMobP8fVk/s320/lalit-lothal.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">ए एस आई कर्मचारी मकवाना एवं गुप्ता जी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">लोथल (લોથલ) से उत्खनन में प्राप्त वस्तुएं अद्भुत हैं, एक हिसाब से देखा जाए तो यह समृद्ध संग्रहालय है। इस संग्रहालय में बांयी तरफ़ उत्खनन से प्राप्त माला के मोती, टेराकोटा के गहने, मुद्रा, मुहर, सीप, तांबे और कांसे के औजार एवं वस्तुएं, हाथी दांत की बनी वस्तुएं एवं मिट्टी के बर्तन प्रदर्शित हैं तथा दूसरी तरफ़ जानवरों एवं मनुष्यों की छोटी मुर्तियाँ, चित्रित मिट्टी के बर्तन, तोलने का बांट, तथा कब्रिस्तान से प्राप्त मानव कंकाल की प्रतिकृति भी रखी हुई है। मकवाना ने बताया कि उत्खनन से प्राप्त लगभग 5 हजार वस्तुओं में से संग्रहालय में 800 वस्तुएं प्रदर्शित की गयी है। एक मृदा भांड पर मैने प्यासे कौवे द्वारा मटकी में कंकर डालते हुए अंकन देखा अर्थात प्यासे कौंवे की कहानी भी बहुत पुरानी है। पंचतंत्र की कथाओं में वर्णित चालाक लोमड़ी की कहानी भी रेखांकन द्वारा प्रदर्शित की गयी है। मृतकों के साथ रखे जाने वाला सामान भी संग्रहालय में रखा है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-l1OMYZdtMm0/TxkbVJzYEzI/AAAAAAAAFXU/newu_qCE180/s1600/Image7205.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-l1OMYZdtMm0/TxkbVJzYEzI/AAAAAAAAFXU/newu_qCE180/s320/Image7205.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">प्राचीन खेल, आप प्रांत के हिसाब से नाम देने में स्वतंत्र हैं</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हाथी दांत की कलम, तीर के फ़लक, सोने के हार, एव एक स्थान पर मिले मनके इतने बारीक हैं कि उन्हे देखने के लिए पावर कांच का उपयोग किया गया है। सूई से लेकर चौपड़ तक यहां मौजूद है, बचपन में हम तीरी-पासा नामक खेल खेला करते थे, फ़र्श पर लाईन खींच कर। कौड़ी नहीं मिलती थी तो ईमली के बीज को फ़ोड़ कर दो हिस्सों में करने के बाद उसके पाँच हिस्से लेकर पासे में उपयोग करते थे। एक पट पासे का मान 5 होता था और चित पासे का मान एक। फ़िर इसी मान से सभी अपनी गोटियाँ चलते थे। लोथल एक व्यापारिक नगर होने के कारण यहाँ समय बिताने के लिए लोग इस खेल का ही प्रयोग करते थे। यहाँ मिले टेराकोटा के चौपड़ से पता चलता है। तब से लेकर आज तक यह खेल जारी है। इससे जाहिर होता है कि तीरी-पासा या चौपड़ का खेल बहुत प्राचीन है। आज हमारे यहाँ ग्रामीण अंचलों में यह खेल खेला जाता है। पशु चराने वाले चरवाहे कहीं पर भी लाईन खींच कर जंगल में उपलब्ध सामग्री से इस खेल को खेलकर मनोरंजन कर लेते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-n6QSRXxYNJI/TxkbtCPkWwI/AAAAAAAAFXc/Wa0svR7hTX0/s1600/Image6729.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-n6QSRXxYNJI/TxkbtCPkWwI/AAAAAAAAFXc/Wa0svR7hTX0/s320/Image6729.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">उत्खनन में प्राप्त कंकालों की प्रतिकृति</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">संग्रहालय मध्य में लोथल के उत्खनित स्थल का एक माडल बना कर रखा गया है। हम माडल के द्वारा उत्खनित नगर की जानकारी ले सकते हैं। साथ ही मुद्राओ एवं मुहरों का प्रदर्शन किया गया है। सभी व्यापारियों का अपना पृथक व्यापार चिन्ह हुआ करता था। जिसे मुहर कहते थे, आज हम मुहर का प्रयोग करते हैं, किसी अधिकारी के पदनाम की मुहर की मान्यता है। अधिकारी को बदलते रहते हैं पर मुहर नहीं बदलती। उसी तरह व्यापारी अपने माल और हुंडी इत्यादि पर मुहर का प्रयोग करते थे। एक साबुत मृदा पात्र दिखाई दिया जिसमें बहुत सारे छेद बने हुए थे। यह पात्र रोशनी के लिए उपयोग में लाया जाता रहा होगा। पात्र के भीतर दिया रखने पर पुष्कल प्रकाश प्राप्त हो सकता है। कुछ कुल्हाड़ियाँ भी दिखाई दीं। उतखनन से प्राप्त पुरावस्तुओं से जाहिर होता है कि जब इस नगर का विनाश हुआ होगा तब यहाँ सभ्यता अपनी चरम सीमा पर होगी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-WNk3VZLWZGM/TxkcGLJHnkI/AAAAAAAAFXk/_RBusU6JkyM/s1600/Image6725.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-WNk3VZLWZGM/TxkcGLJHnkI/AAAAAAAAFXk/_RBusU6JkyM/s320/Image6725.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुद्राएं एवं मुद्रांक (मुहर)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">सीप का दिकसूचक यंत्र भी यहाँ से उत्खनन में प्राप्त हुआ है। मानव के लिए भ्रमण के दौरान दिशा जानना भी आवश्यक था। अगर सूरज दिखाई नहीं दे रहा है दिशाओं का भान नहीं होता। ऐसी दशा में दिशाओं को जानने के लिए चुम्बक की आवश्यकता होती है। चुम्बक ही उत्तर-दक्षिण दिशाएं बताता है। इसके लिए हम लोहे की सुई का प्रयोग कर सकते हैं। पीपल जैसे वृक्ष का हल्का पत्ता, थाली या कटोरे जैसे बर्तन एवं एक लोहे की सुई। हम सुई को ऊनी कपड़े या सिर के बालों से रगड़ कर आवेशित करने के पश्चात पत्ते पर रख कर पानी में डाल दें तो वह हमें उत्तर दक्षिण दिशा बताता है। प्राचीन काल में दिशा जानने के लिए इसी तरह के यंत्रों का उपयोग किया जाता था और आवश्यकता पड़ने पर आज भी किया जा सकता है। इन सब पुरावस्तुओं के प्राप्त होने से ज्ञात होता है कि हमारी सभ्यता पृथ्वी की अन्य सभ्यताओं से पीछे नहीं थी। वरन आगे ही चल रही थी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-J7t5NnVpSc8/TxkcjFAdFjI/AAAAAAAAFXs/gvH2J-sf2qc/s1600/Image6726.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-J7t5NnVpSc8/TxkcjFAdFjI/AAAAAAAAFXs/gvH2J-sf2qc/s320/Image6726.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">उत्खनन स्थल का माडल</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">लोथल के उत्खनन स्थल पर जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी जानकार आदमी की जरुरत थी। मैने प्रवीण मिश्रा जी को फ़ोन लगाया तो वे दिल्ली में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के 150 वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित कार्यक्रम में थे। कुछ देर बाद उन्होने फ़ोन लगा कर जानकारी दी। लेकिन जिनके बारे में जानकारी दी वे वहाँ उपस्थित नही थे। हमारे आग्रह करने पर मकवाना ने कहा कि विकुल नाम का एक लड़का वहां पर काम कर रहा है मैं उसे फ़ोन लगा देता हूँ। विनोद भाई चाय पीने की इच्छा जाहिर कर रहे थे पर संग्रहालय में चाय का कोई इंतजाम नहीं था। न ही आस पास कोई चाय की दूकान। पूछने पर बताया कि चाय की दूकान यहाँ से 4 किलोमीटर दूरी पर मिलेगी। हमने चाय पीने के ईरादे को त्याग देना ही उचित समझा, पर्यटक एवं पुरातत्व प्रेमियों को सलाह है कि यहाँ चाय नाश्ता इत्यादि साथ लाएं। संग्रहालय में लोथल से संबंधित जानकारी देने वाली कुछ किताबें उपलब्ध हैं जो क्रय की जा सकती है। विनोद भाई ने दो-तीन किताबें ली और उत्खनित स्थल की ओर चल पड़े। ---- <a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_25.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-54067188413921693262012-04-23T16:34:00.002+05:302012-04-23T16:34:56.244+05:30साबरमती, चरखा और ट्रैफ़िक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html">प्रारंभ से पढें</a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-bnHFjsbMKto/Txgp7ldjzII/AAAAAAAAFWE/0wHV-ClGniE/s1600/Image6665.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-bnHFjsbMKto/Txgp7ldjzII/AAAAAAAAFWE/0wHV-ClGniE/s320/Image6665.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;">सु</span>बह उठा, तो देखा कबूतर अकेला था। प्रेम चोपड़ा के डर से कबूतरी नहीं आई। आज नामदेव जी की वापसी थी, वापसी की टिकिट हम दोनों की साथ ही थी पर मुझे तो अभी और घुमना था। सुबह कार्यक्रम बना कि साबरमती आश्रम चला जाए फ़िर वहीं से नामदेव जी को भोजन करवा कर ट्रेनारुढ कर दिया जाए। बचपन में गीत सूना था "साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल, दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल।" तब से साबरमती का नाम बस सुना था देखा नहीं था। अहमदाबाद पहुंच कर साबरमती के पार पहुंच कर आश्रम भी देखना था। नाश्ता करके हमने नामदेव जी का बैग गाड़ी में लाद लिया और साबरमती आश्रम पहुंच गए। आश्रम में बच्चों की पेंटिग प्रतियोगिता चल रही थी। भीड़ भाड़ ठीक ही थी। साबरमती का किनारे प्रवेश द्वार के बाद प्रदर्शनी है। जहाँ गाधीं जी से संबंधित सामान रखे हैं। पुस्तकालय के साथ ही पुस्तक विक्रय केन्द्र भी है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-Du9_xj9Ynmk/TxgqbMAkyLI/AAAAAAAAFWM/yNySIzSnwSo/s1600/Image6685.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-Du9_xj9Ynmk/TxgqbMAkyLI/AAAAAAAAFWM/yNySIzSnwSo/s320/Image6685.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">हमें प्रदर्शनी देखने में ही एक घंटा लग गया। काफ़ी बड़ी जगह है। कुछ चित्र लिए प्रदर्शनी में। पुस्तक विक्रय केन्द्र से कुछ पुस्तके भी खरीदी। उसके बाद साबरमती के किनारे पर जाकर चित्र लिए। साबरमती अब बदल गयी है। गांधी जी के समय में एवं वर्तमान में काफ़ी अंतर आ गया है। चारों तरफ़ आश्रम को मकानों ने घेर रखा है। नदी भी प्रदूषित हो रही है। नदी के साथ ही एक कारीडोर भी बन रहा है। आगे चल कर हम गांधी जी के आवास तक पहुंचते हैं। वहाँ गाधी जी का चरखा रखा है। भीतर प्रवेश करने पर कस्तुरबा का कमरा दिखाई दिया। वहां चूना पोताई हो रही थी। गांधी जी के जीवन परिचय एक बोर्ड लिखा हुआ है। उनके जीवन की समस्त घटनाएं तिथिवार सूचना फ़लक पर दर्ज हैं। उनके घर में रखे चरखे को हमने भी चलाया। कुछ महीनों पहले अमिताभ बच्चन ने भी चलाया था। हम क्यों कसर छोड़े, जब साबरमती पहुंच ही गए तो चरखा भी चलाया। पहले तकली से स्कूलों में रुई काती जाती थी। जिसकी कताई महीन होती थी उसे ईनाम भी मिलता था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-OWjYAuMiTxA/TxgrqnpCf4I/AAAAAAAAFWU/pGCAJ1EGC_g/s1600/Image6674.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-OWjYAuMiTxA/TxgrqnpCf4I/AAAAAAAAFWU/pGCAJ1EGC_g/s320/Image6674.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">चरखा देख कर फ़्लेशबैक में चला गया। वर्तमान में मूल्य आधारित शिक्षा पद्धति गायब होती जा रही है। गुरुजी जब से सर हुए हैं तब से शिष्य भी सरसरा कर निकल जाते हैं। हमारे कालेज के समय के एक गुरुजी हमें यदा-कदा मिलते रहते हैं। कॉलेज के बाद उनसे मेरी मुलाकात लगभग 27 साल बाद हुई होगी। दोहरे चरित्र का वह व्यक्ति मुझे पसंद ही नहीं था और आज भी पसंद नहीं है, गुरु तो वह होता है जो शिष्य प्रतिभा को मांज कर उसे किसी काबिल बनाता है। वर्तमान में सिर्फ़ कलदार ही चाहिए। चाहे शिष्य चोरी करके लाए या डकैती डाल कर। कुछ तथाकथित लोगों का एक मात्र उद्देश्य बड़ी कुर्सी की चापलुसी करना और छोटी कुर्सी को दबाना एवं प्रताड़ित करना। मूल्य सब गायब हो गए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-8Xwi28yc72g/TxgstIKTkHI/AAAAAAAAFWc/u1iduOT_leM/s1600/Image6681.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-8Xwi28yc72g/TxgstIKTkHI/AAAAAAAAFWc/u1iduOT_leM/s320/Image6681.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">आज से 40 साल पहले जो शिक्षा गुरुजी देते थे वह अभी तक मानस पटल पर स्थाई है। जो हमने उस समय पढा वो अभी तक याद है। जब भी बड़े गुरुजी मिलते थे तो श्रद्धा से सिर चरणों में झुक जाता था। लेकिन आज मूल्य बदल चुके हैं। एक हाथ दे और एक हाथ ले। ऐसी स्थिति में श्रद्धा का जन्म लेना मुश्किल है। मैं भी कहाँ इस जमाने मे मूल्य ढूंढ रहा हूँ बेवकूफ़ी की हद हैं, शायद साबरमती आश्रम जी धरती पर आकर मुझे अनायास ही सोचने पर मजबूर होना पड़ा। न चाहते हुए भी फ़्लेशबैक में चला गया। अब आगे बढा जाए, नामदेव जी की ट्रेन का समय भी हो रहा है, उन्हे भोजन करवा कर ट्रेनारुढ करना है। हम खानपुर में दोपहर का भोजन विनोद भाई के साथ करके नामदेव जी को स्टेशन छोड़ने पहुंच जाते हैं। अहमदाबाद के टैफ़िक में गाड़ी चलाना बहुत मुश्किल है। फ़िर भी हम आधे घंटे में स्टेशन पहुंचते है तो नामदेव जी की ट्रेन प्लेट फ़ार्म पर आ चुकी थी। उन्हे ट्रेन में बैठाकर हम वापस खानपुर पहुंचते हैं। और शाम को अपने गेस्ट हाऊस में।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-4YkX_WzMpXE/TxgtJbKzkYI/AAAAAAAAFWk/pWFwY7ZqtzQ/s1600/Image6718.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-4YkX_WzMpXE/TxgtJbKzkYI/AAAAAAAAFWk/pWFwY7ZqtzQ/s320/Image6718.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">आज अकेला हूं गेस्ट हाऊस में, नामदेव जी घर की ओर चल पड़े हैं। टीवी देखना का मन नहीं। जिस दिन से अहमदाबाद आया हूँ उस दिन से ही इसके ट्रैफ़िक के चक्कर में फ़ंसा हुआ हूँ। मै तो सोचता था कि हमारे रायपुर के लोगों को ही टैफ़िक की सेंस नहीं है। लेकिन यहाँ आकर मेरी धारणा बदल गई। अहमदाबाद से तो लाख दर्जे अच्छा रायपुर का ट्रैफ़िक है। लोग लाल बत्ती और हरी बत्ती का मतलब समझते हैं। साईड लेना और साईड देना जानते हैं। हमारे ट्रैफ़िक पुलिस चालान बुक लेकर चौराहे पर मुस्तैद रहती है। भले ही वह फ़ालतु चालान काट दे कोई बात नहीं। अहमदाबाद में इस मामले में राम राज्य है। कोई किधर से भी आए, कहीं से भी जाए। लाल बत्ती हो या हरी, इससे कोई मतलब नहीं। चौक में चारों तरफ़ से घुस जाते हैं। सभी को जल्दी है जाने की। लेकिन जल्दी कोई नहीं पहुंच पाता। चौक में चारों तरफ़ से घुस के जाम लगा देते हैं। सिपाही खैनी चबाते देखते रहता है। जैसे भी चलो तुम्हारी मर्जी, सब छूट है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-tsU3L5vfM9w/Txgt0GwUErI/AAAAAAAAFWs/5GQUg87n0_A/s1600/Image6716.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-tsU3L5vfM9w/Txgt0GwUErI/AAAAAAAAFWs/5GQUg87n0_A/s320/Image6716.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">मैट्रो की तर्ज पर यहाँ स्पीड बस सेवा चलती है। जिसकी अलग लाईन सड़क बीचों बीच बना रखी है। सिर्फ़ इसके निकलने के लिए चौराहों पर ट्रैफ़िक पुलिस तैनात है। जब यह बस चौराहे को पार करने वाली होती है, तभी चारों तरफ़ का ट्रैफ़िक बंद कर दिया जाता है। अगर कोई बीच में घुसेगा तो नमस्ते हो जाएगा। इससे दुर्घटना भी कई बार होती हैं, लोगों की जान भी जाती हैं। रायपुर से जाकर कोई अहमदाबाद में गाड़ी चलाना चाहे तो दिन भर में पचासों बार भिड़ जाएगा। अगर कोई भिड़ भी जाता है तो एक, बे, त्रोण से आगे नहीं जाता। मामला वहीं शांत हो जाता है। दोनो आगे बढ लेते हैं। मैने इस ट्रैफ़िक में गाड़ी चलाने की सोची भी नहीं। फ़िर कभी आऊंगा तो देखेगें अहमदाबाद के भी ट्रैफ़िक में गाड़ी चला कर। तभी महाराज का फ़ोन आता है मेहसाणा से-"काली आजा महाराज, दबा दे गाड़ी इही डहर"- कहता हूँ अगर समय रहा तो जरुर आऊंगा। दाल-भात खाने। रात घनी हो चुकी, कबुतर अपने ठिकाने पर बैठा है, बोलती बंद हैं। हम भी सुबह मिलते हैं लोथल में, ............ जारी है………<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/1.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-69504129619276200162012-04-23T16:33:00.002+05:302012-04-23T16:33:29.553+05:30फ़ेसबुकिया कबूतरी की गुड मार्निंग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html">प्रारंभ से पढें</a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-ubOAv2e22Jg/TxgBeXtkTJI/AAAAAAAAFVU/t4AgdqRuFK0/s1600/Image6719.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-ubOAv2e22Jg/TxgBeXtkTJI/AAAAAAAAFVU/t4AgdqRuFK0/s320/Image6719.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अहमदाबाद का सुबह का नजारा</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: #f3f3f3; color: red; font-size: large;">सु</span>बह साढे 5 बजे आँख खुली तो खिड़की से अंधेरा नजर आ रहा था। तब समझ आया कि यहाँ हमारे छत्तीसगढ की अपेक्षा दिन देर से निकलता है। खिड़की से नीचे झांक कर देखा तो स्ट्रीट लाईट जल रही थी। सुनसान सड़क शंहशाह की सवारी गुजरने का अहसास करा रही थी। अंधेरी रातों में सुनसान राहों पर................। खिड़की से झांक कर हमने फ़िर बिस्तर पकड़ लिया। 7 बजे उठे तो थोड़ा प्रकाश देखने मिला। हम भी खुश हुए कि सुबह हो गयी। केयर टेकर को चाय की घंटी मारी। नामदेव जी भी उठ गए, उन्हे ड्यूटी पर लगाया जिससे वे जल्दी स्नान ध्यान कर लें उसके बाद हम कर लेगें। हमें तो कहीं जाना नहीं था, आज दिन भर आराम का ही मुड था। थोड़ी देर में चाय आ गयी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-Ncjbwf5bgXo/TxgBuUC6J5I/AAAAAAAAFVc/Hvf3HZY12Xs/s1600/Image6715.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-Ncjbwf5bgXo/TxgBuUC6J5I/AAAAAAAAFVc/Hvf3HZY12Xs/s320/Image6715.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कबूतर और कबूतरी (दुर्लभ चित्र)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हम बिस्तर छोड कर सोफ़े पे डट गए, जैसे ही खिड़की की तरफ़ देखा तो कल वाला कबूतर एक कबूतरी पटा लाया था। चोंच लड़ा कर प्रात: कालीन फ़ेसबुकिया गुड मार्निंग कर रहा था। हमें थोड़ी ईर्ष्या हुई, काश! हम भी कबूतर होते तो लाला जी मुंडेर पर ही बैठे रहते। बने रहते <a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2010/07/blog-post_19.html">लोटन कबूतर</a>, लाला जी की दूकान भी चलते रहती और कबूतरी भी गुटरगूँ करते रहती। कौउनु फ़रक नहीं पड़ने वाला था। तभी प्रेम चोपड़ा की एन्ट्री हो जाती है, उसे देखते ही कबूतरी फ़ुर्रर्र हो गयी, कबूतर बैठा रहा वहीं छज्जे पर। कितना खौफ़ है न प्रेम चोपड़ा का? यह किरदार चराचर जगत के सभी प्राणियों में पाया जाता है। जैसे ललाईन के छज्जे के सामने बनवारी काका। दिन हो रात खिड़की खोले खांसता ही रहता है मुआ। चलो छोड़ो सुबह सुबह क्या झमेला ले बैठे। कबूतर जाने और कबूतरी जाने, हमे क्या लेना? हूँ ...........तो। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-OuAXkpbo2aM/TxgC5yxrvyI/AAAAAAAAFVk/GFq29T6BlbQ/s1600/Image6701.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-OuAXkpbo2aM/TxgC5yxrvyI/AAAAAAAAFVk/GFq29T6BlbQ/s320/Image6701.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">विनोद भाई</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">चाय समाप्ति पर कार्यक्रम बना कि नामदेव जी जाएगें दर्जी युवक-युवती परिचय सम्मेलन में और हम जाएगें विनोद भाई के घर पर। दोनो स्नानादि से निवृत्त होकर बीएसएनएल कालोनी पहुंचे, वहाँ रिदम एवं व्योम के साथ भाभी जी से भी मुलाकात हुई। चाय लेकर नामदेव जी युवक-युवती परिचय सम्मेलन मे चल दिए। हम और विनोद भाई गजल के काफ़िया मिलाने में लगे रहे। दिन भर बीत गया। नामदेव जी के पहुंचने पर शाम को कांकरिया तालाब घूमने निकले। अल्पना ने मुझे बताया कि अहमदाबाद में घूमने की एकमात्र जगह है। कांकरिया तालाब का निर्माण किसने कराया, क्यों कराया इसकी तो जानकारी नहीं ली। कांकरिया तालाब में प्रवेश करने के लिए 10 रुपए टिकिट लगती है। विनोद भाई ने अब्दुल कलाम जी जैसे लाईन में खड़े होकर टिकिट ली। हम लाईन के बाहर खड़े रहे, जब एक लाईन में लगा है दो क्यों लगे? दो लगने से भी टिकिट तो जल्दी मिलने से रही।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-4w8bYoKCUBs/TxgErkYYLRI/AAAAAAAAFVs/Z3AD4Wv9aUM/s1600/Image6708.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-4w8bYoKCUBs/TxgErkYYLRI/AAAAAAAAFVs/Z3AD4Wv9aUM/s320/Image6708.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">किसने मारी कंकरी कांकरिया तलाव में</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">कांकरिया तालाब काफ़ी बड़े इलाके में बना है। रात को तालाब के सब तरफ़ झमाझम रंगीन बल्बों का प्रकाश सुंदर दिखता है। हम पैदल ही निकल लिए तालाब के चक्कर लगाने के लिए। एक ने बताया की तालाब का पुरा चक्कर लगभग 4 किलोमीटर का है। तालाब का विकास एक पिकनिक स्थल की तरह किया गया। यहाँ गैस के बैलून से लेकर, टॉय ट्रेन एवं ओपन बसे भी हैं। जो पर्यटकों को तालाब का भ्रमण कराती हैं। गैस के गुब्बारे में चढकर आप अहमदाबाद का रात का नजारा देख सकते हैं। बताते हैं कि गुब्बारा फ़ूटने से कुछ लोग नीचे गिरकर उपर भी चले गए थे। तब इसे बंद कर दिया था। लेकिन अब गुब्बारे का सफ़र पुन: चालु है। तालाब के किनारे पर हनुमान जी का एक मंदिर भी दिखाई दिया। थोड़ी ही दूर पर शास्त्री जी भी खड़े थे। एक स्थान पर हल्का फ़ुल्का नाश्ता लिया और कांकरिया तालाब का हमारा चक्कर पूरा हो चुका था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-hEJLolt2n5o/TxgFEBG4P6I/AAAAAAAAFV0/MNdPsMnMGQ0/s1600/Image6713.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-hEJLolt2n5o/TxgFEBG4P6I/AAAAAAAAFV0/MNdPsMnMGQ0/s320/Image6713.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मैया रेल खिलौना लैइहौं -नामदेव जी </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">10 बज रहे थे, विनोद भाई ने कहा कि अब कहीं खाना खाने चलते हैं। संकल्प नाम के होटल में गए, वहां पहुंचने पर खाने के लिए लोग लाईन लगा कर बैठे थे। गजब मामला है, हम तो मुफ़्त की पंगत में इंतजार नहीं करते, काउंटर वाले ने हमे आधे घंटे का टाईम दिया। बाहर चेयर डाल रखी थी हम वहीं गपियाते बैठ गए। आधे घंटे बाद हमारा नम्बर आया, खाने का आडर दिया स्टीवर्ड को। सबसे पहले उसने एक धमेले जैसा फ़ाफ़ड़ा लाकर रखा। कहा कि होटल की तरफ़ से स्टाटर फ़्री है। भोजन लगते ही खाने लगे, तभी एक सब्जी में से बाल निकल आया। लम्बा बाल था, छोटा-मोटा होता तो पता ही नहीं चलता। मैनेजर को बुलाया, उसने माफ़ी मांगी लेकिन अब मुड किरकिरा हो चुका था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-tSJmeRKUhDs/TxgFjRLCa3I/AAAAAAAAFV8/TzT00dykikA/s1600/Image6714.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-tSJmeRKUhDs/TxgFjRLCa3I/AAAAAAAAFV8/TzT00dykikA/s320/Image6714.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">होटल संकल्प - ढूंढो अन्य विकल्प</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">विनोद भाई पहले बता रहे थे इस रेस्टोरेंट की अहमदाबाद में चैन है। हमारी सब्जी से चैन निकलती तो कोई बात थी, लेकिन निकला बाल और उसने मन का चैन खो दिया। आखिर में उसने आईसक्रीम दी। लेकिन बिल से सब्जी का चार्ज कम नहीं किया। इसलिए संकल्प की चैन के चक्कर में जाएं तो अपने रिस्क पर। यह एक ग्राहक का अनुभव है। दो बार बाहर भोजन किया, दोनो बार ही अनुभव सही नहीं रहा। इससे बढिया तो हमारे अमरू का ढाबा है, सब कूछ आँखों के सामने। भट्ठी, तवा, कड़ाही तेल, जो कुछ बन रहा है वह सामने है। आँखों के सामने बनवाओ और खाओ। एक ब्रिटिश सीरियल में और यू ट्यूब हाईजेनिक किचन के शेफ़ लोगों के विडियो देखने के बाद तो क्या मन करेगा इन हाईजैनिक फ़ुड वाले होटलों में। खाना अपने गेस्ट हाऊस के केयर टेकर का ही बढिया लगा। इसलिए अहमदाबाद जाने वाले संकल्प का विकल्प अभी से देख लें। संकल्प से सबक लेकर हम पहुंचे अपने गेस्ट हाऊस, आगे की कथा अगली पोस्ट में............<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_23.html">आगे पढें</a></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-25436510577207865762012-04-23T16:32:00.000+05:302012-04-23T16:32:10.091+05:30अक्षरधाम मंदिर और फ़ोटो की दूकान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div style="text-align: justify;"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-zREVZFVdynY/TxonRgPtTRI/AAAAAAAAFX0/hzivehmFCOQ/s1600/Image6628.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-zREVZFVdynY/TxonRgPtTRI/AAAAAAAAFX0/hzivehmFCOQ/s320/Image6628.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">स्वामी नारायण संप्रदाय द्वारा संचालित कॉले</td></tr>
</tbody></table><span style="color: red; font-size: large;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html"><span style="color: black; font-size: small;">प्रारंभ से पढें </span></a></span><br />
<span style="color: red; font-size: large;">गु</span>जरात की राजधानी गांधी नगर में प्रवेश करने पर कीकर के पेड ही दिखाई दिए। हमारा उद्धेश्य था स्वामी नारायण सम्प्रदाय के अक्षरधाम मंदिर को देखना। हम 4 बजे मंदिर के सामने थे। मंदिर पहुंचने पर जिग्नेश ने बताया कि मंदिर के भीतर कैमरा नहीं ले जाने देते। मैने सोचा, अपना मोबाईल तो है, उसने कहा कि मोबाईल ले जाना भी मना है। आप सारा सामान यहीं कार में छोड़ दिया। एक ब्लॉगर के लिए इससे अधिक दुखदाई क्या हो सकता है? हमने मन मसोस कर अक्षरधाम में प्रवेश करना मंजूर किया। मंदिर के प्रवेश द्वार पर पाईपों से भूल-भूलैया जैसे चक्कर बना दिया है। महिलाएं सीधे ही मेटल डिटेक्टर के द्वार में प्रवेश करती हैं और पुरुषों को 7 के भी 70 फ़ेरे लगाने पड़ते हैं तब कहीं जाकर मुख्य द्वार पर परणी परणाई स्वयं की ही बीवी मिलती हैं। मेटल डिटेक्टर के पास बेल्ट अंगुठियाँ, घड़ी आदि भी उतरवा दिए। ऐसी सुरक्षा जाँच पहली बार देखी थी। अच्छा हुआ जार्ज साहब के अमेरिका दौरे के दौरान हुई जैसी खाना तलाशी नहीं हुई।</div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-UTFo86_eICg/TxonphlhyCI/AAAAAAAAFX8/o2kvJtudVic/s1600/Image6630.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-UTFo86_eICg/TxonphlhyCI/AAAAAAAAFX8/o2kvJtudVic/s320/Image6630.jpg" width="320" /></a></div>तलाशी देने के बाद हम मंदिर की ओर चले। गेट के दायीं तरफ़ पुस्तक की दुकान थी। दोपहर का खाया रोटला असर दिखाने लगा था। पानी पी पीकर बुरा हाल था। प्यास बुझती नहीं थी और पेट खाली नहीं था। मुझे खाते वक्त ही शक हो गया था, लेकिन मजबूरी थी जो मिलावटी रोटले खा लिए। मंदिर के रास्ते में आगे बढे तो बांयी तरफ़ मनोरंजन के साधन के रुप में तरह-तरह झूले लगे हुए थे। लोग झूलते हुए चिचिया रहे थे और हम पेट पकड़े। मंदिर के भीतरी प्रवेश द्वार पर भी डंडाधिकारी मौजूद थे, वे निगाहों से एक्सरे कर रहे थे। उसके आगे एक फ़ोटोग्राफ़र का स्टाल लगा हुआ था। नामदेव जी ने उससे फ़ोटो का रेट पूछा तो 8x12 की साईज का 100 रुपए बताया। हमारे यहाँ इस साईज की फ़ोटो कलर लैब में 25 रुपए में बनती है। खुले आम लूट चल रही थी। मैने मना कर दिया कि मुझे कोई शौक नहीं है इस तरह की लूटमार में फ़ोटो खिंचाने का। नामदेव साहब नहीं माने, एक फ़ोटो खिंचवा ही ली खींच तान कर। नामदेव जी ने बताया कि फ़ोटो 6 बजे देगा।</div><div style="text-align: justify;"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-IlZrgTeeAS4/TxoogHTq-vI/AAAAAAAAFYE/x-w4BcBcUIo/s1600/Image6618.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-IlZrgTeeAS4/TxoogHTq-vI/AAAAAAAAFYE/x-w4BcBcUIo/s320/Image6618.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गुरुद्वारा</td></tr>
</tbody></table>हम मंदिर परिसर में पहुंचे, सामने ही भगवान स्वामीनारायण की स्वर्णमंडिंत बड़ी सी प्रतिमा लगी है। उसके बाद उनके साथी शिष्यों की, जिन्होने आगे चल कर पंथ को चलाया। दूसरी मंजिल पर उनके जीवन से जुड़ी वस्तुएं रखी हैं, जिनमें बैल गाड़ी से लेकर चमड़े की थैली, बर्तन, और उनका दांत भी। उनके दांत में दर्द होने पर एक सोनार से उन्होने दांत निकलवाया था। यह दांत सोनार के परिवारवालों ने संस्थान को भेंट किया। मंदिर वास्तु एवं शिल्प का उत्कृष्ट नमूना है। इसका विशाल स्वरुप मनमोहक है। हमने मंदिर चारों तरफ़ घूम कर देखा। बाहर से काफ़ी स्कूली बच्चे घूमने के लिए आए हुए थे। इस मंदिर में भी जूते चप्पल रखने की व्यवस्था दिल्ली के लोटस टैम्पल जैसी ही है। थैलियों में जूते चप्पल डाल कर दो और टोकन लो। दर्शन करके आने पर टोकन दिखाओ, जूते चप्पल पाओ। मंदिर घूम लिए, अब 6 बजने का इंतजार करने लगे।</div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-GkoWBUfNgqc/Txoo1f-Qr1I/AAAAAAAAFYM/tSZm3b7dkzw/s1600/Image6614.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-GkoWBUfNgqc/Txoo1f-Qr1I/AAAAAAAAFYM/tSZm3b7dkzw/s320/Image6614.jpg" width="320" /></a></div>मंदिर परिसर में लाईट एन्ड साऊंड शो दिखाया जाता है लेजर लाईट के साथ। उसकी टिकिट 150 रुपए बताई गयी। हमारे आने से पहले ही 2 शो की टिकिट बिक चुकी थी। हम चाह कर भी यह शो नहीं देख सके। जबकि विनोद गुप्ता जी ने विशेष तौर पर इस शो को देखने की सलाह दी थी। मंदिर परिसर में ही बैठ कर फ़ोटो आने का इंतजार करने लगे। गांधी नगर में ब्लॉगर ज्योत्सना पांडे एवं उनके पतिदेव नामदेव पांडे जी रहते हैं। लखनऊ से स्थानान्तरण होने की सूचना उन्होने मुझे दी थी और गुजरात आने पर मिलने का आग्रह किया था। ज्योत्सना जी को फ़ोन लगाने पर पता चला कि वे लखनऊ में हैं और नामदेव जी फ़ोन पर चर्चा हुई तो उन्होने मुंबई में होना बताया। गांधी नगर इनसे मुलाकात टल गयी। मगर हम अभी गांधीनगर से नहीं टले थे।</div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-f-nYCv4_shM/TxopIEhaFMI/AAAAAAAAFYU/MRSGtfj7o60/s1600/Image6626.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-f-nYCv4_shM/TxopIEhaFMI/AAAAAAAAFYU/MRSGtfj7o60/s320/Image6626.jpg" width="320" /></a></div>जैसे-तैसे घड़ी ने 6 बजाए, हम फ़ोटो वाले के पास पहुंचे तो उसने कहा कि फ़ोटो बनकर नहीं आई है। हमने कहा कि 6 तो बज गए हैं, तो उसने पर्ची मांगी उसमें साढे 6 लिखा था। गजब हो गया यार मंदिर मे भी चालबाजी। मैने थोड़ा डांटा तो दो चार लोग और आ गए उसकी सपोर्ट के लिए। तभी मेरी नजर उसके माथे पर पड़ी तो रोली का गोल टीका उसके माथे पर दिखाई दिया। उसके समर्थन करने वाले के माथे पर भी वही टीका था। तब समझ में आया कि माथे पर रोली का गोल टीका स्वामीनारायण संप्रदाय वाले अपनी पहचान के लिए लगाते हैं। वही मैं सोच रहा था कि इनके अनुयाईयों का कोई पहचान चिन्ह क्यों नहीं दिखाई दे रहा है। अगर मुझे मालूम होता कि चालबाजी की हरकत होगी तो मैं फ़ोटो लेने का अपना जुगाड़ भी साथ ले आता। कम से कम यादगार की तौर पर इनकी फ़ोटो तो ब्लॉग पर चिपक जाती।</div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><a href="http://1.bp.blogspot.com/-sICUAcMDzek/TxopxatTJ2I/AAAAAAAAFYc/4-RAyociCzU/s1600/Image6623.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-sICUAcMDzek/TxopxatTJ2I/AAAAAAAAFYc/4-RAyociCzU/s320/Image6623.jpg" width="320" /></a>चालबाजी की हद तो तब हो गयी जब हम साढे 6 बजे फ़ोटो के लिए पहुंचे। तो उसने कहा कि अभी साढे 6 नहीं बजे हैं। मैने अपनी घड़ी दिखाई तो उसने अपनी घड़ी दिखाई जिसमें सवा 6 बजे थे और कहने लगा कि मैं तो अपनी घड़ी के हिसाब से चलता हूँ। अब मेरा मन हो गया था कि इसका मुंह तोड़ दूँ, लेकिन नामदेव जी ने गुस्से को शांत कराने की कोशिश की। बोले और 15 मिनट सही, जब डेढ घंटा खराब कर लिया तो थोड़ा सब्र और कर लेते हैं। सब्र की ............ अगर यही समय मिलता तो हम गांधी नगर में और भी कहीं घूम लेते। इसने तो समय की वाट लगा के धर दी। एक लाल टीकिया सज्जन दिखाई दिए। मैने सोचा कि अब इनका दिमाग चाटे बिना काम नहीं चलेगा। अन्यथा ओव्हर फ़्लो के चक्कर में कई निपट जाएगें।</div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-pTjV9a1fpOw/TxoqCI7AmjI/AAAAAAAAFYk/JoSZf5PUChk/s1600/Image6619.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-pTjV9a1fpOw/TxoqCI7AmjI/AAAAAAAAFYk/JoSZf5PUChk/s320/Image6619.jpg" width="320" /></a></div>उनसे मैने अक्षर धाम पर हुए आतंकवादी हमले के विषय में पूछा। तो उन्होने बताया कि तीन आतंकवादी थे और दूसरे गेट तक गोली चलाते हुए आ गए थे। फ़िर वे लायब्रेरी की छत पर चढ गए। मंदिर में मौजूद लोगों ने सारी लाईटे बंद कर दी फ़िर सुरक्षा बलों ने उन्हे लाईब्रेरी से ही मार गिराया। इस हमले में सुरक्षा बलों की जांबाजी से सैकड़ों लोगों की जान बच गयी। एक सिपाही ने शब्द भेदी गोली चलाई तो पहला आतंकवादी मरा। मेरी उन सज्जन से बात चल रही थी, साथ में उनकी सुकन्या भी थोड़ा सा सहारा दे रही थी, मेरी जानकारी में इजाफ़ा हो रहा था। उसने बताया कि आतंकवादी हमले के सभी निशान यहाँ से मिटा दिए गए हैं। मंदिर परिसर में एक बहुत बड़ी लायब्रेरी भी है, जिसमें मंदिर प्रशासन की लिखित अनुमति के पश्चात प्रवेश मिलता है।</div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-n5WkiN0_AdI/TxoqWyrehJI/AAAAAAAAFYs/X95VvUzqU6g/s1600/Image6633.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-n5WkiN0_AdI/TxoqWyrehJI/AAAAAAAAFYs/X95VvUzqU6g/s320/Image6633.jpg" width="320" /></a></div>हमारे पास समय भी नहीं था लाईब्रेरी तक जाने के लिए। अब फ़ोटो लेने वालों भीड़ लगी थी। फ़ोटोग्राफ़र की घड़ी के हिसाब से समय चल रहा था। हमारी फ़ोटो सबसे अंतिम में मिली। फ़ोटो में भी थोड़ी कारीगरी की गयी थी फ़ोटो शाप से। लेकिन मेरे पास समय नहीं था अब और रुकने का। हम फ़ोटो लेकर सीधे बाहर भागे जैसे किसी कैद से छूटे हों। वैसे बिजली के प्रकाश में मंदिर की छटा निराली थी। हमें तो एक ही लाल टीके वाले ने भुगता दिया। दोपहर के रोटले ने पेट फ़ूला दिया था। उसे 5 घंटे से झेल रहा था। एक जगह गाड़ी रोककर रोटले को बस्ती क्रिया से बाहर किया। तब थोड़ी चैन की सांस आई। हमारे पास अब समय नहीं था कि गांधी नगर और घूमा जाए। दिन भर घूम फ़िर कर थक गए थे। अब बिस्तर ही नजर आ रहा था। खाने की भूख तो मिट गयी थी।</div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-yx9ypvOAXpw/Txoqo7i2ClI/AAAAAAAAFY0/G5uEnKIbo1s/s1600/Image7163.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-yx9ypvOAXpw/Txoqo7i2ClI/AAAAAAAAFY0/G5uEnKIbo1s/s320/Image7163.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पत्तों में घोंसला बनाते माटरा-चापड़ा</td></tr>
</tbody></table>अहमदाबाद पहुंचने पर एक जगह गोली वाला सोडा की दुकान दिख गयी। सड़क के किनारे फ़टाफ़ट सोडा निर्माण फ़ैक्टरी चल रही थी। वहीं गाड़ी किनारे लगाकर हमने सोडा पीया, तब जाकर थोड़ी तस्ल्ली हुई। मारुतिनंदन भोजन का उपसंहार यह निकला कि कभी भी काठियावाड़ी खाने में रोटला नइ खाने का, रोटली ही खाने का। नही तो मेरे जैसे भुगतना पड़ जाएगा। भले ही अपना बस्तर का<a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2012/01/blog-post_05.html"> चापड़ा-माटरा</a> खा लेने का। कांई वादो नथी, फ़रि काठियावाड़ी नइ जीमने का। सोडा ने पेट हल्का किया, दो चार डकार आने के पश्चात की आनंदाभूति अवर्णनीय है। रात 9 बजे हम अपने गेस्ट हाऊस में पहुंच चुके थे। कल घूमने की तैयारी रात नींद में की जाएगी, यह सोच कर शटर गिरा दिया।</div><div style="text-align: justify;"><b>(अक्षर धाम के चित्र नहीं होने के कारण अन्य चित्रों के साथ पोस्ट) ………<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_22.html"> आगे पढें</a></b></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-27892654008436517782012-04-23T16:30:00.002+05:302012-04-23T16:30:43.635+05:30अदभुत शिल्पकारी : रुड़ा बाई नी बाव -રુદ઼ા બાઈ ની બાવ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html">प्रारंभ से पढें</a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-07Wmv-_VH7k/TxfHgyMRNJI/AAAAAAAAFUU/VgYKS_c3TJ8/s1600/Image6631.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-07Wmv-_VH7k/TxfHgyMRNJI/AAAAAAAAFUU/VgYKS_c3TJ8/s320/Image6631.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अड़ालज का रास्</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">मारुतिनंदन रेस्टोरेंट से भोजन करके गांधीनगर मार्ग पर बढते हैं, इस मार्ग पर आगे चल कर बाएं हाथ को अड़ालज लिखा हुआ एक बोर्ड लगा है। हमारी गाड़ी यहीं से एक गोल चक्कर लेती है और अड़ालज की ओर बढ जाती है। बावड़ियाँ तो बहुत देखी हैं। लेकिन जिग्नेश ने बताया कि रुड़ा बाई नी बाव नामक यह बावड़ी कुछ खास हैं। खंडहरों में चक्कर काटने वाले मेरे जैसे आदमी को सुनकर ही अच्छा लगा। हमने तुरंत निर्णय ले लिया बाव देखने का। थोड़ी देर में अड़ालज से पहले दाएं हाथ की तरफ़ मुक्तिधाम दिखाई देता है। मुक्ति धाम गाँव में सही जगह पर था। अगर व्यक्ति को मुक्ति हमेशा याद रहे तो दुनिया चमन हो जाए, अमन हो जाए। लेकिन याद कहाँ रहता है, आदमी बड़ी जल्दी भूल जाता है। मुक्तिधाम से दाएं मुड़ने पर एक बड़ा चौक आता है, उसके चारों तरफ़ सब्जी वालों ने डेरा लगा रखा है। इसके दाएं तरफ़ एक लोहे का गेट नजर आता है। उसके दाएं तरफ़ रुड़ाबाई नी बाव की जानकारी देते हुए एक पत्थर लगा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-mP-MHdk1q6I/TxfIH32yVVI/AAAAAAAAFUc/kuk2Kiy1LeY/s1600/Image6636.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-mP-MHdk1q6I/TxfIH32yVVI/AAAAAAAAFUc/kuk2Kiy1LeY/s320/Image6636.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बाव में शिल्पकार</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हम गेट से बावड़ी में प्रवेश करते हैं वहाँ बाएं हाथ की तरफ़ एक मंदिर है और सीधे में बावड़ी का प्रवेश द्वार है। वावड़ी 5 मंजिली है और लगभग 100 से उपर सीढियाँ हैं नीचे उतरने के लिए। बावड़ी का प्रस्तर शिल्प अदभुत है। कारीगर ने बहुत ही बारीकी से छेनी हथौड़े का काम कर अंकन किया है। पहला स्टेप उतरने बाद दोनो तरफ़ सुंदर झरोखे बने हुए हैं। झरोखों पर बेल बूटे से लेकर हाथी, घोड़े, नर-नारी इत्यादि कुशलता से उकेरे गए हैं। हाथि्यों की तो पूरी फ़ौज ही है। बावड़ी को अंग्रेजी में स्टेप वेल कहा जाता है। मैने अन्य जगहों पर बावड़ियाँ देखी हैं पर इस बावड़ी की कला अद्भूत है। बावड़ी में नीचे उतरने पर अंतिम मंजिल पर जाली से ढंका हुआ एक कुंआ है। इस कुंए तक जाने नहीं दिया जाता। यह बावड़ी पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-YHNG0tiSqrQ/TxfImkJz48I/AAAAAAAAFUk/KnLLK-xMQc4/s1600/Image6646.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-YHNG0tiSqrQ/TxfImkJz48I/AAAAAAAAFUk/KnLLK-xMQc4/s320/Image6646.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सिक्का फ़ेंक तमाशा</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">कुछ लोग कुंड के पानी में सिक्के फ़ेंक रहे थे, फ़ेंका गया सिक्का पानी में सीधे डूबता नहीं था। कई देर तक वह पानी के उपर चक्कर काटता रहता था। हमने भी कई सिक्के फ़ेंक कर जायजा लिया। लगा कि पानी घनत्व अधिक होने के कारण सिक्का सीधे नहीं डूब रहा था। सिक्का कई देर तक कुंए में गोल चक्कर काटते हुए डूबता उतरता रहता और फ़िर पानी पर तैरने लगता। पानी पर सैकड़ों सिक्के तैर रहे थे। अन्य किसी कुंए में सिक्के फ़ेंकने के बाद पानी में डूब जाते हैं, लेकिन इस बावड़ी में सिक्के नहीं डूब रहे थे।अगर आप जाएं तो प्रयोग करके देख सकते हैं। बावड़ी के निर्माण में लाल सेंड स्टोन का प्रयोग किया गया है। शिला लेख में लिखा है कि पत्थर लाने के लिए जिन गाड़ियों का उपयोग किया गया था उनके तेल का खर्च एक लाख स्वर्ण मुद्राएं था। मुझे समझ नहीं आया कि 1550 में कौन से ऐसे वाहन चलते थे जिन्हे चलाने के लिए तेल का उपयोग किया जाता होगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-6VzLXQKupw8/TxfJCBaAA9I/AAAAAAAAFUs/vA-qYaPtmrY/s1600/Image6639.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-6VzLXQKupw8/TxfJCBaAA9I/AAAAAAAAFUs/vA-qYaPtmrY/s320/Image6639.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बावड़ी का सुंदर दृश्य, यहीं पर ब्राह्मी मे लिखा हुआ शिलालेख है</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">बावड़ी निर्माण के पीछे की कहानी यह है कि अड़ालज गाँव पाटण राज्य के अंतर्गत आता था। राजा वीर सिंह बाघेला ने वेबु राज्य के सामंत ठाकोर को लड़ाई में हराकर उसके राज्य पर कब्जा किया तथा उसकी रुपवती कन्या लाल बा के साथ शास्त्रोक्त पद्धति से विवाह रचाया। स्थानीय बोली में रुड़ा नेक काम करने वाले को कहा जाता है। लाल बा के प्रजा वत्सल होने के कारण प्रजा के प्रति उसका अपार स्नेह था। वह अपनी प्रजा का ख्याल रखती थी इसलिए उसे रुड़ा बाई कहा जाने लगा। 1550 में भयंकर अकाल पड़ा, राज्य में त्राहि-त्राहि मच गयी। इससे द्रवित होकर रानी लाल बा ने अपने खजाने से 5 लाख स्वर्ण मुद्राएं प्रजा की सहायता के लिए निकाली और बावड़ी का निर्माण करना तय किया। तब से यह बावड़ी रुड़ा बाई नी बाव के नाम से जानी जाती है। यह बावड़ी गुजरात की शिल्प धरोहरों के मुकुट मे चमकता हुआ एक हीरा है। शिल्प कला की एक धरोहर है। 5 माले की यह बावड़ी शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-UKtm6Z3WP00/TxfJeQUheBI/AAAAAAAAFU0/txRGEXKPoc8/s1600/Image6650.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-UKtm6Z3WP00/TxfJeQUheBI/AAAAAAAAFU0/txRGEXKPoc8/s320/Image6650.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बावड़ी से बाहर आते हुए नामदेव जी के साथ </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">कुछ समय बाद अहमदशाह ने वीरसिंह वाघेला को युद्ध में मार गिराया और उसके राज्य पर कब्जा कर लिया। लाल बा की सुंदरता के चर्चे उसने सुन रखे थे। लाल बा के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा। जब यह घटना घट रही थी तब बावड़ी का काम चालु था। इसका गुम्बद एंव तीन दरवाजे बनने बाकी थे। लाल बा ने चतुराई का सहारा लिया और अहमदशाह को संदेश दिया कि जब बावड़ी का कार्य पूरा हो जाएगा वह उसके साथ विवाह कर लेगी। शायद अहमदशाह ने लाल बा की बात नहीं मानकर जिद की होगी तब हार कर लाल बा ने अपना सतित्व बचाने के लिए बावड़ी की पांचवी मंजिल से कूद कर जल समाधि ले ली। रुड़ा बाई (लाल बा) के जान देने के पश्चात बावड़ी का काम अधुरा रह गया। अभी तक बावड़ी का गुम्बद एवं तीन दरवाजों का अधूरा पड़ा है। शिल्पकारों का अधूरा छोड़ा गया काम भी स्पष्ट दिखाई देता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-pHDnxfx_Xgg/TxfJzit2v0I/AAAAAAAAFU8/PLgz6IA-pG8/s1600/Image6652.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-pHDnxfx_Xgg/TxfJzit2v0I/AAAAAAAAFU8/PLgz6IA-pG8/s320/Image6652.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">हाथीयों की फ़ौज की मौज</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">सुंदर शिल्पकला युक्त निर्माणों के साथ शिल्पकारों की पीड़ा भी जुड़ी होती है। यहाँ भी वही हुआ जो अन्य जगहों पर सुनाई देता है। राजा ने उन शिल्पकारों को मार डाला जिन्होने ने बावड़ी का निर्माण किया था। इस तरह की बावड़ी का निर्माण अन्य स्थान पर न कर सके। निर्माण के पुरुस्कार स्वरुप शिल्पकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। मैने जहाँ भी निर्माण देखे हैं वहाँ पर बनाने वाले शिल्पकारों की कोई चर्चा ही नहीं होती। उनके नाम निशान नहीं होता। जिन्होने बनवाया है उनका ही नाम होता है। हाँ अपवाद स्वरुप आमेर के किले के शिल्पियों दिलावर सिंह और मोहन लाल का नाम किले के साथ जुड़ा है। रुड़ाबाई की बाव के शिल्पियों का भी कोई नाम नहीं निशान नहीं है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-C3Mj2oQuZeo/TxfKOMLqhQI/AAAAAAAAFVE/1vEu-u9xOe0/s1600/Image6655.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-C3Mj2oQuZeo/TxfKOMLqhQI/AAAAAAAAFVE/1vEu-u9xOe0/s320/Image6655.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">इतिहास के झरोखे में</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">इस बावड़ी में ब्राह्मी लिपि में एक शिलालेख है जिस पर रुड़ा बाई की बाव के निर्माण के विषय में लिखा है। मैं शिलालेख की तश्वीर लेना चाहता था। यह शिला लेख 4 थी मंजिल पर लगा है और उपर की सीढियाँ बंद होने के कारण नीचे से एक फ़िट के छज्जे से होकर उस तक पहुंचा जा सकता है। साथ की दीवाल पर कोई पकड़ नहीं होने के कारण दुर्घटना की आशंका भी थी। पुरातत्व सर्वेक्षण के चौकीदार ने बताया कि इस रास्ते से कुछ लो गिर कर प्राण गंवा बैठे हैं। इसलिए रास्ता बंद कर दिया है। मैने खतरा उठाना ठीक नहीं समझा। शिलालेख की फ़ोटो तो और कहीं भी मिल जाएगी। अगर किसी और ने फ़ोटो नहीं ली होती तो एक बार प्राण की बाजी लगाई जा सकती थी। बाव के उपरी हिस्से में लोहे के जाल लगा दिए गए हैं तथा एक बगीचा भी बना है। जहाँ लोग तफ़री करते दिखाई दिए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-Zi_rFv3oEYo/TxfKo8qaLDI/AAAAAAAAFVM/u2f8C3F118s/s1600/Image6657.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-Zi_rFv3oEYo/TxfKo8qaLDI/AAAAAAAAFVM/u2f8C3F118s/s320/Image6657.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बावड़ी के उपर का दृश्य</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">बाव की उपरी सतह पर रस्सी से पानी निकालने के लिए चकरी की व्यवस्था भी है। साथ ही गगरियाँ रखने के लिए खेळ का निर्माण भी किया गया है। हमने बाव को अच्छी तरह से देखा। अब समय हो गया था आगे बढने का। विदेशी पर्यटक भी दिखाई दे रहे थे, यह बाव गुजरात पर्यटन के नक्शे पर है। जिसके कारण जो भी पर्यटक आते हैं वे इस बाव को जरुर देखते हैं। अहमदाबाद के नजदीक होने के कारण यहाँ तक आने के लिए सभी तरह के साधन उपलब्ध हैं। अहमदाबाद से गांधी नगर के लिए शानदार सड़क जाती है। अगर यहाँ के लोगों का ट्रैफ़िक सेंसर सही काम करे तो यह दूरी बहुत ही कम समय में पूरी की जा सकती है। रुड़ाबाई की बाव देखना सुखद रहा। बाजार से होते हुए हम वापस गांधीनगर की ओर चल पड़े।………<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_21.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-10988129093715503052012-04-23T16:29:00.002+05:302012-04-23T16:29:58.728+05:30"हुं छुं अमदाबाद" હું છું અમદાબાદ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-q73DcN6YqOY/TxL1RTbi_JI/AAAAAAAAFS4/V9bHjR6cSRE/s1600/Image6608.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-q73DcN6YqOY/TxL1RTbi_JI/AAAAAAAAFS4/V9bHjR6cSRE/s320/Image6608.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_16.html">प्रारंभ से पढे </a><br />
चौधरी की चाय, चौधरी की चाय के शोर के साथ आँख खुली। आँख बंद किए किए ही चाय का आर्डर दिया। महाराज भी उठ चुके थे, उन्होने एक चाय मुझे थमाई और एक चाय खुद थामी। 5 रुपये में चाय उम्दा थी, लेकिन कप छोटा था, महाराज ने चाय वाले से दुबारा कप में चाय डलवाई तब उनकी इच्छा पुरी हुई। सूरत जा चुका था कब का, खिड़की से बाहर झांके तो मणिनगर था, मतलब अहमदाबाद करीब था। विनोद भाई का फ़ोन आया उन्होने लोकेशन ली, थोड़ी देर में ड्रायवर का भी फ़ोन आ गया। उसने कहा कि वीआईपी लेन में स्टेशन के सामने गाड़ी खड़ी है, सामने ही मिलुंगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-layg7IsjSjk/TxL1qs_XXJI/AAAAAAAAFTA/KPM3BS9lOtI/s1600/Image6604.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-layg7IsjSjk/TxL1qs_XXJI/AAAAAAAAFTA/KPM3BS9lOtI/s320/Image6604.jpg" width="320" /></a>मणिनगर से अहमदाबाद के बीच भी वही देखने मिला जो हर जगह रेल पटरी के किनारे देखने मिलता है सुबह-सुबह और सिर झुका कर आँखे बंद करनी पड़ती है। कोई नया दृश्य नहीं है, यह नजारा देखने के बाद मुझे अंग्रेजों को धन्यवाद देने का मन हो जाता है, वे होते तो उन्हे प्रशस्ति-पत्र भी देता। अगर उन्होने ने रेल की पटरी नही बिछाई होती तो लोग सुबह-शाम की निस्तारी के लिए कहाँ जाते? भारत में भाषाएं संस्कृति अलग-अलग है, लेकिन पटरियों के किनारे लोटा-डब्बा लेकर जाने वाले सभी एक वर्ग से ही आते हैं। बिना किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय के अपना काम निपटाते हैं, शायद यही एक काम है जो भारतीयों को एक सूत्र में बांधता है। कुछ दिनों बाद शायद इनकी अखिल भारतीय स्तर पर युनियन भी बन जाए। :)</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-EnxpKVAB8ww/TxL2b7r752I/AAAAAAAAFTQ/AN1q7Wsj08I/s1600/Image6752.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-EnxpKVAB8ww/TxL2b7r752I/AAAAAAAAFTQ/AN1q7Wsj08I/s320/Image6752.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">मणिनगर से अहमदाबाद के बीच ट्रेन ने काफ़ी समय ले लिया। डाऊन गाड़ी मान कर इसे पीट दिया गया और एक घंटे लेट हो गयी। एक चाय और पीकर खुमारी उतारने की कोशिश की। गाड़ी ने धीरे-धीरे चलकर स्टेशन तक पहुंचाया। प्लेट फ़ार्म की सीढियों पर चेकिंग चल रही थी, दो चार सिपहिया यात्रियों का बैग खुलवाने में लगे थे। हमें रोका नही, और हम रुके नहीं। स्टेशन से बाहर निकले तो गाड़ी लगी थी। ड्राईवर हाजिर था, लगभग 8 बज रहे थे। अहमदाबाद स्टेशन के बाहर निकलते ही, एक बहुत बड़ी होर्डिंग दिखाई दी। उसी गर्वीले अंदाज में जैसी लखनऊ स्टेशन के बाहर दिखाई दी थी। "हुं छुं अमदाबाद" लिखी हुई होर्डिंग सीना तान कर खड़ी थी। स्टेशन पर ट्रैफ़िक बहुत अधिक था। ड्राईवर जिग्नेश ने बताया कि सुबह और शाम स्टेशन के भीतर-बाहर जाना बहुत मुश्किल होता है। हमे अहमदाबाद ने ही बताया "हूँ छूँ अमदाबाद" । परिचय के बाद हम चल पड़े अपने ठिकाने पर, जिग्नेश से अहमदाबाद के रास्तों के बारे में पूछते हुए चलते हैं। वह में बीएसएनएल की 11 माले की ईमारत में ले जाता है। इस इमारत में 4 लिफ़्ट हैं, जिसमें 3 साधारण है और एक सुपरफ़ास्ट। कब 11 वीं मंजिल पर पहुंचती है पता ही नहीं चलता।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-qpODk1PrZhU/TxL8iOLNdgI/AAAAAAAAFTo/HZ_yLwUAByk/s1600/Image6609.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-qpODk1PrZhU/TxL8iOLNdgI/AAAAAAAAFTo/HZ_yLwUAByk/s320/Image6609.jpg" width="320" /></a><span id="goog_1117321869"></span><span id="goog_1117321870"></span>11 वीं मंजिल पर स्थित गेस्ट हाऊस में हमारा रुम था। रुम में पहुच कर चाय बुलाई, अटेंडेंट से गरम पानी का पता किया, उसने बताया कि गीजर चालु ही रहता है। मैने पहले नामदेव जी को स्नान करने कहा और मैंने रुम की खिड़की खोली, नीचे झांकते ही छत्तीसगढ दिखाई दिया। वाह भाई तू जहाँ तक चलेगा, मेरा साया साथ होगा वाली लाईन याद आ गयी। क्यों नहीं साथ होगा? जन्म भूमि और कर्म भूमि की बात तो यही होती है, मरते-जीते खींच कर ले ही जाती है जहाँ जन्म हुआ है। एक बिल्डिंग की छत पर छत्तीसगढ पर्यटन का प्रचार करती एक होर्डिंग दिख रही थी। जिसमें छत्तीसगढ आने का आमंत्रण था। वहीं खिड़की के सामने एक कबुतर भी बैठा था। उसकी गुटर गुँ जारी थी। जिग्नेश ने बताया था कि इस जगह का नाम सुंदरपुरा है, हमें स्नान करके सबसे पहले कांकरियाँ तालाब के पास एक विवाह घर में जाना था। जहाँ कुछ देरे नामदेव जी को दर्जी समाज के सम्मेलन में हाजिरी देनी थी। जिग्नेश को भी नहाने भेज दिया और उसे 10 बजे बुलाया। गेस्ट हाउस में केयर टेकर ने पोहा दही का नाश्ता कराया। लेकिन पोहा में मीठा डाल कर मजा किरकिरा कर दिया। खैर अन्न का अपमान करना मेरी फ़ितरत में नहीं, जो मिला खाया और आगे बढे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-Zo2WcsesPGA/TxL8wQHTJLI/AAAAAAAAFTw/d4Lb5LBSv5I/s1600/sanjay190.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-Zo2WcsesPGA/TxL8wQHTJLI/AAAAAAAAFTw/d4Lb5LBSv5I/s1600/sanjay190.jpg" /></a></div><div style="text-align: justify;">जिग्नेश आ चुका था, तभी मुझे याद आया कि अहमदाबाद में हमारे <a href="http://www.tarakash.com/">दिग्गज सीनियर ब्लॉगर</a> रहते हैं। उनका नम्बर मेरे दूसरे फ़ोन में था। पाबला जी को फ़ोन लगाया उनका नम्बर लेने के लिए। थोड़ी देर में पाबला जी ने नम्बर दिया, मैने उनसे बात की। बड़े खुश हुए भाई, मुझे भी अच्छा लगा। गेस्ट हाऊस से निकल कर सबसे पहला काम था ब्लॉगर मित्र से मिलना। जिसे हमने आभासी पढा था, देखा था, समझा था लेकिन रुबरु नहीं हुए थे। जिस तरह लोग दिन की शुरुआत मंदिर के भगवान के दर्शन से करते हैं, उसी तरह हम किसी भी शहर में जाने पर दिन की शुरुवात ब्लॉगर देव के दर्शन से करते हैं। बस यह देव-देवी कृपा बनी रहे। पता पूछते-पूछते हम उनके 5 वें माले के दफ़्तर में पहुच गए। वे गायब थे, थोड़ी देर में पहुंच गए, हमने छत्तीसगढ की राम कथा की एक प्रति भेंट की। यह हम उनके लिए विशेष तौर पर लाए थे। जब घर से चले थे तो बेगानी जी से मिलना याद था। लेकिन रास्ते में भूल गए। इसलिए पाबला जी से नम्बर लेना पड़ा। संजय भाई ने फ़टाफ़ट काफ़ी बना कर पिलाई, उनके दर्शन के पश्चात फ़िर मिलने का वादा कर विदा लेकर कांकरिया तालाब के जसवंत हॉल की ओर चल पड़े। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-yIt_wVD14V8/TxL9dyKMjvI/AAAAAAAAFT4/q9DSWHXbdms/s1600/Image6615.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-yIt_wVD14V8/TxL9dyKMjvI/AAAAAAAAFT4/q9DSWHXbdms/s320/Image6615.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">कांकरिया तालाब अहमदाबाद का मुख्य आकर्षण है, यहाँ शाम को काफ़ी रौनक रहती है लोग पिकनिक मनाने और तफ़री करने आते हैं। इसके सामने ही मिला जसवंत राय हॉल्। गुजराती दर्जी सम्मेलन चल रहा था, नामदेव जी भी जाति मोह में यहां तक पहुच गए थे। स्टेज पर रौनक लगी थी, स्वामीनारायण सम्प्रदाय के दो साधु अतिथि के तौर पर मंच पर विराजमान थे। हम भी पिछली कुर्सियों पर बैठ गए जाकर। जिनके निमंत्रण पर नामदेव जी पहुंचे थे उन्हे ही फ़ुरसत नहीं थी परघाने की। इसलिए हमने कहा था कि घर से ही परघे परघाए चलो। क्या भरोसा उनकी बोली आपकी समझ में न आए। उस सज्जन को बुलाकर मैने नामदेव जी के बारे में बताया तो वे उन्हे मंच पर ले गए और शाल श्री फ़ल से सम्मान किया। नामदेव जी भी बिरादरी में मिल गए। सभी ने उन्हे देखा और पहचाना। अब हमने ईशारा किया कि काम खत्म हो गया आज का, अब आगे बढा जाए। जिग्नेश को पूछने पर उसने बताया कि पहले रुड़ाबाई नी बाव में चलते है फ़िर वहीं से गांधीनगर का अक्षर धाम देख लेगें। ये आईडिया सही लगा, समय का सदुपयोग हो जाएगा। हम गांधीनगर की ओर चल पड़े। विनोद भाई ने फ़ोन पर भोजन की खैर खबर ली।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-kzI8BIja9ug/TxL-BXs5yEI/AAAAAAAAFUA/iBZy_UiLu1Q/s1600/Image6625.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-kzI8BIja9ug/TxL-BXs5yEI/AAAAAAAAFUA/iBZy_UiLu1Q/s320/Image6625.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">अहमदाबाद से गांधीनगर के रास्ते पर बहुत सारे ढाबे हैं, जिनके साईन बोर्ड पर "काठियावाड़ी-पंजाबी खाना" लिखा है। काठियावाड़ी खाने के साथ पंजाबी खाना भी मिलता है। मैं पहले भी गुजरात का पंजाबी खाना खा चुका था। वह भी गुजराती खाने जैसा ही था। मतलब गुजराती अगर पंजाबी बोलेगा तो वह भी गुजराती में बोलेगा। हा हा हा। एक ढाबा बढिया दिखाई दिया, झमाझम सजावट बडे बड़े साईन बोर्ड और गाड़ियों की भीड़। हमने यहीं भोजन के लिए गाड़ी रोकी और तय किया कि काठियावाड़ी भोजन ही करेंगे। ढाबे नुमा होटल का नाम मारुतिनंदन होटल था। वेटर ने मीनू कार्ड सामने लाकर रख दिया। उसमें मारुतिनंदन स्पेशल बहुत कुछ दिखाई दिया, पर समझ नहीं आया। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-geIjwXHfXvw/TxL_RzQT5jI/AAAAAAAAFUI/kQXXee_hWlU/s1600/Image6624.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-geIjwXHfXvw/TxL_RzQT5jI/AAAAAAAAFUI/kQXXee_hWlU/s320/Image6624.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">हमने काठियावाड़ी थाली का आर्डर दिया। मुझे छाछ की बारहों महीने जरुरत रहती है। इसलिए छाछ देख कर मन प्रसन्न हो गया। वेटर ने पूछा कि रोटली चाहिए की रोटला। मैने बाजरे की रोटी खाने के इरादे से रोटले का आडर दे दिया। जब रोटी आई और एक कौर खाया तो कुछ खटक गया। मुझे बाजरे के आटे में मिलावट लगी। खाने का मन नहीं किया, लेकिन खाना थाली में न छोड़ने के कारण दो रोटले खा ही लिए, छोटे छोटे थे। अब यही रोटले आगे की यात्रा में भारी पड़ने वाले थे, यह मुझे मालूम नहीं था। जिग्नेश और नामदेव जी ने रोटली ली वे सुखी रहे। भोजन करके हम रुड़ा बाई नी बाव की तरफ़ बढे........... क्रमश यात्रा जारी है..........<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_20.html">आगे पढें </a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-51976016919663747972012-04-23T16:28:00.002+05:302012-04-23T16:28:47.658+05:30चाबी वाला पत्थर और कस्तूरी की खुश्बू : गुजरात की ओर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-pHYa4_cSDZQ/TxGFToX7R_I/AAAAAAAAFRg/TlIFvM7B2Dg/s1600/Image6591.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-pHYa4_cSDZQ/TxGFToX7R_I/AAAAAAAAFRg/TlIFvM7B2Dg/s320/Image6591.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;">क</span>ई महीनों से गुजरात यात्रा करने विचार था लेकिन कोई न कोई अवरोध यात्रा में उत्पन्न होने के कारण जाना नहीं हो पा रहा था। पिछले 14 दिसम्बर को मित्र नामदेव जी ने गुजरात जाने की बात कही और मैं सहर्ष तैयार हो गया। अभी नवम्बर में ही हमने एक लम्बी यात्रा की थी, तब भी जाने का मन बना लिया। 15 तारीख को टिकिट ली, गुजरात जाने वाली सभी गाड़ियाँ फ़ुल पैक थी। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस कांड के बाद हावड़ा रुट से आने वाली सभी गाड़ियाँ रास्ते में रोक दी जाती हैं। जिससे वे 8 से 10 घंटे विलम्ब से चला करती हैं। रेल्वे की वेब साईट में इनका चलने का सही समय नहीं बताया जाता। जिसके कारण समस्या खड़ी हो जाती है। इसलिए हमने पुरी अहमदाबाद एक्सप्रेस से टिकिट ली। इस ट्रेन से जाने की सलाह एक जानकार मित्र ने दी। यही ट्रेन रायपुर से सही समय पर चलती है। स्लीपर में टिकिट लेने पर ईमरजेंसी कोटे से कन्फ़र्म होने की गारंटी रहती है। एक बार हमने एसी फ़र्स्ट की टिकिट लेकर स्लीपर में दिल्ली से रायपुर तक सफ़र किया और उसमें भी बैठने की जगह नहीं मिली। इसलिए तब से चेत गए और स्लीपर की टिकिट ही लेने लगे, क्योंकि स्लीपर की बोगियाँ अधिक होने के कारण टिकिट कन्फ़र्म होने की संभावना अधिक रहती है। 15 तारीख को पी एन आर ईमरजेंसी कोटे में लगाया और 16 को स्टेशन पहुंच गए। एक सीट कन्फ़र्म मिली, एक सीट का इंतजाम ट्रेन में ही कर लेगें, पता चला कि पुरी अहमदाबाद में रायपुर से सिर्फ़ एक ही बर्थ का कोटा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-xu2PrtBd62c/TxGHeDmwQ9I/AAAAAAAAFRo/__WQIHhoL4E/s1600/Image6593.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-xu2PrtBd62c/TxGHeDmwQ9I/AAAAAAAAFRo/__WQIHhoL4E/s320/Image6593.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">सुबह जल्दी उठकर अपना सामान लेकर रायपुर पहुंचें। बाईक <a href="http://www.ashokbajajcg.com/">अशोक भाई</a> के यहाँ छोड़ी और महेन्द्र ने स्टेशन पहुंचाया। रायपुर से जब ट्रेन में चढे तो भारी भीड़ का सामना करना पड़ा। हावड़ा रुट की ट्रेन लेट होने के कारण रायपुर से अहमदाबाद की सभी सवारियाँ इसी ट्रेन में जाना पसंद करती हैं। रायपुर स्टेशन में अब काफ़ी बदलाव हो रहे हैं। नई बिल्डिंग के साथ 1 नम्बर प्लेटफ़ार्म पर मॉल बनाने का काम भी जारी है। ट्रेन चलने पर नाश्ता करने की याद आई, नामदेव जी को दुर्ग से बैठना था। हमने थोड़ा सा नास्ता किया और अपनी दैनिक टेबलेट लेकर दुर्ग स्टेशन का इंतजार करने लगे। दुर्ग स्टेशन में नामदेव जी पहुंचे, उन्हे बोगी एवं सीट नम्बर बता दिया था। हर सीट पर दो-दो एक्स्ट्रा सवारी थी। हमारी सीट का भी वही हाल था। नामदेव जी ने बैग से गर्मा गर्म रोटी और सब्जी निकाली और कहा कि फ़टाफ़ट खा लो ठंडी हो जाएगीं। अंटी जी ने आपके लिए सुबह का नाश्ता भेजा है। हमने कुछ रोटियाँ गर्मागरम सब्जी के साथ खाई। साथ ही सहयात्रियों की बात सुनते रहे। एक गुज्जु जोड़ा चढा दुर्ग से उसकी भी एक ही बर्थ थी। बीबी बैठ गयी सीट पर मियां खड़ा रहा। ट्रेन चलने पर वह भी उसी सीट पर समाहित हो गया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-GMHz6xtwZZA/TxGH_0k-V5I/AAAAAAAAFRw/U1lMrIYr_40/s1600/keyston.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-GMHz6xtwZZA/TxGH_0k-V5I/AAAAAAAAFRw/U1lMrIYr_40/s320/keyston.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">की स्टोन याने चाबी वाला पत्थर</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">सुबह मैने जब मोबाईल देखा तो उसमें दो मेसेज थे, <a href="http://suryakantgupta256.blogspot.com/2011/12/blog-post_23.html">सुर्यकांत गुप्ता जी</a> ने पाय लागी लिख रखी थी। उन्हे फ़ोन करने पर पता चला कि वे नागपुर में ही हैं। हमने उन्हे गुजरात जाने की सूचना दी तो उन्होने नागपुर ट्रेन पहुंचने का समय पूछा। फ़िर <a href="http://sandhyakavyadhara.blogspot.com/2012/01/blog-post.html" id="" target="_blank">संध्या शर्मा</a> जी का फ़ोन आया, उन्होने कहा कि खाने में क्या लेगें। नो फ़ार्मेलिटी, मैने कहा कि खाने में तो बहुत कुछ साथ ही बांध रखा है। वे जिद पर अड़ी रही तो मैने चावल खाने की इच्छा जाहिर की। सामने साईड लोवर बर्थ पर एक सज्जन दुर्ग से ही चढे थे। हाव भाव से मिलेट्री या पैरा मिलेट्री फ़ोर्स से संबंधित लग रहे थे। सहयात्रियों को उनका प्रवचन जारी था। नामदेव जी पेशे से इंजीनियर हैं। उनके साथ पहले के निर्माणों की चर्चा हो रही थी कि कैसे मेहराब पर चाबी वाला पत्थर लगाया जाता था जिससे चाबी वाले पत्थर के कारण मेहराब के वजन पर पुरी इमारत खड़ी रहती थी। नामदेव जी कहने लगे कि अभी के इंजीनियर्स को पता भी नही कीस्टोन (चाबी वाला पत्थर) क्या होता है। तभी वाणगंगा पर अंग्रेजों का बनाया पुराना पुल आ गया, जिसमें कीस्टोन लगा था। हमने पुल देख कर कैमरा क्लिक किया और कीस्टोन हमारे कब्जे में था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-V8tsO1n0Gm4/TxGIiAx2iXI/AAAAAAAAFR4/JLWGk6PBrTs/s1600/Image6755.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-V8tsO1n0Gm4/TxGIiAx2iXI/AAAAAAAAFR4/JLWGk6PBrTs/s320/Image6755.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सूर्यकांत गुप्ता जी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">शनै शनै चलते हुए आस पास झोंपड़ पट्टियाँ नजर आने लगी, समझ गए कि नागपुर आने वाला है। रायपुर से आते समय नागपुर स्टेशन के पहले बाएं की तरफ़ एक बौद्ध विहार बना हुआ है। जिसमें बुद्ध की बहुत बड़ी प्रतिमा लगी है। यह दो निशानियाँ नागपुर पहुंचने की सूचना देती हैं। संध्या जी और सूर्यकांत गुप्ता जी का फ़ोन आ चुका था कि वे स्टेशन पर पहुंच चुके हैं। यहाँ ट्रेन के ठहराव मात्र 10 मिनट का है। इसलिए मैं पहले ही दरवाजे पर आ गया। ट्रेन रुकने पर दरवाजे उतरते ही सामने देखा तो संध्या जी सपति उपस्थित थीं। उनसे नमस्ते ही हुई थी इतनी देर में सूर्यकांत गुप्ता जी भी अपने साथी ठाकुर साहब के साथ पहुंच गए। उन्होने तुरंत एक पैकेट थमाया और कहा कि -"जुड़ के दवई हे, बिहनिया, मंझनिया अउ रतिया तीन खुराक लेबे।" मैने उन्हे धन्यवाद देकर पैकेट लिया। संध्या जी गर्मागरम पुलाव बना कर लाई थी। उनका पैकेट भी ग्रहण किया। शर्मा जी से मुलाकात अच्छी रही। कुछ बात कर पाते तब तक ट्रेन ने सीटी बजा दी। हमने मित्रों से विदा ली और सवार हो गए पुन: गाड़ी में। 2 बज रहे थे, चावल देखकर भूख लगने लगी। दो डिब्बों में गर्मागरम उम्दा पुलाव था, छोटा डिब्बा नामदेव जी ने संभाला और बड़ा डिब्बा हमने। फ़टाफ़ट सारा पुलाव चट कर गए। बड़ा ही लजीज खाना था। संध्या जी ने मीठे में सिर्फ़ दो ही लड्डू दिए थे। लगा कि खाने का बहुत ख्याल रखती हैं। उनका यह काम पसंद आया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-eYc1DdyJtZs/TxGJFqbdpHI/AAAAAAAAFSA/aP_lSGyQCL0/s1600/Image6606.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-eYc1DdyJtZs/TxGJFqbdpHI/AAAAAAAAFSA/aP_lSGyQCL0/s320/Image6606.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सहयात्री </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">भोजन करने के पश्चात कुछ देर आराम करने की इच्छा हुई। नामदेव जी सोना चाहते थे, साईड अपर बर्थ खाली थी। हम खैनी घिसते हुए बर्थ पर बैठे फ़ौजी नुमा व्यक्ति के पास पहुंच गए, वे खाली बैठे थे। हमने खैनी ऑफ़र की और चर्चा शुरु हो गयी। नामदेव जी उपर की बर्थ पर सो गए। हमारी बर्थ पर और लोग एडजेस्ट हो गए। फ़ौजी नुमा व्यक्ति हमारे गांव के पास के शर्मा जी निकले। उनके घर से लेकर पुरी रिश्तेदारी तक की चर्चा हो गयी। वे मेहसाणा के ओएनजीसी प्लांट में सीआईएसएफ़ के मुलाजिम सिक्योरिटी ऑफ़िसर हैं। अब उनसे चर्चा होते रही। ट्रेन आगे बढती रही। उन्होने बताया कि सारे भारत का भ्रमण किया है, कहीं भी 4 साल से अधिक नौकरी नहीं की। 4 साल बाद ट्रांसफ़र हो ही जाता है। अभी मेहसाणा में पदस्थ हैं छत्तीसगढिया परम्परानुसार उन्होने चावल की बोरी साथ बांध रखी थी क्योंकि छत्तीसगढ जैसे चावल और कहीं नहीं मिलते। हमें तो यहीं के चावल पसंद है, अगर दिन में एक बार चावल खाने नहीं मिला तो दिन खराब हो जाता है और दो बार मिल गया तो समझो पौ बारह। इसीलिए हमने संध्या जी से चावल खिलाने का आग्रह किया था। चावल के प्रति दीवानगी का यह आलम है कि एक बार श्रीमती जी ने चावल नहीं बनाए तो मैने होटल में जाकर खाए थे। अन्यथा अतृप्ति महसूस होते रहती, रात की नींद हराम हो जाती।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-qbyrguFfwbU/TxGJpyA2N1I/AAAAAAAAFSI/_Dc_ZzbOWos/s1600/Image6598.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-qbyrguFfwbU/TxGJpyA2N1I/AAAAAAAAFSI/_Dc_ZzbOWos/s320/Image6598.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कस्तुरी का थोक चलित विक्रय केन्द्र</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><a href="http://rhythmvyom.blogspot.com/">विनोद गुप्ता जी</a> का फ़ोन आ गया, उन्होने बताया कि गेस्ट हाऊस बुक कर दिया है और सुबह 7 बजे स्टेशन पर गाड़ी लेने पहुंच जाएगी। आराम से स्नान ध्यान करना फ़िर मिलते हैं। गाड़ी का नम्बर और ड्रायवर का फ़ोन एसएमएस करता हूँ। लो जी अहमदाबाद में सारी व्यवस्था हो चुकी थी। अब रात को चैन की नींद लेकर सुबह अहमदाबाद पहुंच जाएगें। इधर शाम हो चुकी थी। हमने और महाराज ने एक-एक चाय ली और नामदेव जी को जगाया। वे मस्त नींद में थे, समय का सार्थक उपयोग सोना ही है। सफ़र में जब मन करे सो जाओ, सफ़र कट जाएगा। तभी एक औरत बच्चे को गोदी में लटकाए, बड़ा सा गांधी झोला टांगे कस्तूरी बेच रही थी। महाराज के पूछने पर उसने 300 रुपए जोड़े में बेचना बताया। महाराज से हमारी बात छत्तीसगढी में चल रही थी। महाराज ने मुझसे कहा कि सौ रुपए में मांग के देखते हैं अगर दे दे तो। मैने कहा कि 50 में भी मागोंगे तो दे देगी। उससे अधिक मत बोलना। महाराज ने 50 रुपए जोड़ी कहे तो वह आगे बढ गयी। फ़िर वापस आकर 50 रुपए जोड़ी में ही कस्तूरी दे दी। मैने उसके बैग को पहले ही टटोल कर देख लिया था। उसमें लगभग 200 से अधिक कस्तूरी होगी। इससे विश्वास हो गया था कि नकली है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-JwL-mZRtfgQ/TxGKK8NGocI/AAAAAAAAFSQ/dL92cRV-E-I/s1600/Image6599.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-JwL-mZRtfgQ/TxGKK8NGocI/AAAAAAAAFSQ/dL92cRV-E-I/s320/Image6599.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">येल्लो जी भुसावल आ गया</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">वह कस्तूरी देकर चली गयी तो महाराज ने उसे हथेली पर रगड़ कर देखा तो उस पर लगा काला रंग निकलने लगा। एक कस्तूरी सफ़ेद रंग की थी और एक काले रंग की। खुश्बू तो अच्छी आ रही थी। कस्तूरी वाली ने कस्तूरी की पहचान करने का तरीका दिखाया था कि उसे हाथ की मुट्ठी में बांध कर हथेली की उल्टी तरफ़ से कहीं भी रगड़ने से उस स्थान पर खुश्बू आ जाती है। महाराज संतुष्ट थे 50 रुपए में दो कस्तूरी खरीद कर। भोजन का समय होने पर अब हमने साथ ही खाना खाया, छत्तीसगढी में कहते हैं "मार सगा सगा ला, अउ काट सगा सगा ला।" महाराज की खपुर्री रोटी मेरे काम आई और मेरे गोभी के पराठे जबरदस्ती महाराज को टिका दिए। अब 4 तरह की सब्जी और आम के मीठे मुरब्बे के साथ 3 तरह का आचार 2 तरह के लड्डू और साथ में केले। शाही भोजन हो गया। लड्डू मैने नहीं खाए, पर भोजनोपरांत केले का स्वाद जरुर लिया। रात बढती जा रही थी। भुसावल पहुंचने के बाद सुबह का इंतजार था, जब चौधरी की चाय के साथ नींद खुले। क्रमश..........<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_17.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-54307551484717000562012-04-23T16:26:00.002+05:302012-04-23T16:26:44.628+05:30बचा लो भगवान-बचा लो -- बस्तर यात्रा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-YE5iYe73Nkw/TwXQMMS7xkI/AAAAAAAAFL8/RuWb6piHLNI/s1600/Image6905.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-YE5iYe73Nkw/TwXQMMS7xkI/AAAAAAAAFL8/RuWb6piHLNI/s320/Image6905.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">ढोकरा कला कृतियाँ</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post.html">प्रारंभ से पढें</a></span><br />
<span style="color: red; font-size: large;">ज</span>यदेव जी के घर से निकले ही थे कि बहन का फ़ोन आ गया। उसने बताया कि खाना बनकर तैयार है विलंब न करें। दो शिल्प खरीदे गए थे, बिजली न होने के कारण उन पर पालिश नहीं हो पाई, जयदेव जी के पुत्र ने पालिश के लिए बिजली आने का इंतजार करने कहा। तब तक हमने भोजन करना ही जरुरी समझा। बहन के घर पहुंचे, वह बेताबी से इंतजार कर रही थी। बहनोई मनोज जी भी मधुप रस लाकर तैयार थे। उन्हे दो दिन पहले ही आर्डर कर दिया था। थोड़ा स्वाद चख कर भोजन किया। कोण्डागाँव में हरिहर वैष्णव जी रहते हैं। इन्होने हल्बी भाषा पर बहुत काम किया है। अभी बस्तर के परम्परागत संगीत पर कार्य कर रहे हैं। इनसे भी मिलना था, कर्ण जयदेव जी के यहां गया और मैं और मनोज जी, हरिहर वैष्णव जी के घर। इनका घर सरगी पाल मोहल्ले में है। मनोज जी को घर का पता था इसलिए सीधे इनके घर ही पहुंच गए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-jDZnMQqCrsA/TwXRJ-Qm8CI/AAAAAAAAFMU/E3zf0B9dYsk/s1600/harihar+vaishnav.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="298" src="http://3.bp.blogspot.com/-jDZnMQqCrsA/TwXRJ-Qm8CI/AAAAAAAAFMU/E3zf0B9dYsk/s320/harihar+vaishnav.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">श्री हरिहर वैष्णव जी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">फ़ोन लगाने पर उनका बालक बाहर निकला। हमें बैठक में बिठाया, थोड़ी देर में हरिहर वैष्णव जी पटका पहने उपस्थित हो चुके थे। मेरी उनसे पहली भेंट थी। चलभाष पर चर्चा तो होते रहती है पर रुबरु अभी ही हुए। इन्होने 12 किताबें बस्तर पर लिखी हैं, और विदेशी शोध कर्ता इनके सम्पर्क में रहते थे। मैने इन्हे "मोहनी" को लेकर फ़ोन किया था। अगर कोई मोहनी बनाने वाला मिले तो उसके विषय में कुछ सत्यान्वेषण किया जाए। मोहनी के विषय में चर्चा करने वे ठठा कर हँस पड़ते हैं। बोले कि - एक व्यक्ति मेरे साथ काम करता है। उसने पूछा किसके लिए बनाना है? तो मैने उसे टाल दिया। मैने कहा कि कभी समय मिला तो उनसे सम्पर्क करेगें। "मोहनी" के विषय में बचपन से सुनता आया हूँ लेकिन जिज्ञासा अभी तक शांत नहीं हुई है। अभी तक इसकी खोज में हूँ। कहीं उचित माध्यम मिले तो बताऊंगा। छत्तीसगढी का गीत भी है "का तैं मोला मोहनी डार दिए गोंदा फ़ूल" और भी कई गीत मोहनी को लेकर रचे गए हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-BOY1o3yRTtI/TwXRz9duKDI/AAAAAAAAFMg/b6py8q0_kds/s1600/Image6856.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-BOY1o3yRTtI/TwXRz9duKDI/AAAAAAAAFMg/b6py8q0_kds/s320/Image6856.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दंतेवाड़ा मंदिर में फ़ोटो ग्राफ़र का कलर प्रिंटर</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">नेट के विषय में वैष्णव जी से चर्चा होती है कि वे अपने काम को ऑन लाईन करें, जिससे उनका काम दुनिया तक पहुंचे। वे कहते हैं कि - मैं वन विभाग में एकाऊंटेंट था, सेवानिवृति के 4 वर्ष पूर्व ही वी आर एस ले लिया। वी आर एस लेने का कारण यह था कि मेरे पास शोध कार्य के लिए समय कम है और काम अधिक है। नौकरी में रहते हुए इस कार्य को नहीं कर सकता था। इसलिए मुझे वी आर एस लेना पड़ा। उनके पास कम्पयुटर एवं नेट की सुविधा है, वे अपना लेखन कार्य कम्पयुटर पर ही करते हैं। छोटी सी मुलाकात के दौरान दो बार साथियों के फ़ोन आ जाते हैं कि अब चलना चाहिए। मैं उनसे इजाजत लेता हूँ तो वे चाय का आग्रह करते हैं। मैं चाय के लिए मना करता हूँ, लेकिन वे नहीं मानते। तो लाल चाय बनाने के लिए कहता हूँ। थोड़ी देर में लाल चाय बन कर आ जाती है। चाय पीकर हम उनसे विदा लेते हैं, वे आग्रह करते है दुबारा भेंट के लिए। हम चल पड़ते है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-JSrG-Xp_A-A/TwXSUcRLDfI/AAAAAAAAFMs/u9xKZ6hpBTY/s1600/Image6860.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-JSrG-Xp_A-A/TwXSUcRLDfI/AAAAAAAAFMs/u9xKZ6hpBTY/s320/Image6860.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">बहन के घर पर पहुंचकर देखता हूँ कि जाने की सब तैयारी हो चुकी है। बहन बार-बार मेरे दोहरे से इकहरे होने का राज जानना चाहती है। मैं कहता हूँ राज को राज ही रहने दो तो ठीक है। फ़िर आने का आश्वासन देकर वहाँ से चल पड़ते हैं। बारिश फ़िर शुरु हो चुकी है। चित्रकूट आते हुए भीगे होने के कारण हमने गाड़ी के काँच बंद कर लिए थे तो सांसों की भाप से विंड स्क्रीन के अंदर की तरफ़ भाप जम जाती थी। उसे लगातार साफ़ करना पड़ता था। हीटर चलाने पर और बढ जाती थी। आज हमने काँच खुले रखे, इससे विंड स्क्रीन पर भाप नहीं जमी। जगदपुर के रास्ते में कोण्डागाँव से केसकाल के बीच में कुछ वृक्ष सड़क के किनारे ही हैं। एक दम डामर रोड़ से सटे हुए। मैने कई वृक्षों पर दुर्घटना के चिन्ह देखे। अगर आपने अपनी लैन थोड़ी सी भी छोड़ी तो इन वृक्षों से टकरा कर दुर्घटना ग्रस्त हो सकते हैं। मैने इस मार्ग पर पेड़ों से टकरा कर कई गाड़ियाँ दुर्घटना ग्रस्त होते देखी है। इस रास्ते पर गाड़ी संभाल के ही ड्राईव करनी पड़ती है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-gNSePOxBbLs/TwXSuzKBzSI/AAAAAAAAFM4/MIAzHfVyrq4/s1600/Image6868.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-gNSePOxBbLs/TwXSuzKBzSI/AAAAAAAAFM4/MIAzHfVyrq4/s320/Image6868.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">पुन: केसकाल घाट पहुंचते है, बादलों और बारिश के कारण दिन ढलने का पता ही नहीं चल रहा। धीरे-धीरे घाट से गाड़ी उतारते हैं। कर्ण को बताते जा रहा हूँ कैसे चलना है और घाट पर गाड़ी कैसे उतारना है। घाट पार करके हम कांकेर पहुंचते है, फ़िर वही बायपास पकड़ लेते है। शहर के बीच नहीं जाना पड़ता। पिछली बार जब बरसात के समय कांकेर आया था तो नदी के पुल पर भीड़ लगी थी। देखने के लिए रुका तो नदी में अठखेलियाँ करता एक बड़ा अजगर साँप दिखाई दिया। इतना बड़ा अजगर मैने अपनी आँखों से नहीं देखा था। वह कभी नदी के इस किनारे पर जाता कभी उस किनारे पर। थोड़ी देर बाद मैं आगे बढ लिया। लेकिन दूसरे दिन नई दुनिया समाचार पत्र में उसकी फ़ोटो और समाचार छपा था। वन विभाग वालों ने बड़ी मशक्कत से उसे पकड़ा था। कांकेर से आगे माकड़ी ढाबे में पुन: खीर खाने की योजना बन जाती है। लेकिन मैं खीर की बजाए सिर्फ़ चाय ही लेता हूं। क्योंकि मेरी भी जासूसी हो रही है <a href="http://www.blogger.com/profile/10029621653320138925">जासूसों</a> द्वारा। मीठा नहीं खाना चाहिए। चाहे हमारे जासूस रोज हलवा खाएं चोरी छुपे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-y8xOHuWNuX4/TwXTcioNVzI/AAAAAAAAFNE/RKNJeHZwsVg/s1600/Image6816.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-y8xOHuWNuX4/TwXTcioNVzI/AAAAAAAAFNE/RKNJeHZwsVg/s320/Image6816.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">श्री एवं श्रीमती विनोद चौहान</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">कांकेर से चारामा के आगे छोटा सा घाट पड़ता है। अंधेरा हो चुका था, गाड़ी की लाईटें रोशन कर ली गयी। मैं मोनु से ब्लूटूथ पर कुछ फ़ोटुंए मांग रहा था। सुबह से कर्ण ही गाड़ी चला रहा था। उसके पापा मम्मी पीछे बैठे थे और मैं उसकी बगल में सामने। चाराम घाट का मुझे ध्यान नहीं रहा। जगदलपुर से घाट शुरु होते ही घाट के पहले मोड़ को चौड़ा कर दिया गया है और उसके बीच में सीमेंट के ब्लॉक रख कर डिवाईडर बना दिया गया। अचानक गाड़ी डिवाईडर पर चढते दिखाई देती है। पीछे से मोनु की आवाज आती है "बचा लो भगवान, बचा लो भगवान।" गाड़ी डिवाईडर पर चढ गयी लेकिन थोड़ी देर में संभलने के बाद एक जगह के निकले हुए ब्लॉक से फ़िर रास्ते पर आ गयी। कर्ण के होश गुम हो चुके थे। गाड़ी साईड में रुकवा कर मैने टार्च से गाड़ी के नीचे देखा। सामने से चेचिस तगड़ी रगड़ खा गया था। दाहिने तरफ़ की लाईट बंद हो गयी थी। अभी पता न था कि गाड़ी चलने की स्थिति में है या नहीं। थोड़ी देर गाड़ी को अच्छे से देखा, तभी छोटे भाई का फ़ोन आया। उसने हाल चाल पूछा और कहा कि -मैने सोचा आप गाड़ी ड्राईव कर रहे होगें इसलिए फ़ोन नहीं किया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 0px; margin-right: 0px; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-yDXj8DmbZsI/TwXUJW0ZxBI/AAAAAAAAFNQ/zo9q5h0EOJU/s1600/Image6941.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="http://3.bp.blogspot.com/-yDXj8DmbZsI/TwXUJW0ZxBI/AAAAAAAAFNQ/zo9q5h0EOJU/s400/Image6941.jpg" width="150" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">उदय नयी यूनिफ़ार्म में</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">अब चौहान जी ने गाड़ी संभाली, धीरे-धीरे गाड़ी चलाते हुए बातें शुरु हो गयी। चौहान जी एक बात अपने बेटे से कही - दुर्घटनाएं सीख देती हैं। अब तुम बिना कहे की संभल कर चलोगे। सही है जब तक स्वयं गड्ढे में न गिरे तब तक गड्ढे का पता नहीं चलता। घर फ़ोन करके खाने की सूचना दी, हम लगभग 9 बजे घर पहुंचे। बच्चों को एक साल बाद देखते ही रौनक आ गयी। सभी को नव वर्ष की शुभकामनाएं दी, उदय ने पूछा कि उसकी स्कूल यूनिफ़ार्म सिली की नहीं? हा हा हा जिस दर्जी को उसकी यूनिफ़ार्म दी गयी है। लगता है वह एक साल में सिल कर लाएगा। मैने उसे आश्वासन दिया कि 2012 में पक्की सिल जाएगी। अभी तो तुम्हारे पास है ही काम चलाने के लिए। भोजनोपरांत चौहान जी का कारवां आगे बढ गया और बच्चों के साथ मशगुल हो गए। मैं सोच रहा था कि दर्जी के लिए कौन सा फ़ार्मुला फ़िट किया जाए जिससे वह उदय की स्कूल यूनिफ़ार्म सिल कर ले आए। आखिर कपड़े दिए 4 महीने हो गए, हद है भाई.................. </div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-27361823367995162132012-04-23T16:24:00.002+05:302012-04-23T16:24:48.270+05:30शिल्पगुरु डॉ जयदेव बघेल :- नाम ही काफ़ी है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div style="text-align: right;"></div><div style="text-align: justify;"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-eBXIa01_PSU/TwMrTm8AgVI/AAAAAAAAFK0/BqcCfcfs5ZM/s1600/020720111735.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="234" src="http://4.bp.blogspot.com/-eBXIa01_PSU/TwMrTm8AgVI/AAAAAAAAFK0/BqcCfcfs5ZM/s320/020720111735.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जयदेव बघेल जी के घर (चित्र राहुल सिह जी के सौजन्य से)</td></tr>
</tbody></table><span style="color: red; font-size: large;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post.html">प्रारंभ से पढें</a></span><br />
<span style="color: red; font-size: large;">ब</span>स्तर, भानपुरी से चल कर हम कोण्डा गाँव पहुंचते हैं, नाके के पास गाड़ी रोक कर एक पान वाले से जय देव बघेल जी का घर पूछते हैं। तो वह कहता है कि सीधे हाथ की तरफ़ जो रास्ता जा रहा है उस पर चले जाईए। उनके नाम का बोर्ड लगा है। हम रास्ते पर आगे बढते हैं, गली में दोनो तरफ़ टेराकोटा के बने हुए शिल्प रखे हुए दिखते हैं। एक बोर्ड दिखाई देता है जिस पर अंगेजी में Dr. Jaydev Baghel लिखा दिखाई देता है, साथ उन्हे प्राप्त सम्मान भी लिखे हैं। सीमेंट की चार दीवारी पर टेराकोटा एवं पत्थर से बनी विभिन्न आकृतियाँ लगी दिखाई देती हैं। घर देखने से ही लगता है कि यह किसी शिल्पकार का घर है। गाड़ी की आवाज सुनकर नीले रंग के पेंट से पुता हुआ परम्परागत छत्तीसगढी नौबेड़िया दरवाजा खुलता है और एक नवयुवक बाहर आता है, मैं कहता हूँ, जय देव बघेल जी से मिलना है। वह बैठक का दरवाजा खोलता है और हमें बैठने को कहता है। बरसात के कारण आंगन में कीचड़ हो गया। मैं भीतर बैठक में पहुंचता हूँ तो सामने की दीवाल पर उन्हे प्राप्त सम्मान पत्र लगे हैं। इंदिरा जी से लेकर बड़े बड़े नेताओं से सम्मान पाते उनके चित्र एवं 2003 में रविशंकर विश्वविद्यालय से डी लिट की मानद उपाधि प्राप्त करते हुए भी एक चित्र लगा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-wkYsXJqrlVY/TwMPeOoocUI/AAAAAAAAFJI/2lMfhTtDB2k/s1600/Image6903.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-wkYsXJqrlVY/TwMPeOoocUI/AAAAAAAAFJI/2lMfhTtDB2k/s320/Image6903.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">डॉ जयदेव बघेल जी के साथ लेखक</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">थोड़ी देर में भीतर से कुर्ता और धोती पहने एक वृद्ध आते हैं, उन्होने स्टीक का सहारा ले रखा है। पहचान जाता हूँ यही जयदेव बघेल जी हैं। राम राम जोहार के पश्चात स्नेह से मुझे अपने समीप बैठाते हैं और आने का कारण पूछते हैं। मैं कहता हूँ कि नए साल में आपसे मिलने लिखा था ईश्वर ने, इसलिए चला आया। अन्यथा सैकड़ों बार इस रास्ते से गुजरना हुआ लेकिन पहुंच नहीं पाया। सरल मृदू भाषी जयदेव जी को देख कर कोई नहीं कह सकता कि ये वही जयदेव बघेल हैं जिनके ढोकरा शिल्प का डंका पुरे विश्व में बजता है। वे मुझसे स्नेह के साथ चर्चा करते हैं। अपने पुत्र एवं नाती से परिचय करवाते हैं। पुत्र भी इनकी विरासत को आगे बढा रहा है। कुछ माह पहले साउथ अफ़्रीका में 3 माह तक शिल्प का प्रशिक्षण देकर आया है। सच में इनसे मिलना मुझे आल्हादित कर गया। उनका पुत्र सहयात्रियों को घड़वा शिल्प दिखाता है और मैं जयदेव जी के संस्मरण सुनने में व्यस्त हूँ। वे बताते जा रहे हैं और मैं सुनता जा रहा हूँ। उनका सारा जीवन योगी की तरह शिल्प साधना को समर्पित है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-0drukX7ReEc/TwMQdDcNkZI/AAAAAAAAFJU/fGB7M4ZZ8M0/s1600/Image6921.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-0drukX7ReEc/TwMQdDcNkZI/AAAAAAAAFJU/fGB7M4ZZ8M0/s320/Image6921.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">घर में लगे सम्मान पत्र</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">चर्चा करते हुए वे पुरानी यादों में खो जाते हैं, कहते हैं कि उनका परिवार अबुझमाड़िया है और हम गढवा जाति के हैं। पिताजी अबुझमाड़ से आकर इस जगह पर बसे थे। इस जगह को भेलवांपदर पारा कहते हैं यह पारा मेरे पिताजी ने ही बसाया है। हम परम्परागत शिल्पकार हैं। मेरे पिताजी और माता जी ढोकरा शिल्प के कार्य को करते थे। 1960 के सर्वे में मेरे पिताजी पूरे बस्तर जिले में वरिष्ठ शिल्पी थे। उसी समय बंगाल की प्रथम राज्यपाल पद्मजा नायडू ने पिताजी सम्मान किया और नेहरु जी को बताया कि घड़वा शिल्पी बस्तर में हैं। प्रख्यात मूर्ति शिल्पी मीरा मुखर्जी जर्मनी में शिल्प कला सीख रही थी। उसके बाद किसी के कहने से मेरे पिताजी के पास मूर्ति शिल्प सीखने आई। 1961 से 64 तक प्रत्येक वर्ष 2 महीना पिताजी के पास रहकर काम सीखती थी। फ़िर वह बड़ा काम करने लगी। 10-20 फ़िट की बड़ी मुर्तियाँ बनाने लगी।मोरारजी देसाई के समय 1977 में मुझे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तो मै पुरस्कार पाने वालों में सबसे कम उम्र का था, मेरी उम्र 24 साल थी, उस समय 40 से लेकर 80-85 साल के लोगों को ही सभी राज्यों में से चयन करके राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-MBfBgEyN18E/TwMRXzyKioI/AAAAAAAAFJg/DLFr7RSScrM/s1600/Image6906.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-MBfBgEyN18E/TwMRXzyKioI/AAAAAAAAFJg/DLFr7RSScrM/s320/Image6906.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुरिया मारिन (ढोकरा शिल्प)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">मैं युरोप में बहुत घुमा हूँ सबसे पहले 1977 में मास्को के शिल्पमेला में भारत सरकार ने भेजा। उस समय लता मंगेश्कर ने वहाँ रशिया नाईट में गाया था, वे हमारे ग्रुप में ही गयी थी। भारत से 4 लोगों को भेजा गया था। उनका संगीत का काम था इसलिए वे जल्दी आ गयी और मैं 3 महीना मास्को में रहा। क्योंकि मुझे अपना काम दिखाना था। उसके बाद से मैं यूरोप में बहुत रहा। लंदन में 4 बार चार-चार महीने तक रहा। ग्लास्गो स्कूल ऑफ़ आर्टस में 3 बार चार-चार महीने तक वहाँ के विद्यार्थियों को काम सीखाया। स्विटजरलैंड में 3 माह रहा। जर्मनी की हेडनवर्ग युनिर्वसिटी में 3 माह रहा। आस्ट्रेलिया के सिडनी, मेलबोर्न, केनबरा में 2 साल तक 2-2 महीना तक, इटली, पेरिस, नीदरलैंड,सिंगापुर, थाईलैंड आदि स्थानों पर लम्बे समय तक रहा। इसके पश्चात लांसएजिल्स में 4 महीने रहा। उस समय वहाँ कबीर बेदी रहते थे। वे मेरी प्रदर्शनी में भी आए। सब चित्र मेरे पास याददास्त के तौर पर हैं। बैठक को पक्का बनाऊंगा तब सब दीवालों पर वह चित्र लगाऊंगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-nJkpOht9rdA/TwMR8k_X3ZI/AAAAAAAAFJ4/d9mWyZLQb58/s1600/Image6907.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-nJkpOht9rdA/TwMR8k_X3ZI/AAAAAAAAFJ4/d9mWyZLQb58/s320/Image6907.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">शेर (ढोकरा शिल्प)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">जिस समय मैं लांसएंजिल्स में था उस समय ही रजनीश को अमेरिका से निकाला जा रहा था। वहां रजनीश ने रजनीशपुरम बसा रखा था और विनोद खन्ना वहीं मुझसे मिले थे। मेक्सिकों में 15 दिन रहा। सभी जगह काम के सिलसिले में ही गया। नीदरलैंड और इटली से आने के बाद डायबिटिज के कारण मेरा पैर कट गया। ये जयपुर वाला पैर लगाया हूँ। अब शुगर डाऊन हो जाती है। कभी 200 रहती है तो कभी 50-40 तक हो जाती है।जापान के ओसाका क्वेटो नारा में तीन बार दो-दो माह तक रहा। जापान की पुरानी राजधानी नारा है। वहाँ नदी के किनारे ढाई तीन हजार हिरण बैल-कुत्ता जैसे घुमते रहते थे। जो जापानी दोस्त हैं वो मेरे घर आकर ठहरते हैं। बहुत सारे विदेश मित्र आकर यहाँ काम सीखते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-wXIaXOLJbts/TwMSpFm53WI/AAAAAAAAFKE/U6bE-Xfrnfs/s1600/Image6908.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-wXIaXOLJbts/TwMSpFm53WI/AAAAAAAAFKE/U6bE-Xfrnfs/s320/Image6908.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">नंदी बैल (ढोकरा शिल्प)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">टोकियों के म्युजियम का नाम नेशनल शतग्या म्युजियम है। वहाँ म्युजियम में काम किया। मैं हर जगह ही म्यूजियम जाकर काम करता था। जब 1987 में स्विटजरलैंड के बाजल शहर के म्युजियम में गया तो वहां पर पिताजी के 35 काम रखे थे 87 के 50 साल पहले के। मैने जब उन्हे कहा कि यह मेरे पिताजी का काम है तो उन्हे विश्वास नहीं हुआ। वहाँ पर मेरे पिताजी की फ़ोटो भी लगी हुई है। जब मैने अपने पिताजी की एलबम रखी हुई फ़ोटो दिखाया तब उन्हे विश्वास हुआ। फ़िर वहाँ के बाजल टाईम्स में मेरे उपर जर्मनी भाषा में आर्टिकल लिखा गया। उसकी प्रति मेरे पास है। मेरे पिताजी द्वारा किया लगभग 75 साल पुराना काम बाजल के म्युजियम में रखा है। ब्रिटेन के एल्बर्ट म्युजियम में हमारे ढोकरा शिल्प का काम रखा हुआ है। उनका कहना है कि यह काम ढाई हजार साल पुराना है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-5agIfaIQg5c/TwMT9i__xsI/AAAAAAAAFKc/x6Kfl3JdMm0/s1600/Image6920.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-5agIfaIQg5c/TwMT9i__xsI/AAAAAAAAFKc/x6Kfl3JdMm0/s320/Image6920.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"> काम करते हुए एक पु्राना चित्र</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">म्युजियम ऑफ़ मेन्स ने मेरा एक साढे चार फ़िट का काम 2500 पौंड में खरीदा। लेकिन वह रुपया मुझे इसलिए नहीं मिला कि मैं उस काम को 5000 में गर्वमेंट को बेच चुका था। वह रुपया गर्वमेंट के खाते में गया। मै सरकार की ओर से गया था इसलिए उस पैसे पर मेरा हक भी नहीं बनता था। मैं इतनी जगह गया, कहीं भी गड़बड़ नहीं किया। अपने देश का नाम नहीं डुबाया, देश की बदनामी नहीं किया। देश का नाम ऊंचा ही करके आया। डांसिग फ़िगर सैकड़ों सालों से हमारे पूर्वज बनाते आ रहे हैं। मोहन जोदरो और हड़प्पा में भी ढोकरा शिल्प जैसा शिल्प ही मिला है। इससे जाहिर होता है कि ढोकरा शिल्प हमारी प्राचीन कला है। अखबारों में सिरपुर के विषय में पढता हूँ पता चला है कि वहाँ भी कुछ कांस्य शिल्प मिला है। मै एक बार वहाँ जाना चाहता हूँ। पैर कटने के कारण गाड़ी में ही जाना पड़ेगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-PW675IuMN1A/TwMS-nWCCgI/AAAAAAAAFKQ/r44ITSZY-tI/s1600/Image6919.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="220" src="http://4.bp.blogspot.com/-PW675IuMN1A/TwMS-nWCCgI/AAAAAAAAFKQ/r44ITSZY-tI/s320/Image6919.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पारम्परिक कारीगर</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">1982 में मैने एक आलेख ढोकरा शिल्प पर लिखा था। जिसका अंग्रेजी अनुवाद एक किताब में छपा है। टाटा पब्लिकेशन ने भी परम्पराग शिल्पकार नामक किताब में हम 4 शिल्पियों के विषय में प्रकाशन किया है। जिसमें सबसे पहले मेरे विषय में लिखा है फ़िर श्री काला हस्ती की कलम कारी के विषय में, बिहार की मधुबनी पेंटिंग के विषय में और एक लेख पॉटरी पर लिखा गया है। जिसका एक-एक लाख हम चारों को दिया था और बाकी पैसा हम लोगों ने चैरिटी में दे दिया। यह किताब 1500 रुपए की है। 1992 में माधवराव सिंधिया जी बुलवा कर यहीं शिल्पग्राम का उद्घाटन करवाया था। यहाँ सभी तरह के शिल्प लकड़ी, टेराकोटा, मैटल पत्थर, बुनकरी, पेंटिग, बांस शिल्प आदि 10 तरह के शिल्प कार्य का प्रशिक्षण दिया जाता था। फ़िर जितना भी शिल्प का कार्य था मैने उसे पूरे घर में लगा दिया। दूर से ही पता चल जाता है कि एक शिल्पकार का घर है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-iA9LNGZcfMg/TwMUxPMlgYI/AAAAAAAAFKo/rVpG4PwPhYA/s1600/Image6918.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-iA9LNGZcfMg/TwMUxPMlgYI/AAAAAAAAFKo/rVpG4PwPhYA/s320/Image6918.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">डॉ जयदेव बघेल जी के साथ लेखक</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">जयदेव बघेल जी से चर्चा के दौरान चाय के लिए कहते हैं और मै मना करता हूँ। मुझे अभी बहुत दूर जाना था। खपरैल की बैठक में कवेलु से पानी चूह रहा था। वे कहते हैं कि मेरे पिताजी की बनाई हुई निशानी है इसलिए तोड़कर बनाना नहीं चाहता। घर तो इसके पीछे बना लिया पर इसे ज्यों का त्यों ही रख दिया। इस साल इसे भी पक्का कर दुंगा। उनकी कार्यशाला भी देखता हूँ जहाँ पर ढलाई का कार्य किया जाता है। जीवन भर इतना बड़ा काम करने के बाद भी उन्हे घमंड रत्ती भर भी नहीं छू पाया। जब उनका पैर कटा तो स्थानीय सरकार के संस्कृति विभाग ने इलाज के लिए उनकी आर्थिक सहायता की। जयदेव बघेल जी जैसी हस्ती से मिलकर अच्छा लगा। वे मुझे छोड़ने गेट तक आते हैं और मेरा कारवां आगे बढ जाता है।---------- <a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_08.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-52227891202590759092012-04-23T16:22:00.002+05:302012-04-23T16:22:35.855+05:30नव वर्ष की वेला पर बाहें फ़ैलाए यामिनी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-ZuBxHI9Ugkk/TwKy8PAdSlI/AAAAAAAAFHE/A99TWzPqJiQ/s1600/chitrakut1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-ZuBxHI9Ugkk/TwKy8PAdSlI/AAAAAAAAFHE/A99TWzPqJiQ/s320/chitrakut1.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">चित्रकुट जलप्रपात रात का दृष्य (मेरे मोबाईल से)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post.html">प्रारंभ से पढें</a></span><br />
<span style="color: red; font-size: large;">ह</span>म अब चित्रकूट जाना चाहते थे, शाम के 5 बज रहे थे। हमारी मंजिल 66 किलोमीटर दूर थी। सपाटे से चल पड़े क्योंकि थोड़ी देर में अंधेरा होने को था। जगदलपुर से 6 किलोमीटर पहले अंकल की सीमेंट ब्लॉक फ़ैक्टरी है। गेट खुला देखकर भीतर प्रवेश कर गए। वे फ़ैक्टरी में ही मिल गए। चाय पीते हुए पौन घंटा बीत गया। वहाँ पता चला कि चित्रकूट जलप्रपात रात में भी देखा जा सकता है। वहाँ शासन ने बिजली की सुविधा कर रखी है। यह हमारे लिए अच्छा हुआ। नहीं तो सुबह उठकर जाना पड़ता। रात को जलप्रपात देखना अच्छा रहेगा। हमने चित्रकूट का रास्ता पकड़ लिया। बरसात लगातार जारी थी। हम कुछ भीगे हुए थे। इसी चित्रकूट रोड़ पर अली सा का घर भी है। रास्ते में देखने पर समझ नहीं आया। हम आगे बढते गए। एक जगह चित्रधारा प्रपात का बोर्ड भी लगा था। यह चित्रकूट से अलग झरना है। पर हमें तो चित्रकूट जाना था। चित्रकूट का असली नाम चित्रकोट है, पर चित्रकूट ही बोला जाता है। गांव में पहुंचने से पहले देखा कि बिजली की अच्छी रोशनी की गयी है। सड़क पर बत्तियाँ लगी हुई है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-bAEzyr23irk/TwKzMrX32HI/AAAAAAAAFHQ/nbORCtZAvyY/s1600/chitrakut.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-bAEzyr23irk/TwKzMrX32HI/AAAAAAAAFHQ/nbORCtZAvyY/s320/chitrakut.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">चित्रकुट जलप्रपात रात का दृष्य (मेरे मोबाईल से)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">रास्ता एक गेट के सामने जाकर खत्म होता है, गेट बंद था, इसलिए हमने दायीं तरफ़ एक मार्ग देखा तो उधर चल पड़े। यह रास्ता चित्रकूट के रिसोर्ट को जाता है। हम जल प्रपात की जगह रिसोर्ट में पहुंच गए। वहाँ पूछने पर जल प्रपात उस गेट के समीप ही बताया गया। हम वापस आए, बरसात जारी रही, सड़क पर ही गाड़ी लगाकर जलप्रपात देखने उतर गए। जल प्रपात के सामने एक बड़ी फ़ोकस लाईट लगी हुई है, जिसमें पर्याप्त रोशनी नहीं है। फ़िर भी नजारा बहुत अच्छा था। गरजरी हुई नदी खड्ड में गिर रही थी। दुधिया फ़ुहार खड्ड में छाई हुई थी। मैने अपने मोबाईल से 2 चित्र लिए। पर मोनु का हैंडी कैम काम नहीं कर पाया। उसका कहना था कि अगर जल्दी आते तो एक विडियो बन ही जाता। लेकिन समय हमारे पास इतना था। भाभी जी का कहना था अगर होट्ल से सामान साथ ले आते तो यहीं रिसोर्ट में रुक जाते और सुबह जलप्रपात देखकर वापस चले जाते। यहाँ रुकना अब संभव नहीं था। इसलिए हमें जगदलपुर ही वापस लौटना था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-i8URojb9INw/TwK06qb3mdI/AAAAAAAAFHc/plTlszbGMY0/s1600/c-6.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-i8URojb9INw/TwK06qb3mdI/AAAAAAAAFHc/plTlszbGMY0/s320/c-6.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">चित्रकूट जलप्रपात (राजतंत्र के सौजन्य से)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">चित्रकूट जल प्रपात को नियाग्रा प्रपात की संज्ञा दी गयी है। यहां इंद्रावती नदी 23 फ़िट की ऊंचाई से नीचे गिरती है और इसकी धुंध में बहुत ही सुंदर इंद्रधनुष बनता है। पर हम रात में पहुचे थे, इसलिए इंद्रधनुष दिखना संभव नही था, नदी अनवरत गर्जना कर रही थी। कुछ देर तक हम प्रपात के किनारे चट्टानों पर खड़े होकर उसका अदभूत रुप निहारते रहे। अधिक देर खड़े रहते तो बरसात में पूरे ही भीग जाते। वापस आते हुए जलप्रपात के किनारे एक जगह पर महादेव जी भी विराज मान हैं। बरसात के कारण पत्थरों पर फ़िसलन हो गयी थी इसलिए अधिक खतरा उठाना ठीक नहीं था। चित्रकूट जलप्रपात भारत में नियाग्रा के नाम से प्रसिद्ध हो चुका है। यहाँ स्वयं के वाहन एवं बस से आया जा सकता है। रुकने लिए रिसोर्ट की व्यवस्था है, हम चूक गए, लेकिन आप चूक न जाना। दुबारा आने पर यहीं रिसोर्ट में रुकने का कार्यक्रम जरुर बनाएगें। यहाँ पर एक हैलीपैड भी है जो सिर्फ़ सरकारी कार्यक्रमों में उपयोग में लाया जाता है। जलप्रपात दर्शन का आनंद लेकर हम जगलदलपुर चल दिए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-aGswmK7givM/TwK3Cpxn1kI/AAAAAAAAFIA/5c-yJUbEisw/s1600/Image6901.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-aGswmK7givM/TwK3Cpxn1kI/AAAAAAAAFIA/5c-yJUbEisw/s320/Image6901.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जगदलपुर महल में दंतेश्वरी मंदिर (रात का दृश्य)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हम जगदलपुर लगभग आठ बजे पहुंच चुके थे। रास्ते में मुझे एन्थ्रोपोलाजी म्युजियम दिखाई दिया। यह म्युजियम मोनु द्वारा गुगल पर सर्च होने पर दिखाई दिया। वह इसे देखना चाहती थी। लेकिन हमारे पहुंचने तक बंद हो चुका था। पिछली बार जब आया था तब ही इस म्युजियम में बिजली बंद थी और मैं देख नहीं पाया था। ध्यान आया कि यहीं पर आन्ध्रसमाजम का बालाजी मंदिर भी है। बालाजी मंदिर को यहाँ बहुत ढंग से बनाया गया है। शिल्पकारों ने दक्षिण शैली में मूर्तियाँ गढने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। हम बालाजी मंदिर में दर्शन करने पहुंचे। एन्थ्रोपोलाजी म्युजियम के आगे ही अली सा दौलत खाना है। इनको मंदिर दर्शन के लिए छोड़ कर अली सा से मिलने पहुंचे। अली सा से मिलकर अच्छा लगा। एक और अच्छी बात हैं उनमें किसी सी विषय में पूछने पर विस्तार से समझाते हैं कि आप भूल ही नहीं सकते। समयाभाव के कारण हम चाय पीकर वहाँ से विदा हुए। अली सा ने बताया कि उन्होने अपने मछली पालन टैंक के पानी को कुछ कम कर दिया है। उसमें मछलियाँ भी है काम की।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-TbaP6X88VD4/TwK3YTGZDKI/AAAAAAAAFIM/2JNOb-3UGu8/s1600/Image6899.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-TbaP6X88VD4/TwK3YTGZDKI/AAAAAAAAFIM/2JNOb-3UGu8/s320/Image6899.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दुधिया रोशनी में चमकता राजमहल</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">बालाजी मंदिर से आकर बाकी साथियों को साथ लेकर हम शहर में पहुचे। जगदलपुर में मुझे सारे चौक एक से ही दिखाई देते हैं। जब भी आता हूँ भटक जाता हूँ। अपना होटल ढुंढते हुए हम सीरासार चौक याने राजमहल के सामने पहुंच गए। राजमहल दुधिया प्रकाश में दूर से ही चमक रहा था। राजमहल के भीतर भी दंतेश्वरी माई का मंदिर है। नव वर्ष पर देवी दर्शन करने वालों की लाईन लगी थी। हम भी पहुचे दर्शन हेतू, पता चला कि महल का राजकक्ष बंद हो चुका है। उसे हम नहीं देख पाए। साढे नौ बज चुके थे। रेनबो में कल रात को खाए खाने का अनुभव ठीक नहीं था। तो हमने बाहर ही खाने का विचार किया। अली सा ने आकांक्षा होटल का पता दिया था। इस आकांक्षा होटल में 1990 में एक बार रुक चुका था। लेकिन मुझे तो नया साल सेलीब्रेट करना था। इसलिए मैने कहा कि मुझे अपने होटल तक छोड़ दो, फ़िर सारे आकांक्षा होटल में जाकर भोजन कर आओ।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-_I2THyE4Yx8/TwLAhmmkytI/AAAAAAAAFIY/5LU0JCF31ns/s1600/Image6775.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-_I2THyE4Yx8/TwLAhmmkytI/AAAAAAAAFIY/5LU0JCF31ns/s320/Image6775.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">ढलता सूरज अस्ताचल को</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">काऊंटर पर आते ही एक लम्बा आर्डर मार दिया और अपने रुम में पहुच गया। टीवी पर समाचार जारी थे, मित्रों के फ़ोन आने लगे। पता चला कि बरसात पुरे छत्तीसगढ में हो रही है। मैने सोचा था कि वन होने के कारण बस्तर में ही हो रही होगी। मेरा कयास गलत निकला। मंदरस के सिप के साथ नए वर्ष के आगमन का आनंद आने लगा। कुछ मित्रों को फ़ोन लगा कर नव वर्ष की शुभकामनाएं दी। कभी मित्रों के साथ नया साल मनाते थे, पिछले कुछ सालों में घर पर बच्चों के साथ मनाते हैं। घर फ़ोन लगाया तो पता चला कि भारी बरसात के कारण बिजली रुठ गयी है, केक यूँ ही पड़ा है टेबल पर, बच्चे इंतजार करके सो चुके हैं। हम इधर अकेले बैठ कर नव वर्ष का इंतजार कर रहे थे। कब आए और उसका स्वागत करें। गुगल, ब्लॉग, मेल-फ़ीमेल सब भूल गए। सूर्य के क्षितिज से मिलन के पश्चात नव वर्ष की वेला में बाहें फ़ैलाए यामिनी स्वागत के लिए तैयार थी। कितनी देर तक उसके आग्राह को टालता, आगोश में समा ही गया।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-VLjPiqkrC2s/TwLrfnnF7II/AAAAAAAAFIk/zt1snfQX8Yw/s1600/01+staircase.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-VLjPiqkrC2s/TwLrfnnF7II/AAAAAAAAFIk/zt1snfQX8Yw/s320/01+staircase.jpg" width="320" /></a></div>एक रात में ही एक साल बीत गया, पलक खुलते ही 2012 सामने था। कितना कुछ बदल गया, सुहानी सुबह हो गई। बीते हुए पलों के निशान कमरे में यत्र-तत्र बिखरे थे। अब समेटना था उन्हे, जाने का समय आ गया। सुबह के 7 बज रहे थे, बीती रात की खुमारी से सूर्यदेवता नहीं उबरे थे, वे भी ड्यूटी भूल कर 2012 के प्रथम रविवार को देर तक बिस्तर पर थे। अंधेरा कायम था, हमें तो चलना था इसलिए ठंडे पानी में ही डुबकी लगाई। रंगोली के कार्यक्रम में ए आर रहमान स्पेशल चल रहा था और हम थे लाईफ़ जैकेट लेकर जादू वाले नयनों में डूबने को बेताब, चैनल बदलना पड़ा। हमारे मन माफ़िक गाने चलने लगे। ये जिन्दगी उसी की है.........., हमे पता है भाई, ये जिन्दगी उसी की है। जैसे सूदखोर लाला रोज चौखट पर आकर बता जाता है ब्याज कितना हुआ है वैसे ही तुम भी रोज याद दिला जाते हो कि ये जिन्दगी उसी की है। सच है उधार कभी चैन नहीं लेने देती। सूरज रात भर चले न चले पर तुम्हारा सूद 24X7 कल्लाक चलता है। इसीलिए कबीर ने जस की तस धर दीनी चदरिया। हम जब भी जाएगें तुम्हारा मूल सूद समेत चुका कर जाएगें।<br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-ot1vVuLWYEw/TwLsEU8L-6I/AAAAAAAAFIw/M9dLKSGrrdk/s1600/2012.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="207" src="http://3.bp.blogspot.com/-ot1vVuLWYEw/TwLsEU8L-6I/AAAAAAAAFIw/M9dLKSGrrdk/s320/2012.jpg" width="320" /></a></div>किर्रर्र किर्रर्र, किर्रर्र किर्रर्र की आवाज के साथ दरवाजा खुला तो बैरा नजर आया। "सर सामान नीचे गाड़ी में रखना है।" मन ही मन सोचता हूँ कि चैन के दो पल भी कोई लेने नहीं देता। सूद काफ़ी बढ चुका है मूल अब चुका ही देना चाहिए। सामान नीचे गाड़ी में पहुंचता है नए साल की सुबह की शुरुआत दही और शक्कर से करता हूँ। बिल काऊंटर पर भाभी जी नसीहतें दे रही थी, थोड़ी सी गहमा गहमी के बाद मामला फ़िट हो जाता है और हम चल पड़ते हैं अपने गंतव्य की ओर। बस्तर का गढवा शिल्प बहुत प्रसिद्ध हो चुका है। सागौन की लकड़ी में बस्तर की सांस्कृतिक विरासत की शिल्पकारी की देश भर में मांग है। इन्हे बड़े अधिकारियों के घर में ड्राईंग रुम की शोभा बढाते देखता हूँ। आज कल गिफ़्ट के रुप में इनका प्रचलन खूब बढ रहा है। भाभी जी के मन में आता है कि कुछ खरीदना चाहिए। हमें जगदलपुर से जल्दी बाहर निकलना था इसलिए मैने कहा कि कोन्डागाँव में ले लेगें। कोंडागाँव बस्तर जिले का ही एक ब्लॉक है, जिस दिन हम कोण्डागाँव पहुंच रहे थे उसी दिन यह जिला बन रहा है। 1 जनवरी 2012 को कोण्डागाँव ने विधिवत जिले का रुप ले लिया और हम उसके साक्षी बने...............<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_07.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-6796314605866279902012-04-23T16:20:00.000+05:302012-04-23T16:20:35.108+05:30माटरा की चटनी और तीरथगढ जलप्रपात<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-YLWmu_ULHIo/TwKM-2PykgI/AAAAAAAAFFw/n5ysPM3z6-s/s1600/tirathgarh.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="220" src="http://4.bp.blogspot.com/-YLWmu_ULHIo/TwKM-2PykgI/AAAAAAAAFFw/n5ysPM3z6-s/s320/tirathgarh.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">तीरथगढ कुटुमसर (गुगल के सौजन्य से)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post.html">प्रारंभ से पढें</a></span><br />
<span style="color: red; font-size: large;">कां</span>गेर घाटी में स्थित तीरथगढ़ दक्षिण पश्चिम दिशा में जगदलपुर से केशलुर 18 किलोमीटर और फ़ारेस्ट नाका 18 किलोमीटर फ़िर <a href="http://rajtantr.blogspot.com/2010/04/9.html">तीरथगढ</a> 6 किलोमीटर है। <a href="http://rajtantr.blogspot.com/2010/04/7.html">कुटुमसर गुफ़ा</a> यहाँ से 12 किलो मीटर है। अगर तीरथगढ जाना है तो जगदलपुर से 42 किलो मीटर जाना होगा और कुटुमसर जाना है तो 48 किलोमीटर जाना होगा। फ़ारेस्ट नाका में कुटुमसर जाने के लिए लाईट और गाईड का इंतजाम होता है उसके लिए अलग से चार्ज देना पड़ता है। तीरथगढ जाने के लिए प्रतिव्यक्ति 25 रुपए की टिकिट और वाहन के लिए 50 रुपए अलग से देय है। टिकिट लेकर हम तीरथगढ चल पड़े। तीरथगढ के लिए घुमावदार घाट वाला रास्ता घने जंगल से होकर जाता है। कई जगह अंधे मोड़ हैं, 5 किलोमीटर चलने पर रास्ते में एक स्कार्पियो गाड़ी खड़ी थी, दो लोग चेहरे खून पोंछ रहे थे। उनकी गाड़ी पहाड़ से टकरा गयी थी। तीरथगढ के रास्ते में बटरफ़्लाई जोन भी पड़ता है। वहाँ रंग-बिरंगी तितलियाँ देखी जा सकती हैं। बरसात होने के कारण हम वहाँ रुके नहीं और तीरथगढ पहुंच गए। हमने नदी पार करने की बजाए पुल के पहले ही गाड़ी रोक ली और वहीं से जलप्रपात की ओर बढ गए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-_N5UcgegZKM/TwKNr_-J55I/AAAAAAAAFGI/_MTa_tR94hw/s1600/Image6875.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-_N5UcgegZKM/TwKNr_-J55I/AAAAAAAAFGI/_MTa_tR94hw/s320/Image6875.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सामने तीरथगढ मार्ग</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">तीरथगढ जल प्रपात मुंगाबहार नदी से बनता है, यहाँ शिवरात्रि का मेला भी लगता है। यहाँ पहुंचने पर प्रकृति के मनोरम स्वरुप के दर्शन हुए। काफ़ी उंचाई से गिरने के कारण झरने की कल कल की आवाज दहाड़ में बदल गयी। जहाँ मैं खड़ा था वहाँ से झरने की गहराई लगभग 300 फ़िट है। उपर से झरना देखना खतरनाक भी कई लोग यहां अपने प्राण गंवा चुके हैं। हल्की हल्की बरसात हो रही थी। बूंदा-बांदी के बीच सैलानीयों की भीड़ खूब थी। लोग वहीं पर नव वर्ष मना रहे थे। टूरिस्ट बसों की लाईन लगी हुई थी। हमें रास्ते में हाट बाजार में बेचने के लिए बकरे और मुर्गे ले जाते लोग मिले। कर्ण ने कहा कि अंकल जैसे ही कोई त्यौहार आता होगा तो बकरे और मुर्गे सहम जाते होगें। त्यौहार इंसान मनाता है और शामत इन मूक पशुओं की आ जाती है। मुझे भी सोचने पर मजबूर होना पड़ा। पर बस्तर की यही संस्कृति है, मुर्गा, बकरा और महुआ की दारु के बिना यहाँ त्यौहार और पर्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसी तरीके यहां भी नव वर्ष का स्वागत किया जा रहा था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-H9yCIfUw0Cw/TwKOG4uf95I/AAAAAAAAFGU/8a6K-9DzxBA/s1600/Image6889.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-H9yCIfUw0Cw/TwKOG4uf95I/AAAAAAAAFGU/8a6K-9DzxBA/s320/Image6889.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">डिस्कवरी फ़ोटोग्राफ़र मोनु</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">मोनु अपने हैंडी कैम से तस्वीरें लेने लगी। पेड़ की डाल पर बैठा लाल मुंह का बंदर पहले डालियाँ हिला रहा था फ़िर नीचे उतरकर मोनु के तरफ़ बढा, वह सहम गयी, मैने बंदर को भगाया। अगर बंदर के डर से पीछे भागी तो सीधे 300 फ़िट गहरी खाई में। हड्डी पसली भी नहीं मिलने वाले। झरने की गहराई देखकर तो दिल के कमजोर आदमी के पैरों की पिंडलियाँ कांपने लगती हैं। अदभूत दृश्य था झरने का। प्रकृति से बड़ा कोई शिल्पकार नहीं। उसने जो गढा अदभुत ही गढा। इन जगहों को देखने के बाद प्रकृति की ताकत और निर्माण के आगे नतमस्तक होना पड़ता है। बड़े से बड़ा नास्तिक भी प्रकृति में छिपे ईश्वरीय स्वरुप को मानने लगता है। 300 फ़िट की उंचाई से गिरता दूधिया जल सहज ही आकर्षित करता है। अगर पंख होते तो घाटी में उड़ कर देखता उसके अदभुत सौंदर्य को। आज यहाँ पर खड़े हुए मन की उड़ान के साथ उड़ रहा था। मन की उड़ान के लिए पंखों की आवश्यकता नहीं होती। बिना पंखों के लिए परवाज किया जा सकता है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-_a6bDEEVfyQ/TwKOlOJajeI/AAAAAAAAFGg/RQabFdK9s-Y/s1600/Image6893.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-_a6bDEEVfyQ/TwKOlOJajeI/AAAAAAAAFGg/RQabFdK9s-Y/s320/Image6893.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">तीरथगढ झरना</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">झरने में नीचे उतरने के लिए सीढियाँ बनी हुई हैं। पहले जब आया था नीचे उतर कर झरने में नहाया था। बड़ी फ़िसलन थी झरने के नीचे। एक दो लोग तो गिरे भी थे। जगह खरतनाक है, सभल कर ही चलना चाहिए, जहां झरने का पानी गिरता है वहाँ 40 फ़िट की गहराई का कुंड बन गया है। मतलब थाह भी लेना मुस्किल है। कुंड से एक झरना फ़िर नीचे गिरता है और उसके बाद एक झरना और है जो नीचे घाटी में गिरता है। इस प्रकार उपर से देखने पर तीनों झरने दिखाई देते हैं। घाटी के उपर में एक विव प्वाईंट भी बना है जिससे देखने पर तीनों झरने दिखाई देते हैं। इस झरने में असावधानी के कारण इंजिनियरिंग कालेज के कुछ लड़के बह भी चुके हैं। हमने समयाभाव के कारण नीचे उतरने का मोह त्याग दिया। क्योंकि चढने उतरने में ही दो घंटे लग जाते। आगे कुटुमसर भी जाना था इसलिए कुछ चित्र लेकर हमने कुटुमसर की ओर चल पड़े। प्लास्टिक की थैलियों एवं डिस्पोजल बर्तनों ने यहाँ भी कहर ढा रखा था। जंगल में भी प्रदूषण फ़ैल रहा है। फ़ारेस्ट वालों को चाहिए कि नाके पर ही चेता दें कि जो खाने का सामान अपने साथ ले जा रहे हैं उसकी पैकिंग और प्लास्टिक का सामान अपने साथ वापस लाएं। जिससे पर्यावरण प्रदूषित न हो सके।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-_ziYZde3Fjo/TwKO-67YQZI/AAAAAAAAFGs/1c7HMuUhMpg/s1600/Image6892.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-_ziYZde3Fjo/TwKO-67YQZI/AAAAAAAAFGs/1c7HMuUhMpg/s320/Image6892.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">तीरथगढ़ का विहंगम दृश्य</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">वर्तमान में लोग नेट से ही सूचना लेकर अपने घूमने का कार्यक्रम बनाते हैं। मोनु ने अपने मोबाईल पर सर्च किया तो बहुत सारे स्थान बस्तर पर्यटन में दिख रहे थे। वह बताती जाती थी लेकिन सभी जगह जाना संभव नहीं था। उसने बारसूर की रट लगा रखी थी। बारसूर में प्रस्तर की विशाल गणेश प्रतिमाएं हैं। हमने अगली बार देखेंगे कह कर टाल दिया। जब कुटुमसर कांगेर वेली के गेट पर पहुंचे तो उन्होने बताया कि बरसात होने के कारण कुटुमसर बंद कर दिया है। अगर कल बरसात नहीं होगी तो खोला जा सकता है। यहाँ से हमे मायूस होकर लौटना पड़ा। मोनु कहने लगी पहले से प्लान बनाकर चलना चाहिए। कहाँ क्या देखना है और कहाँ रुकना है। कहना उसका सही था पर इधर घुमने का कार्यक्रम अचानक ही बना था और सभी स्थान देखने के लिए कम से कम एक सप्ताह का समय होना चाहिए बस्तर कोई छोटा सा स्थान नहीं है जहाँ दो दिन में घूम लिया जाए। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-ndtIJN0ONGM/TwKPVfmkw_I/AAAAAAAAFG4/j5mlcCZWCLg/s1600/Image6871.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-ndtIJN0ONGM/TwKPVfmkw_I/AAAAAAAAFG4/j5mlcCZWCLg/s320/Image6871.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कुटुमसर बंद होने पर मुंडा खराब </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">रास्ते में साप्ताहिक हाट बाजार लगे थे। जहाँ ग्रामीण अपनी आवश्यकता की चीजें खरीदने एवं बेचने आते हैं। बस्तर के हाट में घर गृहस्थी का सभी सामान मिलता है। महुआ मंद से लेकर नमक तक, इलेक्ट्रानिक के सामान से लेकर कपड़े तक। यहाँ आम के पेड़ पर रहने वाले माटरा (लाल मकोड़े, चापड़ा, माटा) अंडे सहित बेचे जाते हैं। जिसे दो रुपया दोना के हिसाब से बेचा जाता है। आदिवासी इसे अंडो समेत खाते हैं, टमाटर और मिर्च डालकर इसकी चटनी भी बनाई जाती है। इसका कभी स्वाद लेने का मौका तो मिला नहीं पर खाते हुए देखा है। हाट में केकड़े, मुर्गे, मछली, बकरा, महुआ की मंद, सल्फ़ी, ताड़ी, कंद इत्यादि मिलते है। मंद, सल्फ़ी और ताड़ी को दोने (पत्ते के कटोरा) में पीया जाता है। हम भी ताड़ी का स्वाद लेना चाहते थे। लेकिन समय अधिक हो गया था। बताते हैं कि ताड़ी को सुर्योदय से पहले ही पीना चाहिए, सुर्य की किरणे पड़ने के बाद उसमें खट्टापन आ जाता है। ताड़ी सेवन फ़िर कभी पर टाल कर हम आगे की यात्रा पर बढ लिए। अब हमें जाना था <a href="http://rajtantr.blogspot.com/2010/04/5.html">चित्रकूट जलप्रपात</a>.........................</div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-36518740347649326492012-04-23T16:18:00.001+05:302012-04-23T16:18:02.924+05:30सजनवा बैरी हो गए हमार, दंतेवाड़ा से कुटुमसर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-IekYnTgx7_E/TwJdkt7wGnI/AAAAAAAAFDI/dZRagDUCbZo/s1600/Image6818.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-IekYnTgx7_E/TwJdkt7wGnI/AAAAAAAAFDI/dZRagDUCbZo/s320/Image6818.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दंतेवाड़ा की ओर</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2012/01/blog-post.html">आरंभ से पढें </a></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;">सु</span>बह आँख खुली तो घड़ी 6 बजा रही थी और हम भी बजे हुए थे, कुछ थकान सी थी। कमरे से कर्ण गायब था, सुबह की चाय मंगाई, चाय पीते वक्त टीवी गा रहा था "<a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html">सजनवा बैरी हो गए हमार</a>, करमवा बैरी हो गए हमार।" स्नान करने लिए गरम पानी का इंतजार करना पड़ा, जब से सोलर उर्जा से गरम पानी का यंत्र लगा है होटलों में, तब से सूर्य किरणों का इंतजार करना पड़ता है। खिड़की से देखने पर पता चला कि थोड़ी सी धूप खिली है। पानी हल्का कुनकुना ही हुआ था, उसी से स्नान कर लिया। 9 बजे तक सब तैयार हो चुके थे, अब हम दंतेवाड़ा की तरफ़ चल पड़े। नए ड्रायवर के हवाले गाड़ी थी। कर्ण की शारीरिक थकान को उसके ड्राईव करने की लालसा ने दबा रखा था। अगर वह कह दे कि थका हुआ है तो ड्राईव करने का मजा नहीं ले सकता था। मैं सामने सीट पर नेवीगेटर का कार्य कर रहा था और कर्ण पायलेटिंग। तभी फ़ोन पर <a href="http://www.blogger.com/profile/06042751859429906396">देवी दर्शन</a> हुए, चलो यात्रा का शुभारंभ हुआ। मुझे भूख लगने लगी , सुबह नाश्ता नहीं किया , चौहान जी और भाभी जी देवी दर्शन करके ही कुछ ग्रहण करने का मन बना चुके थे। मैने दो पीस केक से काम चलाया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-DZr76in5u9c/TwJeVCStBeI/AAAAAAAAFDU/kH8RriRPm28/s1600/31122011082.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-DZr76in5u9c/TwJeVCStBeI/AAAAAAAAFDU/kH8RriRPm28/s320/31122011082.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">क्षतिग्रस्त थाना भवन</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">बास्तानार और गीदम के बीच में बास्तानार घाट पड़ता है, मुख्य मार्ग पर, घाट अच्छा है हरियाली से आच्छादित। कुछ दिनों पूर्व इसी घाट में नक्सलियों ने पुलिस पार्टी की गाड़ी को एम्बुश लगा कर उड़ाया था। उसी रास्ते से हम भी गुजरे। वहाँ पर एक मंदिर भी है। स्थानीय लोगों से चर्चा होने पर उन्होने बताया कि दादा लोगों की लड़ाई आम जन से नहीं है वे सरकारी लोगों को ही नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए आम आदमी कभी भी आ जा सकता है। लेकिन तब भी लोग डरे रहते हैं। डरना ही पड़ेगा भाई, जब दोनो हाथों में बंदुक हो तो मरना निहत्थे को पड़ता है। कब कौन चपेट में आ जाए क्या पता। पहले जब आया था तब इस रास्ते पर तीन जगहों पर पुलिस के बैरियर थे, चेकिंग के बाद ही जाने देते थे। अब कहीं पर कोई बैरियर नजर नहीं आया। गीदम पहुंचे तो वह नवनिर्मित थाना दिखाई दिया जिसे सिर्फ़ एक हफ़्ते पहले ही नक्सलियों ने उड़ाया था। यह थाना गीदम शहर की आबादी से लगा हुआ है। अब इनका प्रभाव जंगल से बाहर मुख्य मार्ग तक दिखाई देने लगा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-gN1YMI5rF6k/TwJeqbB5CtI/AAAAAAAAFDg/qqCWRcjKfjo/s1600/Image6821.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-gN1YMI5rF6k/TwJeqbB5CtI/AAAAAAAAFDg/qqCWRcjKfjo/s320/Image6821.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">स्वागत द्वार</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">गीदम पहुंचने लोकनिर्माण विभाग का बड़ा गेट दिखाई दिया। उस पर बताए गए मार्ग अनुसार गाडी सीधे ही बढा दी। दो चार किलो मीटर चलने पर वह रास्ता मुझे दंतेवाड़ा मार्ग जैसा नहीं लगा। एक माईल स्टोन बोंडापाल बता रहा था। अब समझ आया कि हमें गीदम से बाएं मुड़ना था और हम सीधे चले आए। वापस आकर सही रास्ता पकड़ा। 12 बजे दंतेवाड़ा पहुंचे। यहाँ की आबादी अधिक नहीं है लगभग 10,000 होगी, जिला होने के कारण सरकारी कर्मचारियों का डेरा है। पहले जब आया था तो यहां के सर्किट हाउस में ठहरा था। सरकार ने यहाँ काफ़ी निर्माण कार्य किए हैं। रहवासियों के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। दंतेश्वरी माता मंदिर मार्ग का भी चौड़ी करण हो रहा है। अब सामने मुख्यद्वार दिखाई दिया। सलामत पहुंचने की खुशी थी। प्रसाद लिया और माई के दर्शन करने पहुंचे। बस्तर राज परिवार की कुल देवी दंतेश्वरी माता हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-8DYNjAUHGq0/TwJj2lVpLFI/AAAAAAAAFEE/18s-_gnbEwo/s1600/Image6831.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-8DYNjAUHGq0/TwJj2lVpLFI/AAAAAAAAFEE/18s-_gnbEwo/s320/Image6831.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">भैरव बाबा</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">मंदिर में प्रवेश करने पर सबसे पहले प्रस्तर स्तम्भ निर्मित भैरव बाबा का मंदिर है। भाभी ने कहा कि पहले देवी के दर्शन फ़िर भैरव दर्शन करना चाहिए। दंतेश्वरी मंदिर में पुल पैंट और पैजामा पहनने की मनाही है। वहाँ धोतियों का इंतजाम है आप वहीं पैंट रख कर धोती पहन कर दर्शन कर सकते हैं। हमने भी धोती पहनी, तभी ख्याल आया कि <a href="http://akaltara.blogspot.com/">राहुल भाई</a><br />
ने फ़ोन पर किन्ही शिला लेख का जिक्र किया था और उनकी फ़ोटो लाने कहा था। देवी दर्शनोपरांत मैने शिलालेख ढूंढे और उनकी फ़ोटो लेने का प्रयत्न किया। शिलालेख के पीछे से रोशनी आने के कारण चित्र सही नही आ रहे थे। उसकी लिखावट पढने में नहीं आ रही थी। फ़िर भी हमने प्रयास करके चित्र लिए और एक वीडियो भी बनाया। अंधेरे एवं प्रकाश के विपरीत संयोजन के कारण चित्र प्रभावकारी नहीं थे। मंदिर के दुसरे प्रवेश द्वार पर गणेश जी, काली माई, इत्यादि अन्य देवताओं की प्रस्तर मुर्तियाँ स्थापित हैं। तीसरे द्वार पर दो व्याघ्र व्याल बैठे हैं। वही पर गर्भ गृह में दंतेश्वरी देवी विराजित हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-9uoppXCEvKE/TwJkgG4hXeI/AAAAAAAAFEQ/n7MC_mbtY3o/s1600/31122011092.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-9uoppXCEvKE/TwJkgG4hXeI/AAAAAAAAFEQ/n7MC_mbtY3o/s320/31122011092.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">शिलालेख - दंतेश्वरी मंदिर</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">पौराणिक मान्यतानुसार जहाँ जहाँ सती के अंग गिरे थे वहां वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई है। शंखिनी एवं डंकनी नदी के किनारे सती के दांत गिरे, इसलिए यहां दंतेश्वरी पीठ की स्थापना हुई और माता के नाम पर गाँव का नाम दंतेवाड़ा पड़ा। आंध्रप्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी और माँ भुनेश्वरी देवी की प्रतिस्थापना की। वारंगल में माँ भुनेश्वरी माँ पेदाम्मा के नाम सेविख्यात है। एक दंतकथा के मुताबिक वारंगल के राजा रूद्र प्रतापदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघपूर्णिमा के मौके पर वे घोड़े में सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें और वे जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी, लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने यात्रा प्रारंभ की और शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा और कुल देवी यहीं प्रस्थापित हो गई।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-qL-P8oIcYq0/TwJlQWCfjyI/AAAAAAAAFEc/iEo7R5V7TwU/s1600/Image6844.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-qL-P8oIcYq0/TwJlQWCfjyI/AAAAAAAAFEc/iEo7R5V7TwU/s320/Image6844.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">माँ दंतेश्वरी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है। बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ । </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-Ak7FvRy1Imk/TwJmHDk0EQI/AAAAAAAAFEo/yJCRes4aeRI/s1600/Image6859.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-Ak7FvRy1Imk/TwJmHDk0EQI/AAAAAAAAFEo/yJCRes4aeRI/s320/Image6859.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गरुड़ स्तंभ</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">बत्तीस काष्ठ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। माँ दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। दंतेश्वरी माई में मनौती वाली पशु बलि भी दी जाती है। बकरे को पहले चांवल(अक्षत) चबवाया जाता है। अगर बकरे ने चांवल चबा लिए तो माना जाता है कि देवी या देवता ने बलि स्वीकार कर ली। हमारे सामने ही एक व्यक्ति दो बकरे लेकर मंदिर के भीतर आया और उसके नौकर ने बकरे पकड़ रखे थे। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-Xdg4SBeW2cg/TwJnZ_MtVpI/AAAAAAAAFE0/LO1gWxhV3o4/s1600/Image6852.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-Xdg4SBeW2cg/TwJnZ_MtVpI/AAAAAAAAFE0/LO1gWxhV3o4/s320/Image6852.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बलि के बकरे</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">बकरे देख कर बलि देने के अवसर का हिसाब लगाने लगा। लेकिन ऐसा कोई समय या पर्व नहीं दिखा जिस दिन बलि दी जाए। दुर्गा नवमी या जवांरा पर्व में बलि देनी की प्रथा है।तब समझ आया कि आज 31 दिसम्बर है। देवी-देवताओं के नाम बकरे की बलि भी दी जाए और मौज मस्ती भी ली जाए। दोनो काम एक साथ, खुद भी खुश और भगवान भी खुश। बकरे वाले के पास ही बैठ कर एक वृद्ध प्राचीन वाद्य पुंगी बजा रहा था। उसकी ध्वनि मुझे शंख ध्वनि जैसी लग रही थी। मैने उसे और बजाने के लिए कहा। उसने कई बार बजाया। गर्भ गृह के पास ही एक युवा दुर्गा सप्तसति का पाठ कर रहा था। और रक्षा सूत्र का भंडार रखा था। मतलब रक्षा सूत्र बांधने का ठेका इसके पास है। सभी ने रक्षा सूत्र बंधवाए, रक्षासूत्रों ने औरंगजेब की सेना को नारनौल के हारे हुए युद्ध में विजय दिलाई थी। अब हमें चलना चाहिए था क्योंकि बादल दिख रहे थे और बरसात होने की संभावना थी। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-f_mY4mO_DGs/TwJoYx0gr6I/AAAAAAAAFFA/ZAPRBVlLISA/s1600/Image6847.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-f_mY4mO_DGs/TwJoYx0gr6I/AAAAAAAAFFA/ZAPRBVlLISA/s320/Image6847.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पद्म चिन्ह</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">मंदिर के गर्भ गृह के सामने पद्म बना हुआ दिखाई दिया। इस पद्मचिन्ह का उपयोग तंत्र में किया जाता है। यहाँ तंत्र सिद्धी के लिए भी उपासना होती थी। यह जानकारी पिछली यात्रा में बाबा सतबीर नाथ पटौदी वाले ने मुझे दी थी। अब दर्शनार्थी इस चिन्ह पर नारियल, अक्षत और जल चढाते हैं। मंदिर के समीप ही माई जी कि बगिया है। सुंदर बगीचा बना हुआ है, लेकिन समयाभाव के कारण वहाँ गए नहीं। मंदिर में जल की व्यवस्था है, यहीं से हाथ पैर धोकर मंदिर में प्रवेश किया जा सकता है। 2011 का अंतिम दिन होने के कारण दर्शनार्थियों की खासी संख्या थी। कुछ गुजरात एवं बंगाल के भी दर्शनार्थी मिले। दंतेश्वरी माता के दर्शन करने लिए सारे भारत से लोग आते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-PAh1lzI2yH4/TwJrtiN1DxI/AAAAAAAAFFM/FazWWH_MTus/s1600/Image6823.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-PAh1lzI2yH4/TwJrtiN1DxI/AAAAAAAAFFM/FazWWH_MTus/s320/Image6823.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुख्य द्वार</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">दर्शनोपरांत हमने काऊंटर पर मिल रहा प्रसाद लिया। जहाँ एक चलभाषधारी युवक बैठ कर पर्ची काट रहा था और पांच आटे के छोटे छोटे लड्डू 25 रुपए में दे रहा था। आस्था, चिकित्सा के नाम पर सब मान्य है। हमने पचास रुपए देकर दो पैकेट लिए। पचास रुपए देने का एक मात्र कारण था कि लोग क्या कहगें प्रसाद भी नहीं लाए? ट्रस्ट द्वारा प्रसाद की व्यवस्था तो मुफ़्त में करानी चाहिए। पूर्व योजनानुसार कुटुमसर एवं तीरथगढ जल प्रपात देखने के लिए चल पडे। गीदम में भोजन करने की सोच कर आगे बढ गए। पूरा गीदम शहर निकल गया लेकिन कोई भी होटल दिखाई नहीं दिया। आगे तो कहीं खाना मिलेगा सोच कर आगे बढते गए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-GEUrsJD3J50/TwJr8arf6XI/AAAAAAAAFFY/MtjLTXa3IP0/s1600/Image6863.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-GEUrsJD3J50/TwJr8arf6XI/AAAAAAAAFFY/MtjLTXa3IP0/s320/Image6863.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">विशाल बरगद किलेपाल में</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">किलेपाल पहुंचने पर सड़क के किनारे एक विशाल बरगद का पेड़ दिखाई दिया। जब हम मध्यप्रदेश में थे तब बरगद हमारा राज्य चिन्ह होता था। फ़ोटो लेने के लिए रुक गया। वहीं पर <a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/07/4.html#comments">चाट का ठेला</a> भी था। भूख लग रही थी, सोचा कि दो-चार गोलगप्पों पर ही हाथ साफ़ किया जाए। चाट वाले से महुआ के विषय में पूछा तो उसने कहा कि मिल सकता है। वह जब तक महुआ लाने गया तब तक हमने उसकी दुकान संभाली। थोड़ी देर बाद वह खाली हाथ आता नजर आया। उसने बताया कि आज 31 दिसम्बर होने के कारण माल खत्म हो गया। जितना बनाया था सब बिक गया। दो घंटे बाद मिल जाएगा। इतना इंतजार कौन करे? हम चाट और गोलगप्पे उदरस्थ करने का मन बना चुके थे। वैसे चाट और गोलगप्पे का पानी मजेदार चटखारे दार था। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-mP_0XlC7f28/TwJs-Q6WBfI/AAAAAAAAFFk/KHAYzVaFVPc/s1600/Image6866.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-mP_0XlC7f28/TwJs-Q6WBfI/AAAAAAAAFFk/KHAYzVaFVPc/s320/Image6866.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अपनी चाट की दुकान</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">कई जगह गोल गप्पे वाले पानी अच्छा नहीं बनाते। गाँव में जब भी चाट खाई उसका आनंद ही लिया। हमने अपने लिए चाट स्वादानुसार स्वयं ही बनाई। अपना हाथ जगन्नाथ। अब इससे अधिक हाईजेनिक फ़ुड कोई दूसरा नहीं हो सकता। जब जगदलपुर के समीप केशलूर पहुंचे तो वहां अच्छी बारिश हो रही थी। मुझे याद था कि यहाँ पर एक ढाबा है जहां मैने 7 साल पहले खाना खाया था। केशलुर ढाबे से ही कांगेर वैली, कुटुमसर एवं तीरथगढ के लिए रास्ता जाता है। ढाबे समीप ही गाड़ी रोकी। भीतर खाने वालों की बहुत भीड़ थी। बंगालियों ने हाय तौबा मचा रखी थी। नव वर्ष के अवसर काफ़ी बंगाली टूरिस्ट आए हुए थे। गरम गरम भाप उठता हुए चावल देख कर मन मचल गया। मैने चावल, दाल और सब्जी का आर्डर दे दिया। साथियों ने चाय पी और मैने भरपेट चावल खाया, छत्तीसगढिया जो ठहरा........................<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_05.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-3080201003083885272012-04-23T16:14:00.002+05:302012-04-23T16:14:47.328+05:30आमचो बस्तर कितरो सुंदर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-Jrz9s9H6m1U/TwGRhVdEoeI/AAAAAAAAFCY/5-fTBIb0cG0/s1600/Image6820.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-Jrz9s9H6m1U/TwGRhVdEoeI/AAAAAAAAFCY/5-fTBIb0cG0/s320/Image6820.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: red; font-size: large;">ब</span>स्तर की धरा किसी स्वर्ग से कम नहीं। हरी भरी वादियाँ, उन्मुक्त कल-कल करती नदियाँ, झरने, वन पशु-पक्षी, खनिज एवं वहां के भोले-भाले आदिवासियों का अतिथि सत्कार बरबस बस्तर की ओर खींच ले जाता है। बस्तर के वनों में विभिन्न प्रजाति की इमारती लकड़ियाँ मिलती हैं। यहाँ के परम्परागत शिल्पकार सारे विश्व में अपनी शिल्पकला के नाम से पहचाने जाते हैं। अगर कोई एक बार बस्तर आता है तो यहीं का होकर रह जाता है। आदिवासी हाट-बाजार, त्यौहार, वाद्ययंत्र, नाच-गाना एवं पारम्परिक उत्सव, खान-पान के साथ महुआ का मंद बस्तर भ्रमण के आनंद को कई गुना बढा देता है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र होने के कारण अब पर्यटकों की आवा-जाही कम हो गयी, लेकिन घुम्मकड़ों के लिए कहीं रोक टोक नहीं है। वे बेखौफ़ भ्रमण कर सकते हैं। बस्तर में ही आकर आदिवासी संस्कृति के विषय में विज्ञ हो सकते हैं। बचपन से अभी तक कई बार बस्तर जा चुका हूँ और जो भी बदलाव हुए हैं उसे मैने भी देखा है। बस्तर के निमंत्रण हमेशा तैयार रहता हूँ एक पैर पर।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-dywzfyaXQ1g/TwGSSxzMbSI/AAAAAAAAFCk/oZRwjsTAdMU/s1600/Image6817.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-dywzfyaXQ1g/TwGSSxzMbSI/AAAAAAAAFCk/oZRwjsTAdMU/s320/Image6817.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">नया ड्राईवर कर्ण</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">एक सप्ताह पहले ही गुजरात भ्रमण कर घर लौटे था। सोचा था कि नव वर्ष घर पर ही मनाया जाएगा। बच्चे भी तैयारी में लगे थे। बरसों पुराने पारिवारिक मित्र चौहान जी का फ़ोन आया कि दंतेवाड़ा देवी दर्शन को चलते हैं। अगर छुट्टी मिल जाती है तो साथ चलेगें। मैने उन्हे अनमने मन से हाँ कह दी। बरसों के बाद मिल रहे थे। श्रीमती जी से जाने के विषय में पूछा तो उन्होने मना कर दिया और मैं अपने काम में लग गया। दुबारा उनका फ़ोन आया कि छुट्टी मिल गयी और वे शुक्रवार 30 तारीख को 12 बजे तक पहुंच रहे हैं। मैने अली सा को <a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2009/12/blog-post_6595.html">जगदलपुर</a> पहुंचने की सूचना दे दी। दोपहर घर से खाना खाकर हम 5 प्राणी चल पड़े बस्तर जिले के मुख्यालय जगदलपुर की ओर। जगदलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर है। धमतरी होते हुए चारामा के बाद माकड़ी ढाबे में हम रुके। भाभी जी का चाय पीने का मन था। माकड़ी ढाबा भी इस वर्ष अपनी 50 वीं वर्षगांठ मना रहा है। रायपुर से जगदलपुर जाने वाली हर यात्री गाड़ी यहीं रुकती है। इस ढाबे की खीर बड़ी प्रसिद्ध है। हमने चाय से पहले खीर का आनंद लिया। यहाँ की खीर में बारीक चावल और औंटाया हुआ दूध रहता है साथ ही शक्कर की मात्रा कुछ सामान्य से अधिक। माकड़ी से विश्राम करके हम कांकेर की ओर चल पड़े। कांकेर में गाड़ी शहर के बीच से जाती है इसलिए वहां ट्रैफ़िक जाम की स्थिति बन जाती थी। अब यहाँ तालाब के पास से बायपास बना दिया है जो पप्पु ढाबा के पास जाकर मुख्य मार्ग में मिलता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-jtnMrWlDm5U/TwGS53cJJJI/AAAAAAAAFCw/XmM4CsRRDwE/s1600/Image6878.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-jtnMrWlDm5U/TwGS53cJJJI/AAAAAAAAFCw/XmM4CsRRDwE/s320/Image6878.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">हम बायपास से होकर केसकाल घाट की ओर बढते हैं। साथ ही घाट का जंगल भी बढता है। रास्ते के साथ के जंगल अब खत्म हो गए हैं। केसकाल घाट के पास ही कुछ जंगल बचे हैं। पहले यह घाट बहुत ही सकरा था। यह घाट आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और बस्तर का प्रवेश द्वार है। पहले जब रास्ता सकरा था तो जब कभी भी इधर से गुजरते थे तो एक-दो गाड़ियां खाई में गिरी जरुर मिलती थी।रास्ता चौड़ा होने के बाद दुर्घटना की आशंका कम हो गयी है। लेकिन वाहन सावधानी से ही चलाने पड़ते हैं। सावधानी हटी दुर्घटना घटी। घाट के उपर तेलीन माता का मंदिर है। गाड़ियाँ यहाँ एक बार रुक कर ही जाती हैं। मंदिर में चढाने के लिए नारियल प्रसाद पास की दुकान में मिलता है। इस घाटी के अन्त में लोक निर्माण विभाग का विश्राम गृह भी है। वहाँ से घाटी का नजारा बड़ा खूबसूरत नजर आता है। जगदलपुर के सर्किट हाऊस इंचार्ज को फ़ोन लगाने से उनका नम्बर नहीं मिला। इसलिए हमने ब्लॉगरिय धर्म निभाया और <a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/07/blog-post_15.html">अली सा</a> को होटल बुक करने के लिए कहा। उन्होने थोड़ी देर बाद फ़ोन करके बताया कि 31 दिसम्बर मनाने वालों के कारण किसी भी होटल में जगह नहीं है। बड़ी मुस्किल से रेनबो होटल में एक कमरा मिला है और उसे आपके नाम से बुक कर दिया है। चलिए तसल्ली हुई, हमने कहा कि ये चारों एक कमरे में टिक जाएगें और हम अली सा के घर। मामला फ़िट हो जाएगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-3EXmhUnOTeY/Th3ZLp64tmI/AAAAAAAAECA/Mk5J83mRyAI/s1600/Image4593.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-3EXmhUnOTeY/Th3ZLp64tmI/AAAAAAAAECA/Mk5J83mRyAI/s320/Image4593.jpg" width="320" /></a><a href="http://1.bp.blogspot.com/-3EXmhUnOTeY/Th3ZLp64tmI/AAAAAAAAECA/Mk5J83mRyAI/s1600/Image4593.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"></a></div><div style="text-align: justify;">कोन्डागांव से बूंदा-बांदी शुरु हो गयी। मौसम खुशगवार हो गया था। नीरज को फ़ोन लगाया तो वह एक जन्मदिन पार्टी में था। वैसे भी उसकी जन्मदिन या शादी पार्टी रोज ही रहती है। हम लगभग 9 बजे रेनबो होटल ढूंढते हुए जगदलपुर शहर में पहुंचे। वहाँ काऊंटर पर पूछने पर बताया कि हमारे लिए एक कमरा बुक है, फ़िर उन्होने दूसरा कमरा भी दे दिया 3 माले पर। होटल में रेस्टोरेंट के साथ बार भी है। नीचे साफ़ सफ़ाई ठीक थी पर उपर जब अपने रुम में पहुंचे तो उसका बुरा हाल था। मेरे रुम में तो हनीमून के फ़ूल बिखरे हुए थे। बैरा ने हमारे कहने पर चादर तकिए बदले। लेकिन रुम में झाड़ू लगाने वाले गायब थे। भाभी जी अड़ी रही कि रुम साफ़ करवाया जाए, ये रुम ठीक नहीं है। उनको रुम बदल कर दे दिया गया। फ़्रेश होकर भोजन के लिए रेस्टोरेंट में पहुंचे वहाँ काफ़ी गहमा-गहमी थी। बाहर से पर्यटक आए हुए थे नव वर्ष मनाने के लिए। मेरा मुड उपर के रेस्टोरेंट में खाने का था। लेकिन ये सब नीचे के रेस्टोरेंट में पहुंच गए। अभी खाने का मुड बना था बच्चे सिर्फ़ सूप पीना चाहते थे। जब सूप आया तो उसमें डबल नमक निकला। जब उसे वापस किया गया तो उसने सूप के एक बाऊल को दो बना दिए और बिल देखा तो उसमें सभी का चार्ज जोड़ दिया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-BWDXZy6ZX7Y/TwGWBD-Ns3I/AAAAAAAAFC8/1VhINkWyLKg/s1600/Dr.Daral.2.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-BWDXZy6ZX7Y/TwGWBD-Ns3I/AAAAAAAAFC8/1VhINkWyLKg/s320/Dr.Daral.2.JPG" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2010/08/blog-post_07.html">चचा गालिब</a> याद आ रहे थे, हमने जैसे तैसे खाना खाया, अन्य साथियों को यह रेस्टोरेंट पसंद नहीं आया। वे सूप के डबल बिल के नाम से काउंटर भिड़ गए। मुझे भी मैनेजर पर गरम होना पड़ा। काउंटर का लड़का मुझे जाना पहचाना लग रहा था। लेकिन मैने ध्यान नहीं दिया। जब उसने तुम कहकर बात कि मैने उसे कस के डांट दिया और अपने रुम में चला आया। अली सा ने फ़ोन पर बताया कि दंतेवाड़ा जाने के लिए सुबह जल्दी 6 बजे निकल जाएं तो कुटुमसर और तीरथ गढ के साथ चित्रकूट भी देखा जा सकता है। हमने भी रात को आपस में चर्चा कर ली थी कि सुबह जल्दी उठ कर दंतेश्व्वरी दर्शन के लिए चल पड़ेगें। होटल वाले ने भी सुबह 6 बजे चाय देने की हामी भर ली थी। मैने नेट चालू किया, मेरे डाटा कार्ट की स्पीड अच्छी थी। मैने मेल चेक किया और सोने लगा। कर्ण नेट पर लगा रहा, जब भी मेरी आँख खुलती तो उसे लैपटाप से ही उलझे देखा। मुझे आभास हो गया था कि अब सुबह जल्दी उठकर दंतेवाड़ा जाना संभव नहीं है। सारा कार्यक्रम अभी से विलंब से चलने लगा है। आखिर मैने यही सोचा कि जो होगा सो देखा जाएगा, रात बड़ी प्यारी चीज है मुंह ढांप कर सोईएगा..............<a href="http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/01/blog-post_04.html">आगे पढें. </a> </div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-69526455103524879662012-04-23T16:13:00.000+05:302012-04-23T16:13:00.662+05:30बंदरों की ब्लॉगरी मौज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-WFeoHjr549U/TuhBC6swaII/AAAAAAAAE5U/ye08FfrPl1c/s1600/IMG_1943.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-WFeoHjr549U/TuhBC6swaII/AAAAAAAAE5U/ye08FfrPl1c/s320/IMG_1943.JPG" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;">प</span>हले भी अयोध्या आया था, तब भी देखा था, अभी भी देखा है, बदला कुछ भी नहीं है, वही विक्रम की सवारी, पहले दो-दो रुपए लेते थे अब 5-5 और 10-10 लेने लगे हैं, लिट्टी चोखा का ठेला, बिड़ला धर्मशाला के समीप होमियोपैथी के डॉक्टर की दुकान, पुलिस चौकी, जलेबी और इमरती की दुकान, सड़क पर घूमते हुए आवारा पशु, गंदगी से बजबजाती हुई नालियाँ। सरयु के तट पर फ़ैली हुई गंदगी, छतरी लगाए पाटे पर बैठे पंडे। हवा के साथ उड़ती हुई पालीथिन की खाली थैलियाँ। चिलम फ़ूंकते साधु वेषधारी असाधु। चेले-चेली मुंडते संत महंत। नगो-पत्थरों की दुकानें, सुग्गा ज्योतिषियों का पसरा, सुरमा बेचते लोग, हरी काई रची पुरानी इमारतें। लोगों का सामान लूटते बंदर। कुछ नहीं बदला है। बदलने की बजाए कुछ जुड़ा है तो एक सायबर कैफ़े,बिड़ला धर्मशाला के समीप। सायबर कैफ़े का मिलना एक ब्लॉगर के लिए सुखद रहा।</div><div style="text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-eZY93UhuV9c/TuhBkEB9acI/AAAAAAAAE5c/BhrofDXVxmk/s1600/Image6407.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-eZY93UhuV9c/TuhBkEB9acI/AAAAAAAAE5c/BhrofDXVxmk/s320/Image6407.jpg" width="320" /></a>यहाँ के बंदरों की तो बात ही मत पूछिए। आँखों से काजल चुराने जैसी बात है। अगर आपका ध्यान कहीं भटका और तनिक असावधान हुए तो आपकी आँखों पर लगा चश्मा भी गायब हो सकता है। आप मुंह फ़ाड़े देखते रह जाएगें।पिछली बार जब हम राम लला के दर्शन करने जा रहे थे, तब जाली वाले गेट के पास एक बंदर ने कमलेश का एक हाथ पकड़ लिया और अपना एक हाथ उसकी पैंट की जेब में डाल दिया। मैं आगे चल रहा था, पीछे से कमलेश आवाज दे रहा था, अंकल-अंकल! मैने पीछे मुड़ कर देखा तो नजारा देखने लायक था। कमलेश के चेहरे से हवाईयाँ उड़ रही थी। बंदर ने उसे काबू में कर रखा था। मैने बंदर को घुड़की थी, मतलब उसकी बोली में समझाया तो उसने कमलेश की जेब में रखी टिकिट की फ़ोटो स्टेट कापी निकाल ली और भाग गया। एक आदमी ने प्रसाद चढाने के लिए हाथ में रखा था, उसे लेकर भाग गए। वह आदमी हड़बड़ा गया। राम लला की सुरक्षा करने के लिए सुरक्षा बल तैनात हैं। एक-एक आदमी की खाना तलाशी लेते हैं। मैटल डिटेक्टर से लेकर मैनुअली भी चेक करते हैं, साथ ही बंदर भी सुरक्षा जांच में अपनी भूमिका निभाते हैं। बची-खुची जाँच ये पूरी कर लेते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-p5rnlcMGX_U/TuhCEmP4zBI/AAAAAAAAE5k/HFd6emfRdjE/s1600/Image6406.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-p5rnlcMGX_U/TuhCEmP4zBI/AAAAAAAAE5k/HFd6emfRdjE/s320/Image6406.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">एक व्यक्ति ने कहा कि सुरक्षा बलों की ड्यूटी सरकार ने फ़ालतू ही लगा रखी है। सारी जाँच तो बंदर ही पुरी कर लेते हैं। मजाल है कोई कुछ लेकर भीतर चला जाए। एक बार कोई सायकिल पर टिफ़िन लेकर जा रहा था, बंदर ने उसका टिफ़िन छीन लिया। बंदर द्वारा टिफ़िन छीनते ही वह व्यक्ति सायकिल छोड़कर भाग गया। टिफ़िन खोलने पर उसमें से विस्फ़ोटक पदार्थ निकला। जो सुरक्षा बल नहीं पकड़ पाए, उसे बंदरों ने पकड़ लिया। रामलला का एक अघोषित अदृश्य सुरक्षा घेरा बंदरों का भी है, लगता है जिसे तोड़ पाना किसे के बस की बात नहीं। मेरे सामने ही एक महिला का पर्स ले भागे, पेड़ पर चढ कर उसे फ़ाड़ दिया और उसका सामान एक-एक करके उड़ाते रहे वह महिला सामान बिनती रही। उसके पर्स में रुपए भी थे उसे भी फ़ाड़ कर फ़ेंकते रहे। एक व्यक्ति ने भजनों की सीडी खरीदी थी, वह थोड़ा असावधान हुआ और उसके हाथ की सीडी ले उड़े। चाहे सामान उनके काम का हो या न हो व्यक्ति के असावधान होते ही हाथ मार देते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-AzX8bhGN9ak/TuhD8HXADFI/AAAAAAAAE5s/HHf5qTExCsE/s1600/pankaj.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-AzX8bhGN9ak/TuhD8HXADFI/AAAAAAAAE5s/HHf5qTExCsE/s320/pankaj.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">हमारे साथ की महिलाएं इन बंदरों से बहुत परेशान थी, काकी के ने आधा किलो सेव लिए थे, उसकी थैली हाथ में धरे थी कि कहीं बैठ कर खाई जाएगी। मंदिर कार्यशाला से आते हुए हम मणिराम दास की छावनी की ओर जाने वाले गली में जैसे ही मुड़े वहां 100 से अधिक बंदरों ने रास्ता घेर रखा था। महिलाएं उस रास्ते पर जाने से डर रही थी, मैने बंदरो को घुड़की दी, हाथ में ले रखी छड़ी से डराया तो पेड़ की डाल पर चढ गए, कोई मुंडेर पर बैठ गया, हम चौकन्ने होकर गली पार करने लगे। काकी ने सेव की थैली पीछे हाथ करके साड़ी में छिपा ली। पता नहीं कहां से एक छोटी सी बंदरिया आई और थैली पर झपट्टा मार कर भाग गयी। काकी देखते ही रह गयी। उसका ध्यान बड़े बंदर पर था पर कमाल छुटकी बंदरिया कर गयी। इनका गिरोह अपने इलाके में रहकर ही वारदात करता है। दुसरे के इलाके में जाने पर इनमें युद्ध भी होता है। कई बंदर तो हाथ-पैर भी गंवा चुके है। पर खाने के लिए उद्यम तो करना ही पड़ता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-EUyTqK-neUQ/TuhGzMqR7qI/AAAAAAAAE50/rg8wOPzvWKc/s1600/IMG_1926.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-EUyTqK-neUQ/TuhGzMqR7qI/AAAAAAAAE50/rg8wOPzvWKc/s320/IMG_1926.JPG" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">पान ठेले वाले ने बताया कि बंदरों की टोलियाँ पूरे नगर में घूमते रहती हैं। जिसका घर खुला दिखा तो पूरी सेना ही भीतर घुस कर उसे तहस नहस कर देती है। कपड़े भी बाहर सुखाना मुश्किल है। पता नहीं दुबारा मिलेगें कि नहीं। हड़काने पर काट लेते हैं, नोच लेते हैं। बंदरों ने बड़ा आतंक मचा रखा है। यही हाल फ़ैजाबाद नगर का भी है। वहाँ भी बंदरों के आतंक से लोग त्रस्त हैं। बताते हैं कि बंदरों के विरुद्ध 10 हजार शिकायत पत्र फ़ैजाबाद के डीएम के दफ़्तर में जमा हैं, इन शिकायत पत्रों से डीएम का दफ़्तर अटा पड़ा है। जिला अस्पताल में एक महीने में बंदरों द्वारा काटे जाने के सौ-दो सौ मामले आ जाते हैं। लगभग इतने ही मामले प्राईवेट अस्पतालों में जाते हैं। मंदिर-मस्जिद मुद्दे से अधिक बड़ा अयोध्या वासियों के लिए बंदरों से मुक्ति का मुद्दा है। इसके लिए जन अभियान चलाने जैसी योजना भी सामने आ रही है। बताते हैं कि इस इलाके में 20 हजार से अधिक बंदर हैं। इन्हे शहर से अलग बसाने के लिए अभ्यारण्य तैयार करने की मांग उठने लगी है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-tiJUbhj1KCI/TuhIA8jpWEI/AAAAAAAAE58/hKXUPL2ZVlU/s1600/blog4-lalit.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="224" src="http://1.bp.blogspot.com/-tiJUbhj1KCI/TuhIA8jpWEI/AAAAAAAAE58/hKXUPL2ZVlU/s320/blog4-lalit.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">भारत में बंदरों के साथ धार्मिक आस्था भी जुड़ी हुई है, इसलिए बंदरों को मारा नहीं जाता, कोई भी इन्हे हानि नहीं पंहुचाता, तभी बजरंग बली की यह सेना बेखौफ़ होकर नगर में लूट-पाट करते फ़िरती है। शहर के बीच-बाजार में कहीं पर भी फ़ल फ़्रूट की दुकान के पास आपको देख कर दांत किटकिटाते मिल जाएगें। स्टेशन पर लगी हुई टीन की चद्दरों पर धमाचौकड़ी करते हुए इनका दल यात्रियों को डराते-सहमाते रहता है। चलती गाड़ी के डिब्बों पर चढ कर करतब दिखाते हैं। यहाँ के निवासियों को तो बंदरों के कारनामे झेलने की आदत पड़ गयी है, पर बाहर से आने वाले दर्शनार्थियों से इनका मिलना त्रासदी पूर्ण ही है। कुछ लोगों की पेट रोजी ये बंदर ही चला रहे हैं। लोगो ने बंदरों का दाना बेचने की दुकाने खोल रखी हैं जहाँ से खरीद कर श्रद्धालु इन्हे भक्ति भाव से खिलाते हैं। पर बंदर आखिर बंदर ठहरे, अपनी आदतों से बाज नहीं आते। बंदरों को भी ब्लॉगरी मौज लेने की आदत पड़ गयी है। पहले तो चलते आदमी को छेड़ते हैं,फ़िर उसके खिसियाने पर पेड़ की डाल पर बैठ कर दांत निपोरते हुए मौज लेते हैं। यही सलाह है कि बंदरों बच के रहें तभी सही है अन्यथा बंदर तो ...........। </div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-1313784460581618572012-04-23T16:12:00.000+05:302012-04-23T16:12:08.282+05:30अनवरत रामलीला और ददुवा राजा का महल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-sXrpBDGH8EM/TubSPBpNmWI/AAAAAAAAE30/xBQD5Z81MB8/s1600/315052_180221772069659_100002455129018_371797_89186457_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-sXrpBDGH8EM/TubSPBpNmWI/AAAAAAAAE30/xBQD5Z81MB8/s320/315052_180221772069659_100002455129018_371797_89186457_n.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;">बि</span>ड़ला मंदिर की घंटियों की आवाज से नींद खुली, मंदिर की घंटियों की आवाज से नींद का टूटना, अच्छा लग रहा था। कमरे की पिछली खिड़की से रोशनी आ रही थी। मच्छर न होने के कारण रात को चैन की नींद आयी। रात चैन की नींद आए तो आने वाली सुबह खुबसूरत हो जाती है, थकान उतरने के बाद की ताजगी चाय की भाप की खुश्बू के साथ बढ जाती है। पंकज तैयार हो रहा था, हमें आज घर की ओर चलना है, नौतनवा एक्सप्रेस सवा दो बजे मिलेगी, जो हमें सीधे ही अयोध्या से रायपुर तक पहुंचा देगी। पंकज की इच्छा अयोध्या में घुमने की थी, मेरे मन में रुम चेक आऊट कर सामान सहित सायबर कैफ़े में बैठने की। जीत पंकज के ईरादों की ही हुई, हम स्नान कर के पुन: अयोध्या की गलियों का खाक छानने निकल पड़े। कल हमने अयोध्या शोध संस्थान का बोर्ड एक जगह लगे देखा था। पंकज भी वहीं जाना चाहता था। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-X13xnAr_KSs/TubSoztmF9I/AAAAAAAAE38/SoF5FVgTTYo/s1600/377100_180221518736351_100002455129018_371791_992580123_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="247" src="http://2.bp.blogspot.com/-X13xnAr_KSs/TubSoztmF9I/AAAAAAAAE38/SoF5FVgTTYo/s320/377100_180221518736351_100002455129018_371791_992580123_n.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br />
रास्ते में हमें एक महल दिखाई दिया, इस महल का सिंह द्वारा बड़े की कलात्मक रुप से बनाया गया था। कैमरे के लैंस में सिंह द्वार का त्रिआयामी स्वरुप दिख रहा था। सिंहद्वार पर काई जम चुकी है, लगता है बरसों से साफ़ सफ़ाई और चूना पुताई नहीं हुई है, एक घड़ी भी सिंह द्वार पर लगी है। घड़ी अभी बंद है, लेकिन इसे देख कर लगता है कि इसकी रौनक किसी जमाने में रही होगी। जब अयोध्या नगरी को इससे ही समय की सूचना मिलती होगी। यह महल किसका है, इसका मुझे पता नहीं था और इसके विषय में सुना भी नहीं था, लेकिन इस महल का प्रांगण काफ़ी बड़ा है तथा भीतर रिहायश भी है। महल के सिंहद्वार के सामने खैनी घिसते हुए युपी पुलिस के नौजवान मिले। पूछने पर उन्होने बताया कि यह "ददुवा राजा" का महल है, हमें तो बस इतना ही पता है। हमें भी इसके विषय में अधिक जानकारी देने वाला कोई नहीं मिला। (अगर किसी ब्लॉगर मित्र को इसके विषय में जानकारी है तो टिप्पणी के माध्यम से अवगत कराएं)</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-Q9Hiq40Y-yY/TubTIjPfgTI/AAAAAAAAE4E/3U-U5DtX79E/s1600/IMG_2094.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"></a><a href="http://3.bp.blogspot.com/-Q9Hiq40Y-yY/TubTIjPfgTI/AAAAAAAAE4E/3U-U5DtX79E/s1600/IMG_2094.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-Q9Hiq40Y-yY/TubTIjPfgTI/AAAAAAAAE4E/3U-U5DtX79E/s320/IMG_2094.JPG" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">ददुवा राजा के महल से हम अयोध्या शोध संस्थान की ओर चल पड़े, हमें पता चला था कि यह 11 बजे खुलता है। हम भी 11 बजे ही वहाँ पहुंचे, पोर्च में दो सज्जन धूप सेक रहे थे, हमने उनसे पूछा कि - शोध संस्थान के विषय में जानकारी लेनी है तो उन्होने भीतर जाने का ईशारा कर दिया। भीतर पहुंचे तो संग्रहालय और पुस्तकालय दिखाई दिया। पुस्तकालय में कुछ लोग अखबार पढ रहे थे और कुछ लोग अपने मतलब की किताबें मनन कर रहे थे (बांचने की सुविधा नहीं है:) एक महिला झाड़ू लगा रही थी, पंकज ने एक मुर्ती की फ़ोटो खींचनी चाही तो उसने चिल्ला कर कहा -" फ़ोटु खींचना मना है, जानते नहीं का, आप काहे फ़ोटो ले रहे हैं?" शायद पंकज नहीं जानता था। वैसे सभी जगह के संग्रहालयों में चित्र लेना मना है, चित्र लेने के लिए संग्रहालय के निदेशक या इंचार्ज की अनुमति की आवश्यकता होती है। भीतर पहुंचने पर संग्रहालय के इंचार्ज मानस तिवारी जी से भेंट हुई। उनसे संग्रहालय और शोध संस्थान के विषय में विस्तार से चर्चा हुई।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-foJC_3NDOFM/TubU7mpjjVI/AAAAAAAAE4U/Twidd-7U7L0/s1600/Image6448.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-foJC_3NDOFM/TubU7mpjjVI/AAAAAAAAE4U/Twidd-7U7L0/s320/Image6448.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">चर्चा के दौरान उन्होने बताया कि इस भवन में तीन ईकाइ हैं, 1- राम कथा शोध संस्थान, 2- संग्रहालय, 3- पुस्तकालय। यहाँ पर उत्त्खनन में पाई जाने वाली मुर्तियों का पंजीकरण किया जाता है इसके साथ ही उनका संरक्षण एंव दस्तावेजीकरण भी किया जाता है। रामकथा से संबंधित शोध सामग्री, पाण्डुलिपियाँ, वैदिक संस्कृत साहित्य यहाँ के पुस्तकालय में उपलब्ध हैं जिसका उपयोग शोध के लिए होता है। इस संस्थान की अयोध्या में शुरुवात 1988 में हुई थी और इसका मुख्य उद्देश्य राम के संदर्भ में मिलने वाली सभी सामग्रियों का संरक्षण, दस्तावेजीकरण, एवं प्रदर्शन करना है। समय समय पर यहां कार्यशालाओं का भी आयोजन किया जाता है। विश्व के 22 देशों में रामकथा का प्रचार प्रसार हैं। विदेशों से प्राप्त रामकथा संदर्भ सामग्री भी यहां उपलब्ध है, कम्बोडियाई रामायण के पात्रों का भी यहाँ प्रदर्शन किया गया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-RvxONy3WJ1g/TubVafMb8sI/AAAAAAAAE4c/Uc9CJjTFhRg/s1600/IMG_2124.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-RvxONy3WJ1g/TubVafMb8sI/AAAAAAAAE4c/Uc9CJjTFhRg/s320/IMG_2124.JPG" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">महत्वपुर्ण बात यह है कि विगत साढे छ: वर्षों से यहाँ प्रतिदिन अनवरत राम लीला का आयोजन हो रहा है। राम लीला नित शाम 6 से9 बजे तक होती है। इसकी जानकारी हमें नहीं थी अन्यथा रामलीला का आनंद लेते। मानस तिवारी ने बताया कि सम्पुर्ण भारत से साल भर के लिए रामली्ला मंडलियों को बुक कर लिया जाता है। एक मंडली 15 दिनों तक अपनी प्रस्तूति देती है। राम जन्म से लेकर राज्याभिषेक तक राम लीला का प्रदर्शन होता है। सतना की रामलीलाओं की उन्होने काफ़ी बड़ाई की। छत्तीसगढ से शायद ही किसी राम लीला मंडली ने अयोध्या में अपना प्रदर्शन किया होगा। रामलीला मंडलियों को प्रदर्शन करने का मेहनताना प्रतिदिन 5000 रुपए दिए जाता हैं। यह एक अच्छा प्रयास लगा। लेकिन इसकी जानकारी बाहर से आने वाले दर्शनार्थियों को होनी चाहिए। इसके प्रचार प्रसार के लिए स्टेशन एवं बस स्टैंड में फ़्लेक्स बेनर लगाए जाने चाहिएं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-_P-YqOtBOKo/TubWP8Hfa_I/AAAAAAAAE4k/RinL1FF2zJY/s1600/Image6405.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-_P-YqOtBOKo/TubWP8Hfa_I/AAAAAAAAE4k/RinL1FF2zJY/s320/Image6405.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">संग्रहालय में शुंग एवं कुषाण काल के पुरावशेष प्रदर्शित हैं। राम जन्म भूमि के उत्खनन से प्राप्त तीनों चरणो के पुरावशेष भी हैं। यहां राम वन गमन मार्ग की चित्रावलियाँ प्रदर्शित की गयी है। इन चित्रों भगवान ने जहां भी गए हैं उसे दिखाया गया है। मानस तिवारी ने बताया कि दिल्ली के रामअवतार शर्मा जी ने इस पर बहुत काम किया है। भगवान राम की दो यात्राओं का जिक्र उन्होने अपनी प्रदर्शनी में किया है। 1- विश्वामित्र के साथ जनकपुर जाकर धनुष यज्ञ से लौटने तक, 2- 14 वर्ष के वन गमन एवं लंका विजय करने तक। रामअवतार शर्मा जी ने सभी प्रदेशों से गुजरते हुए यहां की मिट्टी एकत्र कर उससे राम चरण चिन्ह बनाकर स्थापित किए हैं। मानस तिवारी ने हमें संग्रहालय के बाहर लगी मुर्तियों एवं चित्रों की फ़ोटो लेने की छूट दे दी। हमने कुछ चित्र लिए। उन्होने आगंतुक पुस्तिका में मुझे अपने विचार दर्ज करने कहा। मैने भी आधा पृष्ठ टीप दिया और हम वापस बिड़ला धर्मशाला की ओर चले। मैं सायबर कैफ़े से मेल चेक करने लगा और पंकज गायत्री मंदिर की ओर चला गया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-19GSR0NGLRY/TubYgHY0BhI/AAAAAAAAE4s/1JjVSX8yWts/s1600/Image6451.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-19GSR0NGLRY/TubYgHY0BhI/AAAAAAAAE4s/1JjVSX8yWts/s320/Image6451.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">1 बजे पंकज वापस आया, हमने धर्मशाला का कमरा छोड़ा 150 - रुपए प्रतिदिन के हिसाब से दक्षि्णा जमा कराई, मैनेजर कुछ काईयाँ किस्म का लगा, सबसे 100 रुपए ले रहा था और हमसे 150 सौ रुपए लिए, एवं उसकी रसीद भी नहीं दी। जय बिड़ला से्ठ की, पता नहीं कितने ऐसे ही पल रहे हैं भगवत कृपा से। हम अपना सामान लेकर 11 नम्बर की सवारी से स्टेशन चल पड़े, हमारे अन्य साथी भी ऑटो से पहुंच रहे थे। चौरसिया जी स्टेशन के बाहर खड़े होकर किसी भुले बिसरे को ढूंढ रहे थे। नौतनवा एक्सप्रेस थोड़ी विलंब से आई, लेकिन सही आई, अयोध्या में मात्र 2 मिनट का ही ठहराव है, इतने कम समय में सवा सौ सवारियों का मय सामान चढना कमाल ही है। ट्रेन चलते ही किसी ने ट्रेन की हवा खोल दी, गाड़ी फ़िर रुक गयी, जो न चढे होगें वो भी चढ लिए। अयोध्या नगरी को प्रणाम कर एवं स्वागत सत्कार करने वालों को धन्यवाद देकर हम चल पड़े अपने गंतव्य की ओर।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-rkP5900r5bw/TubY7WcS26I/AAAAAAAAE40/z3nMO7cXrho/s1600/Image6454.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-rkP5900r5bw/TubY7WcS26I/AAAAAAAAE40/z3nMO7cXrho/s320/Image6454.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">भजन मंडली ने भजन गाने शुरु कर दिए। हम भी साथ में रम गए, बंछोर जी गाने लगे "हमने आंगन नहीं बुहारा, कैसे आएगें सांवरिया" आंगन बुहारने के बाद निमंत्रण देना था सांवरिया को, पहले ही दे आए अब भुगतो। बंछोर जी की बेटी ने भी एक दो भजन गाए। समय कटने लगा सिमरन के साथ। तभी एक छोटा सा बच्चा भी अपनी माँ से पीछा छुड़ाकर मेरे पास पहुंचा और गोदी में बैठने के लिए हाथ बढाए, कमाल हो गया भाई, यहाँ तो मुहल्ले के सारे बच्चे मेरी गाड़ी की आवाज सुनकर घर के भीतर घुस जाते हैं। इस बच्चे ने बड़ी हिम्मत की। वह भी भजन सुनने लगा और डफ़ली की ताल में मुड़ हिलाने लगा। काफ़ी देर तक मेरी गोद में बैठा रहा, अधिक देर होने पर बच्चे को उसकी माँ के पास छोड़कर आया। बच्चे भगवान का रुप होते हैं, निश्छल और निर्विकार। स्वामी जी टिकिट चेक कराते घूम रहे थे। नौतनवा एक्सप्रेस से मैं पहले भी अयोध्या आ चुका हूँ, छत्तीसगढ से यही एक मात्र गाड़ी है जो अयोध्या पहुंचाती है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-c5rZLBKjYsI/TubZ2bGw0DI/AAAAAAAAE48/rt3d23-OEWU/s1600/Image6456.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-c5rZLBKjYsI/TubZ2bGw0DI/AAAAAAAAE48/rt3d23-OEWU/s320/Image6456.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">सुबह पेंड्रारोड़ के आस-पास नींद खुली। स्वामी जी मौन थे, बस हाथ और उंगली के ईशारे से काम चला रहे थे। दुनिया चाँद पर पहुंच कर मंगल पर जाने की तैयारी कर रही है और ये पुन: पाषाण युग में जा रहे हैं। इनकी कथा तो अकथ है अगर लिखने लगुं तो दो चार पुस्तकें लिखी जा सकती है। जब से मुड़ मुड़ाए हैं तब से ज्ञान का सागर ही उमड़ आया है। साबुन एवं शेविंग क्रीम का उपयोग नहीं करते। पैंट-पैजामा की जगह धोती पहनकर घुमते हैं। शेविंग क्रीम की जगह छाछ का उपयोग करते हैं। सप्ताह में दो दिन अस्वाद भोजन करते हैं। प्रतिदिन आठ बजे तक मौन रहते हैं। बीमार होने पर एलोपैथिक दवाई का उपयोग नहीं करते और जब कहीं माईक मिल जाता है तो बस मत पूछिए, सुनने वाला थककर सो जाएगा ये चुप नहीं होते, बिजली बंद करने पर भी बिना माईक के चालु रहते हैं। निराली ही आत्मा है। सुबह सुबह भाभी जी ने इन्हे खड़का दिया "हमें ये सब ढोंग धतुरा पसंद नहीं है, जैसे थे वैसे ही रहिए" अब कहां से वैसे रहेगें, आपने तो इन्हे कहीं का नहीं छोड़ा, जब ये सब सांसारिक बुराईयों को छोड़ चुके हैं तो कह रही हैं कि पहले जैसे नहीं रहे, बदल गए हैं, मैने भाभी जी से कहा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-zlIDpG6K3dk/TubaZj8-ZQI/AAAAAAAAE5E/x7P3mAcymm4/s1600/IMG_1937.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-zlIDpG6K3dk/TubaZj8-ZQI/AAAAAAAAE5E/x7P3mAcymm4/s320/IMG_1937.JPG" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">बिलासपुर पहुचने पर स्टेशन पर नाश्ता किया, इडली का ठेला लगा था, साथ ही उसने ब्रेड आमलेट भी रखा था, स्वामी जी आमलेट उठाकर ठेले वाले पूछने लगे, ये क्या है? मुझे हँसी आ रही थी। ठेले वाले के बताने पर उन्होने तीन बार हाथ धोए और एक बार मुंह धोया। "राम राम ये सब भी रखते हैं, शाकाहारी के साथ।" अरविंद झा भी पहुंच गए स्टेशन पर, उनके साथ चाय पीकर गपशप होने लगी। बहुत दिनों में मुलाकात हुई उनसे। जब हम बिलासपुर आने की सोचते हैं तो ये दरभंगा पहुंच जाते हैं। स्वामी जी एक मंडली को प्रवचन दे रहे थे तम्बाखु, शराब, गुड़ाखु एवं अन्य नशा करने वाली वस्तुओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक हानि होती है। तेजराम, संतोष, इत्यादि प्रवचन सुन रहे थे, अरविंद ने भी हां में हां मिलाई।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-HpG7v2z9Y-M/Tuba9YodmlI/AAAAAAAAE5M/fhA0YP5_5_0/s1600/388617_230766460329724_100001891142356_578406_750474467_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-HpG7v2z9Y-M/Tuba9YodmlI/AAAAAAAAE5M/fhA0YP5_5_0/s1600/388617_230766460329724_100001891142356_578406_750474467_n.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">फ़ोटो गुगल से साभार</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">स्वामी जी के पीठ फ़ेरते ही, तेजराम ने कहा कि-"सुनो सबकी करो अपने मन की, ओखर कहे ले थोड़ी छूट जाही, हमर मन के बात सुन डरेन ओखरो। मुझे तेजराम की कमीनीपतीं पर हंसी आ रही थी, स्वामी जी का पूरा एक घंटा खराब करवा दिया।ट्रेन चल पड़ी, अरविंद से विदा ली, शीघ्र ही फ़िर मिलने का वादा किया, रायपुर स्टेशन पहुंच चुके थे। सभी ने अपने-अपने घर जाने की व्यवस्था कर ली थी। मैं और गिलहरे गुरुजी सिटी बस में सवार होकर जोरा के लिए चल पड़े, भगवान को धन्यवाद दिया, सवा सौं लोगों के साथ 9 दिन की यात्रा करके सही सलामत घर पहुंच गए, कहीं बीमारी, हारी, चोरी, चकारी नहीं हुई, किसी की शारीरिक और मानसिक हानि नहीं हुई। सभी स्वस्थ और सानंद अपने परिजनों से मिल रहे थे। जोरा से हम अपनी गाड़ी लेकर घर पहुंचे।नेट शुरु करते ही सूचना मिली कि बाला साहब ठाकरे की पोती का विवाह हो गया है।</div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-7701433653654919652012-04-23T16:10:00.003+05:302012-04-23T16:10:57.997+05:30पिशाच मोचन इमरती और लिट्टी-चोखा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-PHBK_qLWAhw/TuMYmTgmEeI/AAAAAAAAE2g/SuzzJ62jgbY/s1600/Image6417.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-PHBK_qLWAhw/TuMYmTgmEeI/AAAAAAAAE2g/SuzzJ62jgbY/s320/Image6417.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_15.html">प्रारंभ से पढें </a></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;">ह</span>में जो ऑटो वाला मिला था वह बहुत अच्छा आदमी था, उसने हमें भरत कुंड पहुंचाया, मैने उसे सबके लिए चाय बनवाने कहा और हम मंदिर दर्शन के लिए चल पड़े। मंदिर में पहुचने पर एक जगह लिखा था "भरत गुफ़ा" । बताया गया कि यहाँ भरत जी ने गुफ़ा में रहते थे। कहते हैं कि राम-भरत मिलाप के पश्चात भरत खड़ाऊं लेकर फैजाबाद मुख्यालय से 15 कि. मी. दक्षिण स्थित भरतकुंड नामक स्थान पर चौदह साल तक रहे। भरत कुंड एक ग्राम है जिसे नंदीग्राम कहा जाता है। इस मंदिर से लगा हुआ एक मंदिर और भी वहां भी भरत गुफ़ा बनी हुई है। हमारे एक साथी ने दोनों गुफ़ाओं के विषय में पूछा तो पुजारी ने कहा कि कुछ नगद दिखाओगे तभी जानकारी बाहर निकलेगी। मुफ़त मे कुछु नही मिलेगा। पूछने वाला भी तेली था, न उसने नगद दिए और न पुजारी ने जानकारी उगली। तभी एक बोलेरो वाला मंदिर के गेट को ठोक कर सपाटे से भाग निकला। उसकी स्पीड इतनी थी कि वह कहीं भी दुर्घटना कर सकता था। उसके साथ बालाघाट के दर्शनार्थी थे, उनकी बोली से लग रहा था। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-zc6Gt2M1y48/TuMY_L9BdqI/AAAAAAAAE2o/g7UVfMG5ryw/s1600/Image6427.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-zc6Gt2M1y48/TuMY_L9BdqI/AAAAAAAAE2o/g7UVfMG5ryw/s320/Image6427.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">भरत कुंड</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">यहां से लगा हुआ ही एक कुंड हैं जहाँ हर साल चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को मेला लगता है। मान्यता है कि इस सरोवर में स्नान से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। कुंड कई एकड़ में फ़ैला हुआ है, जलकुंभी ने कुंड पर कब्जा कर रखा है, और बंदरों ने आतंक फ़ैला रखा है, किसी के भी हाथ में जो कुछ दिखा उसे झपट्टा मार कर ले ही जाना है। हमारा इरादा पाप नष्ट करने का नहीं था, अभी कल ही तो सरयू स्नान कर सारे पाप धो लिए थे। पाप नाशक स्नान को मैं कम्पयुटर के एन्टीवायरस प्रोग्राम से ही जोड़ कर देखता हूं, एक बार स्केन याने स्नान कर लो फ़िर सारे पापरुपी वायरस का सफ़ाया हो जाता है। "न सौ काशी न एक पिचाशी।" इन्हीं किंवदंतियों के बीच नंदीग्राम का एतिहासिक पिशाची मेला चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को बदस्तूर जारी है। कुंड से वापस आकर हमने होटल में चाय पी, चाय पीने वाले कम थे और चाय अधिक हो गयी थी, होटल वाले ने 3 चाय वापस लेने से मना कर दिया, प्रताप ने दो चाय ली और मैने भी, मामला फ़िट हो गया।चाय वापस नहीं करनी पड़ी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-urSGnvH0fY4/TuMZew_FRJI/AAAAAAAAE2w/g2qNy4mI6aY/s1600/Image6429.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-urSGnvH0fY4/TuMZew_FRJI/AAAAAAAAE2w/g2qNy4mI6aY/s320/Image6429.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">भरत कुंड के यात्री</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">नंदीग्राम भरतकुंड पिशाची के बारे में दो तरह की किंवदंतिया हैं पहली यह कि लंका में युद्ध के दौरान जब मेघनाद के बाण से लक्ष्मण मूर्छित हो गए थे तो हनुमान जी को संजीवनी बूटी लाने भेजा गया था। बूटी की पहचान न होने के कारण वह पहाड़ उठाकर ही लंका की ओर चल पड़े। जब वे अयोध्या के ऊपर से जा रहे थे तो कुछ देर के लिए समूचे क्षेत्र में अंधकार छा गया। आसमान की ओर देखने पर किसी दानव शक्ति द्वारा अयोध्या पर आक्रमण किए जाने की आशंका में भरत जी ने बाण चला दिया। बाण लगने के कारण हनुमान जी पर्वत समेत गिर गए थे। पुजारी हनुमान दास कहते हैं कि जिस स्थान पर हनुमान जी गिरे थे वहां कुंड बन गया था। उसी को पिशाच मोचन कुंड के नाम से जाना जाता है। दूसरी किंवदंती है कि लंका विजय के बाद भगवान श्रीराम ब्रह्मा हत्या के पाप से मुक्त होने से लिए पिशाच मोचन कुंड में स्नान किया। इस कारण पिशाच मोचन कुंड की मान्यता है कि न सौ काशी न एक पिशाची।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-DrVYBM-9E5c/TuMZ7zX_YBI/AAAAAAAAE24/c7NCCdWYbEU/s1600/Image6430.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-DrVYBM-9E5c/TuMZ7zX_YBI/AAAAAAAAE24/c7NCCdWYbEU/s320/Image6430.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मणि पर्वत का शिलालेख</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">अब यहाँ से हम वापस चल पड़े अयोध्या की ओर, ऑटो चालक से पूछ कि बीच में और कुछ दर्शनीय स्थल हो तो वह भी दिखा दे। तो उसने बताया की रास्ते में मणिपर्वत मिलेगा। मैने कहा कि - मणिपर्वत चलो, वहीं तुम्हारा भाड़ा भी सकेल कर दे देगें। वह तैयार हो गया। हम मणिपर्वत पहुंचे। एक ऊंचा सा टीला है जिसपर मंदिर बना है, यहां के पुजारी ने बताया कि जब सीता जी जनकपुरी से वापस आई थी तब यहीं पर मणियों का पर्वत बना कर सीता जी झूले में झुलाया गया था। यहाँ प्रतिवर्ष सावन मेला लगता है, जिसमें अयोध्या के साते देवी देवता झूला झूलने आते हैं यह उत्सव 12 दिन चलता है। इस उत्सव के लिए प्रशासन सारी व्यवस्था करता है। मेले में लाखों श्रद्धालु सावन झूला पर्व मनाने आते हैं। यह स्थान भारतीय पुरातत्त्व के संरक्षण में है। इस मंदिर में कई शंख रखे हैं, जिनमें एक शंख को पांच्जन्य शंख भी बताया गया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-dBgpmymeFMA/TuMaO8xWjiI/AAAAAAAAE3A/NGEl2PKxgXo/s1600/Image6440.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-dBgpmymeFMA/TuMaO8xWjiI/AAAAAAAAE3A/NGEl2PKxgXo/s320/Image6440.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दीवारों पर वाल्मीकि रामायण</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">मणि पर्वत के दर्शन कर के हम मणिराम की छावनी पहचें। वाल्मीकी रामायण मंदिर भी खुल चुका था। वाल्मीकी रामायण भवन का निर्माण मंहत नृत्यगोपाल दास जी ने कराया था। 1956 में प्रारंभ होकर दस वर्षों में इसका निर्माण 1966 में पूर्ण हुआ, यहां दुनिया का अनोखा रामायण बैंक है, यहां अभी तक 164 अरब से अधिक राम नाम जमा हो चुके हैं।इस बैंक का नाम है 'अंतरराष्ट्रीय श्री राम नाम बैंक।' इस बैंक में राम नाम जमा कराने पर ब्याज भले ही न मिलता हो मगर सच्चा आनंद अवश्य मिलता है। अंतरराष्ट्रीय श्री राम नाम बैंक की स्थापना वर्ष 1963 में अयोध्या में नृत्य गोपालदास महाराज द्वारा की गई थी। गाजियाबाद में इसकी शाखा की स्थापना प्रख्यात संत व कथावाचक डोंगरे जी महाराज ने घंटाघर स्थित रामलीला मैदान में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा के दौरान की थी। आज इस बैंक की देश-विदेश में मिलाकर 125 से अधिक शाखाएँ हैं। गाजियाबाद के हनुमान मंदिर में इसकी 42वीं शाखा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-rwJMkpYwMPs/TuMakkNeuWI/AAAAAAAAE3I/y6vDWlH4qwg/s1600/Image6431.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-rwJMkpYwMPs/TuMakkNeuWI/AAAAAAAAE3I/y6vDWlH4qwg/s320/Image6431.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पाञ्चजन्य शंख</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">बैंक में खाता खोलने के लिए किसी कागजात की नहीं बल्कि राम नाम की जरूरत है। बच्चे, युवा, बुजुर्ग, महिला या पुरुष कोई भी, किसी भी भाषा में सवा लाख सीताराम या राम नाम लिखकर बैंक में अपना खाता खोल सकता है। इतना ही नहीं, जो भक्त नियमित रूप से राम नाम लिखता है, वह बैंक का स्थायी सदस्य बन जाता है और उसे बैंक की तरफ से पास बुक व सदस्यता प्रमाण पत्र भी दिया जाता है। एक करोड़ राम नाम लिखने वाले भक्त को स्वर्ण पदक, पचास लाख राम नाम लिखने वाले को रजत पदक व 25 लाख राम नाम लिखने वाले को काँस्य पदक से सम्मानित किया जाता है। 25 वर्ष की आयु में ही 15 लाख नाम लिखने पर भी काँस्य पदक मिलता है। राम नाम लिखने के लिए वैसे तो बैंक से ही कॉपी मिलती है मगर निजी कापी या डायरी आदि में भी राम नाम लिखकर बैंक में जमा कराया जा सकता है। राम नाम लिखी कॉपियों को अयोध्या स्थित 'श्री वाल्मीकि रामायण भवन' में सुरक्षित रखा गया है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-t4IvWUHugEw/TuMa937NEgI/AAAAAAAAE3Q/LDEa3A9k22U/s1600/Image6442.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-t4IvWUHugEw/TuMa937NEgI/AAAAAAAAE3Q/LDEa3A9k22U/s320/Image6442.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गरमा गरम इमरती </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">रामायण भवन से दर्शन करके हम पुन: उसी रास्ते पर निकल पड़े, रास्ते में एक दर्जी अंगरखा सील रहा था, एक साधु अंखरखे का ट्रायल ले रहा था, मेरे भी मन में एक अंगरखा डोरी वाला सिलाने की आई, लेकिन देर हो चुकी थी। अगर यह दर्जी सुबह दिख जाता तो शाम तक अंगरखा तैयार हो सकता था। अब समय नहीं था, अंगरखा सिलाने की अधुरी इच्छा को फ़िर कभी पर टाल कर आगे बढे, मुख्य मार्ग पर आने तब जोर की भूख लग चुकी थी। एक होटल में गर्मागरम इमरती बन रही थी। लालच आ ही गया, क्या करुं कंट्रोल ही नहीं होता। साथियों से पूछ कि नास्ता करना है क्या? सभी ने न में जवाब दिया, मैं होटल में पहुंचा, इमरती सौ रुपए किलो थी, होटल का नाम सौरभ होटल, एक पाव इमरती ली, एक पाव में 10-12 इमरतियाँ तो चढ गयी। तीना चार इमरतियाँ होटल में ही खड़े-खड़े उदरस्थ की, बाकियों को थैली में बंद करके आगे बढे, मुझे इमरतियाँ लेते देख कर दो चार साथियों ने भी खरीदी। मैने सभी से खाने के विषय में पूछा तो उन्होने सभी का खाना गायत्री मंदिर में बनना बताया। सबको लेकर जब गायत्री मंदिर पहुंचा तो देखा कि वहां कुछ लोगों का ही खाना बन रहा है। अब मेरी बात न मानने की सजा भुगतो। कह कर मैं बिरला धर्मशाला की ओर बढ लिया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-_3zR8VUP6pw/TuMbsWacmBI/AAAAAAAAE3Y/vc2dnIq0yBM/s1600/lalit+sharma.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="239" src="http://2.bp.blogspot.com/-_3zR8VUP6pw/TuMbsWacmBI/AAAAAAAAE3Y/vc2dnIq0yBM/s320/lalit+sharma.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गुगल सर्च इंजन पर ललित शर्मा</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">रास्ते में दो जगह लिट्टी चोखा मिल रहा था। एक जगह तली हुई बाटी थी, आलू के साग के साथ, दूसरी जगह भुनी हुई बाटी दिखाई दी। मैने दोनो ले ली। अब खाने की जरुरत नहीं थी इनसे ही काम चल जाएगा। रास्ते में सुबह वाला सायबर कैफ़े दिखाई दिया। फ़िर क्या था? घुस गए सायबर कैफ़े में। सायबर कैफ़े के संचालक ने आईडी मांगी। आई डी कार्ड सब मेरे बैग में पड़े थे, मैने कहा कि गुगल पर मेरा नाम सर्च के देखिए। जब उसने हिन्दी में "ललित शर्मा" सर्च किया तो 3 सेकंड में ढाई लाख से उपर लिंक दिखाई दिए और जैसे ही इमेज सर्च की तो सैकड़ो फ़ोटो मेरी सर्च इंजन ने निकाल कर धर दी। उसे देखकर संचालक ने कहा कि "अब आपकी आई डी की जरुरत नहीं है, आप तो गुगल में सर्वत्र व्यापक हैं। चलाईए इंटरनेट, ब्लॉगिंग का यह फ़ायदा हुआ। अब पहचान पत्र रखने की आवश्यकता नहीं है। हमारी पहचान गुगल पर स्थापित हो चुकी है। कैफ़े से मेल आदि चेक किए और ब्लॉग पर दो फ़ोटो लगा कर अपने रुम में पहुचा। पंकज का चेतन भगत से पीछा नहीं छूटा था, कह रहा था कि बड़ा बोरिंग उपन्यास है, उपन्यास का नाम मैं भूल रहा हूँ। दोनो ने लिटी चोखा खाया इमरती के साथ और मैं आम्रपाली के सपनों में खो गया।-- <a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_15.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-42674046850566448152012-04-23T16:10:00.000+05:302012-04-23T16:10:04.636+05:30अरे! मारिए दू चार गदा इनको<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-u6fNcqR3YsA/TuLybPlzEPI/AAAAAAAAE04/dQAf5fLneeg/s1600/IMG_2064.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="http://4.bp.blogspot.com/-u6fNcqR3YsA/TuLybPlzEPI/AAAAAAAAE04/dQAf5fLneeg/s320/IMG_2064.JPG" width="240" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सुबह का नाश्ता</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_15.html">प्रारंभ से पढें </a><br />
<span style="color: red; font-size: large;">रा</span>त खूब सोना बनाया, मन-तन की थकान दूर हो गयी थी। चिड़ियों की चहचहाट सुनाई दे रही थी, बाहर बरामदे में गौरैया फ़ुदक रही थी। बरामदे में ही कुर्सी डालकर बैठा, चाय वाला भी आ गया। मैने कहा कि डबल चाय चाहिए, रात की खुमारी उतराने के लिए। काफ़ी दिनों से स्नान के लिए गर्म पानी नहीं मिला, ठंडे पानी से ही हर हर गंगे कर रहे थे। आज भी कोई चांस नहीं था गर्म पानी मिलने का। हवा में थोड़ी ठंडक थी, पर नहाना ही था। कभी-कभी नहाना भी बड़ी मजबुरी बन जाता है। डबल चाय ने राहत दी, इंजन गर्म हो गया, अब ठंडे पानी का कोई खास असर नहीं होने वाला था। चलो नहा लिया जाए, गायत्री मंदिर में साथी प्रतीक्षा कर रहे थे। पंकज भी तैयार हो चुका था, हम गायत्री मंदिर की ओर चल पड़े। आज नाश्ते में सिर्फ़ दही और केला खाया। सुबह - सुबह दही केले की ही दरकार थी, आधे दर्जन केले दही के साथ पेट के हवाले किए और पंकज ने चने और मुंग लिए। आगे बढे तो एक स्थान पर सायबर कैफ़े दिख गया। वापस आकर यहीं डेरा डालने का इरादा बना। राम लला के दर्शन करने वालों की कतार लगी थी। हमें तो गायत्री मंदिर जाना था.</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-0v-uUEjzmg8/TuLyuURi0XI/AAAAAAAAE1A/NHZReJ-ihj4/s1600/IMG_1959.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-0v-uUEjzmg8/TuLyuURi0XI/AAAAAAAAE1A/NHZReJ-ihj4/s320/IMG_1959.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कनक भवन में सामुहिक फ़ोटो</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">गायत्री मंदिर पहुंचने पर देखा कि सभी साथी तैयार हो गए हैं और अग्निहोत्र भी सम्पन्न हो चुका है। कहने लगे चलिए अब किधर चलना है? जिधर रास्ता जाता है उधर ही चलना है, कम से कम अयोध्या की गलियों को तो घूम कर देखा जाए। यहां घूमने के लिए तो लोग किराया भाड़ा खर्च करके आते हैं। पैदल - पैदल हम लोगों का दल निकल पड़ा दर्शन को। सबसे पहले रास्ते में आया कनक भवन। बड़ा ही सुंदर बना है, कहते हैं कि ब्याह कर आने के बाद सीता जी को माता कैकयी ने उपहार स्वरुप यह महल दिया था। यह भवन सीता एवं श्री राम जी का निज भवन माना जाता है, यहाँ इन दोनो के अतिरिक्त किसी तीसरे की मूर्ति स्थापित नहीं है। स्वर्ण आभा भवन आलोकित हो रहा था, ऐसा लग रहा था कि सोने का ही बना हो। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-ndAJZKr-uRg/TuL9ePO00FI/AAAAAAAAE1g/385H4SUZz30/s1600/Image6369.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-ndAJZKr-uRg/TuL9ePO00FI/AAAAAAAAE1g/385H4SUZz30/s320/Image6369.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">दशरथ महल</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">किवदंती है कि कनक भवन 5 कोस में बना था। इसकी भव्यता देखते ही बनती थी। वर्तमान में बना हुआ कनक भवन 300 साल पुराना है, इसे ओरछ स्टेट मध्यप्रदेश की महारानी ब्रृजभानि कुंवरी ने ईश्वरीय प्रेरणा से बनवाया था और ऐसा ही एक मंदिर ओरछा में भी बनवाया। मंदिर के प्रांगण में हमने स्मृति स्वरुप एक सामुहिक चित्र भी लिया। ताकि सनद रहे वक्त जरुरत पर काम आवे। कनक भवन से आगे हनुमान गढी की तरफ़ आने पर राजा दशरथ का महल पड़ता है। इस महल के सामने दुकान एवं होटल वालों का कब्जा है, यत्र-तत्र गंदगी बिखरी हुई थी। हम दशरथ जी का महल देखने पहुंचे। आरती हो रही थी, आरती के बाद कुछ देर बैठकर साथियों ने वहां कीर्तन किया,"श्रीराम जय राम जय जय राम, सीता राम मनोहर जोड़ी, दशरथ नंदन जनक किशोरी"। कीर्तनोपरांत बाहर आए तो मंदिर परिसर में ही। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-8sMQ7CWnUHE/TuL1Lc7sYHI/AAAAAAAAE1Q/Q-GytwX6Mxc/s1600/379047_180221032069733_100002455129018_371784_1437799983_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-8sMQ7CWnUHE/TuL1Lc7sYHI/AAAAAAAAE1Q/Q-GytwX6Mxc/s320/379047_180221032069733_100002455129018_371784_1437799983_n.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सुग्गे की भवि्ष्यवाणी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">सुग्गा भविष्य बता रहा था। मुझे सुग्गे की फ़ोटो की जरुरत थी, इसलिए पंकज को फ़ोटो लेने का ईशारा करके सुग्गे वाले से भविष्य दिखाने लगा। 5 रुपए में एक कार्ड निकलवा रहा था। मुझे देख कर और भी साथी भविष्य जानने लग गए। सुग्गे वाले पहले मेरा नाम पूछा और फ़िर सुग्गे ने मेष राशि का कार्ड निकाल दिया। सब हाथ की सफ़ाई का कमाल था। उसने 12 राशियों के कार्डों पर अलग अलग पहचान चित्र बना रखे थे, चिड़िया को पिंजरे से निकाल कर उसके सामने 4-5 कार्ड ले जाता था, वह उस लिफ़ाफ़े से कार्ड नहीं निकालती थी। जिस कार्ड के सामने काले रंग ला टेप लगा था उसे ही चिड़िया निकालती थी, मैने यही ध्यान से देखा। सबकी पेट रोजी लगी है, सभी का अपना अपना धंधा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-fZpeVfUQaTg/TuL_ulvMYJI/AAAAAAAAE1o/fsVUw3yCkrM/s1600/Image6374.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-fZpeVfUQaTg/TuL_ulvMYJI/AAAAAAAAE1o/fsVUw3yCkrM/s320/Image6374.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कार्ड निकालता सुग्गा</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">मैने कार्ड निकलवाए तो साथियों ने भी देखा देखी निकलवाने शुरु कर दिए,चौरसिया जी, नीरु, गणेशु, सुखचंद यादव एवं अन्य लोगों ने भी सुग्गे से कार्ड निकलवाए, सुखचंद जी के कार्ड में भविष्य में होने वाली कुछ समस्या निकल आई , चश्मा न होने के कारण उन्होने अपना कार्ड देवयानी चंद्राकर से पढ कर सुनाने कहा। भविष्यवाणी उनकी पत्नी ने भी सुन लिया। वह बोली - (तेखरे सेती त मैं मना करत रहेवं, अब भुगत तैंहा, आनी-बानी के गोठ बतावत हे) इसीलिए तो मैं मना कर रही थी, अब देखो सब गड़बड़ भविष्य बता रहा है। सुनते ही सुखचंद जी का पारा चढ गया - मैं तो कमावत हंव न, तोला काय परे हे, चुप राह" (मैं तो कमा रहा हूँ, तेरे क्या लेना देना! चुप रह) अगर वह चुप न होती तो वहीं दोनो में फ़ायटिंग हो जाती और तीन तलाक की नौबत आ जाती, सुग्गे की भविष्यवाणी सच हो जाती।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-ew374vHvQAw/TuL1mtuLygI/AAAAAAAAE1Y/6YUoo12GYZw/s1600/IMG_1933.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-ew374vHvQAw/TuL1mtuLygI/AAAAAAAAE1Y/6YUoo12GYZw/s320/IMG_1933.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">ठग्गु के लड्डू</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">दशरथ महल से दर्शन करने के बाद <a href="http://www.hanumangadhi.com/index_next.php">हनुमान गढी</a> की ओर बढे, पंकज फ़ोटो लेने में मशगूल था, हमने लड्डू लिए और पुन: लाल लंगोटे वाले के दरबार में पहुंच गए। "जय बजरंग बली की, साथियों ने जयकारा लगाया। मुख्य मंदिर तक पहुंचने के लिए 76 पैड़ियों से जाना पड़ता है, कहते हैं कि हनुमान जी यहीं गुफ़ा में रहते थे, अब गुफ़ा तो कहीं नजर नहीं आती पर बालरुप में हनुमान जी, माता अंजनी सहित विराजमान हैं। देशी घी का छौंक और विलायती घी के लड्डू इन्हे बहुत रास आ रहे हैं। देशी के नाम पर विलायती घी के लड्डू बेच कर दुकानदार माला माल हुई जा रहे हैं। डालडा घी के लड्डूओं को देशी घी का बता कर दावे से बेचा जा रहा है। धड़ल्ले से लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-wqDm36hwZAs/TuMBRsJRS3I/AAAAAAAAE1w/CmF5SPJSCQ8/s1600/Image6377.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-wqDm36hwZAs/TuMBRsJRS3I/AAAAAAAAE1w/CmF5SPJSCQ8/s320/Image6377.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">हनुमान गढी का मुख्य द्वार</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हमने बजरंग बली से विनती की। आप नगर के कोतवाल हैं, भगवान ने आपको अयोध्या में रहने के लिए स्थान दिया है। कैसी भर्राशाही चल रही है? पूरा अयोध्या गंदगी से बजबजा रहा है, जहाँ देखो वहीं मल,शौच कचरा पड़ा हुआ है। घर का कचरा लोग सड़क पर ही डाल देते हैं, कहीं भी हगो-मूतो। जितना रुपया देश से अयोध्या के नाम पर लिया गया, अगर उसका एक प्रतिशत ही यहाँ लगा देते तो बाहर से आए दर्शनार्थियों को शर्मिन्दा नहीं होना पड़ता। जरा देखिए वीर हनुमान, इन्हे भी सुधारिए, लंका के रावण को तो सुधार दिया था, इन्हे कब सुधारेगें? आपकी नाक के नीचे ही ठगी-फ़ुसारी का खेल चालु है। अरे! मारिए दू-चार गदा इनको। तभी तो सुधरेगें, लूटम-लूट मचाए हुए हैं। चारों तरफ़ गंदगी फ़ैला रखी है। अयोध्या नगरी का बैंड बजा रखा है। लगता है कि आप अपना हिस्सा पाकर चुप बैठ जाते हैं, कलजुग की बीमारी आपको भी लग गयी। अब टंकी अनशन होगा तभी आपको कुछ सुनाई देगा। नहीं तो आपके खिलाफ़ भी आर टी आई लगाना पड़ेगा।:)</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-16WHxj0VV48/TuMCDpY8AlI/AAAAAAAAE14/uevEEeAXkHM/s1600/Image6376.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-16WHxj0VV48/TuMCDpY8AlI/AAAAAAAAE14/uevEEeAXkHM/s320/Image6376.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">देवयानी चंद्राकर अपना भविष्य बंचवाते सुखचंद यादव </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हनुमान गढी से हमें कार्यशाला देखने जाना था जहां पर मंदिर के पत्थरों की घड़ाई हो रही थी। अब यहाँ से हमारा दल दो भागों में बंट गया। आधे इधर गए, आधे उधर गए, बाकी मेरे पीछे आए। हनुमानग़ढी से हम बिरला मंदिर आए, लेकिन मंदिर के पट बंद मिले। दोपहर भी हो रही थी, वहीं सिंधी के होटल में हमने भोजन किया, लगभग 50 लोग तो होंगे ही, महिलाओं की संख्या अधिक थी। होटल वाला भी एक बार में 50 ग्राहक पाकर गद-गद हो गया। दोपहर के भोजन में मैने मीठा दही और रोटियाँ ली। भूख कस के लगी हुई थी, बेरोकटोक रोटियाँ भीतर जाने लगी, बिना टोल टेक्स पटाए ही। तंदूर वाले ने स्पीड पकड़ ली। पर सभी छत्तीसगढिया चावल ही खाने के मुड में थे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-L5YY-4Epbys/TuMDWgsZsqI/AAAAAAAAE2A/e8sY4CUG9YE/s1600/377930_180220608736442_100002455129018_371778_1851602568_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-L5YY-4Epbys/TuMDWgsZsqI/AAAAAAAAE2A/e8sY4CUG9YE/s320/377930_180220608736442_100002455129018_371778_1851602568_n.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बड़ी भूक लगी है</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">मदन साहू ने पूछा कि 35 रुपए की थाली में क्या-क्या देते हैं? बैरा ने बताया कि दो रोटी, हाफ़ चावल, दो सब्जी औए एक दाल, अचार, सलाद मिलेगा। मदन लाल जी का पेट एक थाली में भरने वाला नहीं था, उसने पूछ ही लिया कि "एक बार देगें कि मांगने पर दुबारा भी मिल जाएगा? दुबारा लेने पर एक्स्ट्रा चार्ज लगेगा, बैरे ने कहा। मन मसोस कर मदन साहू ने भी आर्डर दे दिया। सभी लोग भोजन करते में एक डेढ घंटा लग गया। अपने-अपने भोजन के रुपए सभी ने अलग-अलग दिए, यहाँ भी समस्या 500 के नोट के खुल्ले की थी। हरिद्वार से अयोध्या तक बड़ी मुस्किल से 500 के नोट के खुल्ले मिले। पता नहीं आज कल लोग 500 और 1000 के नोटों से इतना क्यों घबराने लगे हैं। सहज कोई लेने को ही तैयार नहीं होता। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-D5VaNgtYl_s/TuMFfOfoPVI/AAAAAAAAE2Q/8c6rIhMqxPo/s1600/Image6397.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-D5VaNgtYl_s/TuMFfOfoPVI/AAAAAAAAE2Q/8c6rIhMqxPo/s320/Image6397.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मंदिर के लिए शिला तराशते शिल्पकार और हमारा दल</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">फ़िर एक बार चल पड़े कार्यशाला की ओर। कार्यशाला रामघाट मार्ग पर बनी हुई है। रास्ते में दोनो तरफ़ गंदगी का आलम इधर भी दिखाई दिया, नालियाँ बजबजा रही थी, मुंह पर कपड़ा रख कर चलना पड़ा। रास्ते में जैन मंदिर और घर्मशाला भी देखी। अंत में कार्यशाला पहुचें,यहां 1992 में भारत के कोने कोने से आई रामशिलाएं भी रखी हुई हैं। मंदिर के पत्थरों की गढाई हमारे आने से 15 दिन पहले ही शुरु हुई थी। इस आशय का समाचार अखबारों में पढा था। कुछ राजस्थान के शिल्पकार लाल पत्थरों पर पत्थरों पर कढाई कर रहे थे। मंदिर के लिए सामग्री निर्माण का कार्य विगत 3-4 वर्षों से बंद था। यहाँ पर मंदिर का माडल भी रखा हुआ है। जिससे हमें मंदिर की विशालता का अंदाज लग जाता है। एक जगह रुक कर जिज्ञासु साथियों साथ प्रश्नोत्तरी भी हुई, उनके प्रश्नों के जवाब भी दिए। मुफ़्त का गाईड सभी को अयोध्या भ्रमण करा रहा था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-ClOnI5PAWbs/TuMFwsBo4yI/AAAAAAAAE2Y/amvQuqBqoWE/s1600/Image6409.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-ClOnI5PAWbs/TuMFwsBo4yI/AAAAAAAAE2Y/amvQuqBqoWE/s320/Image6409.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मणिराम की छावनी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">कार्यशाला से निकल कर संकरी गलियों से होते हुए हम मणिराम की छावनी पहुंचे। छावनी के सामने ही वाल्मिकी भवन है, जहां दीवालों पर संगमरमर पत्थर में उकेरी हुई सम्पूर्ण वाल्मीकी रामायाण प्रदर्शित है। दोपहर का समय होने के कारण इसके पट बंद मिले। हम मणिराम की छावनी में प्रवेश किए। पहले यहां महंत नृत्यगोपाल दास जी थे, तीन साल पहले उनका देहावसान हो गया, उनकी जगह दूसरे महंत हो गए हैं। महंत जी भी सोए हुए थे। इस मंदिर में एक स्तम्भ पर ताम्रपत्र पर सम्पूर्ण गीता उकेरी हुई है। यह ताम्रपत्र स्तम्भ पर लगे हुए हैं। हमने कुछ देर यहां आराम किया, कुछ साथी यहाँ से आराम करने गायत्री मंदिर जाना चाहते और कुछ घूमना चाहते थे। हम मणिराम की छावनी से चलकर मुख्य मार्ग पर आ गए। वहाँ महिलाओं ने कुछ खरीददारी की, जुगल साहू के चिरंजीव ने कहा कि अब भरत कुंड चला जाए। अयोध्या भरत कुंड लगभग 15 किलोमीटर है। दर्शन नगर होते हुए जाना पड़ता है। एक आटो वाले को पूछने पर उसने एक तरफ़ का किराया 800 रुपए बताया, हमने उसे जाने दिया, दुसरा आया, उसने प्रति सवारी 20 रुपए जाने का कहा, हमें यह किराया जंच गया। तो उसे वापसी के लिए भी तय कर लिया। 20 रुपए में जाना और 20 रुपए में आना। हम 14 लोग ऑटो में सवार होकर भरत कुंड की तरफ़ चल पड़े। जारी है........। आगे पढें</div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-34192696810319966832012-04-23T16:09:00.002+05:302012-04-23T16:09:23.869+05:30अयोध्या में कीमियागर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_15.html">प्रारंभ से पढें</a></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-sQ0gvFRAL7M/Tt-Qp2rhNAI/AAAAAAAAEz4/y8gVEhpUqCM/s1600/images12.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="239" src="http://2.bp.blogspot.com/-sQ0gvFRAL7M/Tt-Qp2rhNAI/AAAAAAAAEz4/y8gVEhpUqCM/s320/images12.jpeg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुस्कुराईए कि आप लखनऊ में हैं :)))</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="color: red; font-size: large;">ह</span>मारे सभी साथी लखनऊ घूमने का मन बनाए बैठे थे। नामदेव जी और हमने तय किया कि अयोध्या चलते हैं। वहीं डेरा डालते हैं, 4/40 पर एक लोकल ट्रेन लखनऊ से फ़ैजाबाद के लिए चलती है 8 नम्बर प्लेटफ़ार्म से। जब हम जाने लगे तो 6 लोग और हमारे साथ हो लिए। सभी ने लोकल ट्रेन में डेरा डाल लिया। 20 रुपए की टिकिट अलग से लेनी पड़ी। हम 9 बजे लगभग फ़ैजा बाद पहुंच गए। फ़ैजाबाद से अयोध्या ले जाने का ऑटो वाले 10 रुपए लिया। हमें चौक पर छोड़ कर चला गया। यहाँ सुबह से ही रेला लगा हुआ था कार्तिक पूर्णिमा स्नान करने वालों का। सोचा कि आज बिड़ला धर्मशाला में जगह नहीं मिलेगी। जब बिड़ला धर्मशाला पहुंचे तो वहां एक मैनेजर मिले। उनसे रुम के लिए बात की। बड़ी देर बाद उन्होने जवाब दिया और एक बंदे को पहली मंजिल पर रुम दिखाने भेजा। रुम तो छोटा था, पर हमें तो अभी अपना सामान रख कर सरयू स्नान करना था, इसलिए जो मिल गया वही ठीक समझा।</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-ULWHSLlgSko/Tt-RaZS52eI/AAAAAAAAE0A/j5HDxm64JDk/s1600/untitled.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="314" src="http://1.bp.blogspot.com/-ULWHSLlgSko/Tt-RaZS52eI/AAAAAAAAE0A/j5HDxm64JDk/s320/untitled.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">मुंडन के बाद नाश्ता</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">नामदेव जी ने कहा कि अयोध्या आए है और कार्तिक पुर्णमासी का अवसर है, इसलिए मुंडन भी साथ-साथ करा लिया जाए। मुझे तो कुछ देर आराम करने की इच्छा हो रही, इसलिए मोबाईल चार्जिंग में लगा कर लेट गया। नामदेव जी कह गए की बांए हाथ की पहली नाऊ दूकान में मिलुंगा। थोड़ी देर आराम करके मैं और पंकज भी निकले। लेकिन नामदेव जी कहीं नहीं मिले। मुझे एक सेलून दिखाई दिया। मैं वहीं टिक गया और पंकज को नामदेव जी को ढूंढने भेज दिया। अब किस्सा सुनिए अयोध्या के नाऊ की दूकान का। उसने पूछा कि कितने वाली दाढी बनाएगें? मैने कहा कि दाढी बनवाने के भी अलग-अलग रेट हैं? हाँ, 10,20,50 वाली। ये क्यों? उसने शेविंग क्रीम दिखाई, 10 से 50 तक वाली। मैने कहा कि 5 रुपए में बिना शेविंग क्रीम के ही रगड़ दो। वो बोला दाढी? हमने कहा - मूड़। बोला- 5 में नहीं बनेगा। 10 की दाढी बनेगी और 20 में मुंडन होगा। गजब है यार, हमारे यहाँ तो 20 रुपए में दोनो काम हो जाता है। ह्म्म, अयोध्या के नाऊ हो, इतना तो हक बनता है राम की नगरी में।</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-spGPkfllGW4/Tt-TuVAmjsI/AAAAAAAAE0I/dKOSCUJaKiU/s1600/lalit-ayodhaya.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-spGPkfllGW4/Tt-TuVAmjsI/AAAAAAAAE0I/dKOSCUJaKiU/s320/lalit-ayodhaya.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">आलु टिक्की का आनंद</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">उसने उस्तुरा उठा लिया और हमने मुड़ झुका दिया। चला लो जिधर तुम्हारा मन करे। उसने मुंडन किया और दाढी बनाई, हम 30 रुपए थमा कर कृतार्थ हुए। पंकज पहुंचा, बोला-पापा नहीं मिले। चलो आगे मिल जाएगें, हमने सीधा रास्ता पकड़ लिया। बाजार में रेलम पेल थी, पुर्णमासी स्नान के साथ मेला भी लगा हुआ था। अमरुद, सिंघाड़ा, मुरमुरा, मिठाई, चाट, फ़ुलकी की दूकाने सजी हुई थी मुख्यमार्ग पर सरयू तक। रास्ते में तुलसी उद्यान के पास एक चाट के ठेले पर डेरा डाल लिया। भूख जोरों से लगी हुई थी। कुछ खा लिया जाए तो आगे बढा जाए, अन्यथा भूख के मारे जान जाने का खतरा मंडरा रहा था। चाट वाले को दो टिकिया बनाने कहा। सर पर धूप चमक रही थी, सर मुंडाते ही ओले तो नहीं पड़े पर टकले पर धूप कहर ढा रही थी। इसलिए थोड़ी सी छाया की व्यवस्था के लिए उसके ठेले की छांव में आ गए। चाट का मसाला उम्दा था। दो चम्मच खाते ही समझ आ गया। दो दोने और बनाने का आडर दे दिया फ़टाफ़ट क्योंकि सरयू तक भी पैदल मार्च करना था। चाट के तीन दोने उदरस्थ कर हम दोनो आगे बढे।</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-hgc2jaed4Go/Tt-UbYJjlDI/AAAAAAAAE0Q/BRl0gb1fysM/s1600/Image6340.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-hgc2jaed4Go/Tt-UbYJjlDI/AAAAAAAAE0Q/BRl0gb1fysM/s320/Image6340.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अयोध्या का मुख्य मार्ग</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">नर-नारी अपने बाल-गोपाल और परिजनों के साथ सरयू की ओर सरपट जा रहे थे। कुछ स्नानादि से वापस आ रहे थे, आने जाने वाले का रेला चल रहा था। अयोध्या पुलिस भी ड्युटी में लगी थी। माईक पर खोया पाया पुकार हो रही थी। हम तिराहे पर पहुचे तो वहाँ एक पंडाल लगा था जिसमें लोग स्वयं आकर ही पुकार लगा रहे थे, अपने खोए परिजनों को स्थान और पता ठिकाना बता रहे थे। लो जी सरयू तट आ गया, पहले भी कई बार आ चुके थे। लेकिन सरयू स्नान नहीं किया था। यहां घाट पर सरयू के पानी में रेत बहता है। इसलिए मन नहीं हुआ, पानी के छींटे मार कर निकल लिए। लेकिन अब स्नान की ठान चुके थे। पंडे अपने-अपने पाटे लगाए जजमानों की टोह में लगे थे। फ़ूल और बाती वाले 5 रुपए में एक दोना दे रहे थे। पानी में उतरा तो वह ठंडा था, सांस बंद करके एक डुबकी लगाते ही कुछ ठंड दूर हुई, शरीर का उष्मातंत्र जागृत हुआ, उसके बाद कई डुबकियाँ लगाई और अपने को धन्य समझा कि सरयू स्नान हो गया। अगर कोई कभी पूछेगा तो मैं भी कह सकूंगा कि सरयू स्नान किया था कभी।</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-clc9fFdgpFQ/Tt-VQgIu_xI/AAAAAAAAE0Y/Zqb_36-3mMs/s1600/Image6342.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-clc9fFdgpFQ/Tt-VQgIu_xI/AAAAAAAAE0Y/Zqb_36-3mMs/s320/Image6342.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सरयू तीरे यत्र तत्र पालिथिन </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">घाट के रास्ते में भिखारियों ने अपने टाट बिछा रखे थे, कोई सांप लेकर बैठे थे तो कोई पूजा सामग्री। नदी तट पर प्लास्टिक की थैलियाँ बिखरी हुई थी। प्रदूषण फ़ैलाने समस्त कारक नदी के तीर पर बिखरे पड़े थे। किसी को प्रदूषण की चिंता नहीं। हम वापस चले, पंकज कुछ फ़ोटो ले रहा था। माईक पर सूचनाएं जारी थी, मेले की सूचनाओं का आनंद आ रहा था। एक कह रहा था .... दौलत के माई तोहार हम ईंहा इंतजार करित हैं, जहाँ-कहीं भी पुलिस चौकी के सामने चली आव।... लाल बहादूर जहाँ कहीं भी हैं, सुन रहे हो तो यहाँ आएं या जहाँ रात को रुके थे वहाँ पहुंचे। यहाँ हम आपका इंतजार कर रहे हैं। एक महिला कह रही थी ....... झांझन के बाबू जहाँ कहीं भी चले आओ, हम तुम्हारा इंतजार पुल पे कर रहे है। बहुत देर से हम तुम्हे ढूंढ रहे हैं, नहीं आए तो हम घर चली जाएगें ........ सुनील भाई नारायाण भाई, हम बहुत परेशान है। जहाँ कहीं भी हो चले आओ।........ राम दूलारे चले आओ चौकी के पास हम तोहार इंतजार करित हैं ........ नानु के बाबू चले आओ हम कब से आपको ढूंढत हई, चौकी मा हम अगोरत हंई।........ परिजनों से भीड़ भाड़ में बिछड़े परेशान-हलकान लोग उद्घोषणा के द्वारा सम्पर्क बनाने की कोशिश कर रहे थे।</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-j_bAb0zvDzI/Tt-VqM3V2ZI/AAAAAAAAE0g/Fv5cAqeokEQ/s1600/Image6345.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-j_bAb0zvDzI/Tt-VqM3V2ZI/AAAAAAAAE0g/Fv5cAqeokEQ/s320/Image6345.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">चलते चलो</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हमने भी सोचा कि नामदेव जी के लिए उद्घोषणा कर दी जाए ........ जहाँ कहीं भी हो बिड़ला धर्मशाला के रुम 35 में चले आओ, हम तोहार इंतजार करित हैं। मन में उद्घोषणा चल रही थी। बिना बिजली खर्च करे ही उन तक हमारा संदेश पहुंच गया। रास्ते में केले का भाव पूछा तो 30 रुपए दर्जन बताया, कुछ केले लिए और खाते हुए बिड़ला धर्मशाला तक पहुंच गए। स्नान-ध्यान और मुंडन के पश्चात भोजन करके सोने की घनघोर इच्छा थी। बिड़ला धर्मशाला के सामने एक सिंधी का होटल है। वहाँ अरवा चावल मिलता है, चावल भी अच्छी क्वालिटी का था। छत्तीसगढिया कई दिनों से चावल से दूर था। बढिया चावल देख कर वहीं डेरा जमाया। 35 रुपए थाली में अच्छा भोजन मिला, साथ में 20 रुपए प्लेट दही का। पंकज और मैं खाना खाकर धर्मशाला पहुंचे। मैने तो बिस्तर संभाल लिया और पंकज चेतन भगत के पीछे पड़ गया, बोला इसे खत्म करके ही मानुंगा। हमारे और भी साथी स्नान करके आ चुके थे उन्होने बरामदे में बिस्तर लगा लिए और सो गए।</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-UF_I9XX57H4/Tt-WBghdIQI/AAAAAAAAE0o/GX9EXh6d0TU/s1600/Image6350.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-UF_I9XX57H4/Tt-WBghdIQI/AAAAAAAAE0o/GX9EXh6d0TU/s320/Image6350.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पंकज - हनुमान गढी में</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">शाम को 5 बजे करीब फ़ोन बजने से नींद खुली। देखा तो महफ़ूज मियां का फ़ोन था, वो मुझे उलाहना दे रहे थे कि रात भर स्टेशन में ढूंढता रहा, आप मिले ही नहीं, नौ बजे घर आकर सोया। आपका मोबाईल भी बंद था। मैं मुस्कुराता रहा, लगता है कि हम दोनो ही एक दूसरे को ढूंढ रहे थे। फ़िर मिलन के वादे के साथ हमने फ़ोन को विराम दिया। घर फ़ोन लगा कर श्रीमती जी मुंडन की सूचना दी तो भड़क उठी- अकारण मुंडन कराने की क्या जरुरत थी। अभी कई शादियों में जाना है और आपने मुंडन करा लिया। हमने कहा कि शादियों में जाने के लिए विग बनवा लुंगा और नहीं बनी तो शादियों में जाना स्थगित कर देगें। कौन सी हमारे गए बिना किसी की शादी रुक जाएगी? उसे तो होना ही है, उनके जवाब से पहले ही फ़ोन बंद कर गहरी सांस ली, अब आगे की होगा रब्ब जाणे, मूड़ तो मूड़ा लिए, ओले तो पड़ेगें। झेल लेगें, अब टकले पर भी। नामदेव जी लौट आए थे, उन्होने बताया कि बाकी साथी रात की गाड़ी से लखनऊ से लौट रहे हैं। उनकी गाड़ी आठ बजे आएगी और उनके रुकने की व्यवस्था गायत्री मंदिर में कर आए हैं। चलो अच्छा किया आपने वर्ना हम तो चलने की ही स्थिति में नहीं थे।</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-v6rb29ptd5k/Tt-WNixmWAI/AAAAAAAAE0w/EnvqsFVGXCI/s1600/303857_180220728736430_100002455129018_371780_970366430_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-v6rb29ptd5k/Tt-WNixmWAI/AAAAAAAAE0w/EnvqsFVGXCI/s320/303857_180220728736430_100002455129018_371780_970366430_n.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">हनुमान गढी के सामने लड्डू की दुकान</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">शाम को तैयार होकर हम फ़िर घुमने निकले, हनुमान गढी की ओर। हनुमान गढी में लाल लंगोटे वाले महाबीर से मिलना था। बहुत बरस हो गए थे उनसे मिले। हमारा संकट तो वही दूर करते हैं। भूत-पिशाचों से दूर रखते हैं।<b> "संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरे हनुमत बलबीरा"</b> हनुमान गढी के समीप लड्डूओं की दुकाने लगी हैं चारों तरफ़। रात को लड्डू और फ़ूल माला लेकर पहुंच गए महावीर की शरण में। वहाँ उनके सामने बाबाजी प्रवचन कर रहे थे। दर्शन करके हमने कुछ देर प्रवचन सुना। फ़िर गायत्री मंदिर की खोज में निकले। कनक भवन के आगे गायत्री मंदिर है। वहाँ के विशाल प्रांगण में रुकने के लिए कमरे बने हुए थे। हमारे साथी 18 नम्बर कमरे में मिले। एक माता जी ने उन्हे भोजन लाकर दिया, मैने कुछ सिंघाड़े खाए, पंकज कहीं गायब हो गया था। फ़र्श पर बिछी जाजम पर लेटते ही दूसरी दुनिया में पहुंच गया। थकान ने कहीं का नहीं छोड़ा था। किसी की आवाज से आँख खुली तो पता चला कि 11 बज चुके हैं। हमारे साथी लखनऊ से लौट आए हैं। उन्हे लाने वाले ऑटो में बैठकर स्टेशन पहुंचा तो चौरसिया जी खड़े थे स्टेशन में। उनके साथ फ़िर ऑटो की सवारी की और बिड़ला धर्म शाला के सामने उतर गया। बिड़ला धर्मशाला स्टेशन से 5 मिनट के पैदल रास्ते पर है। दरवाजा खुला था, अपने रुम में पहुंचा तो पंकज लोटम लोट हुआ जा रहा था चेतन भगत के साथ, लेकिन मुझे तो सोना बनाना था, कीमियागर जो ठहरा। जारी है……<a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/12/blog-post_11.html">आगे पढें</a>…। </div><div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-14128530653552224522012-04-23T16:08:00.003+05:302012-04-23T16:08:43.217+05:30गायत्री वाला थानेदार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-w7WZDZCMyPs/Tt5I8WdZ6CI/AAAAAAAAEzI/bTw5Pji1qy8/s1600/Image6339.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-w7WZDZCMyPs/Tt5I8WdZ6CI/AAAAAAAAEzI/bTw5Pji1qy8/s320/Image6339.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कार्तिक स्नान को आते-जाते धर्माथी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><span style="color: red;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_15.html">प्रारंभ से पढें</a></span></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><span style="color: red;">ह</span></span>रिद्वार में तीर्थयात्रियों का मेला-रेला लगा हुआ था, गाड़ियों की तो क्या कहें, ट्रेनों के इंजन पर भी लोग चढ कर आ रहे थे। एक रेला आता था और एक रेला जाता है। लोग कार्तिक पूर्णिमा के अवसर स्नान-दान करने आते हैं। जब हरिद्वार पहुंचा था तो ट्रेन में मिली माता जी (जिसने चौरसिया जी 21 रुपए की दक्षिणा दी थी) प्लेट फ़ार्म पर बैठ कर टी टी को ढूंढ रही थी। मेरे पूछने पर कहने लगी कि - बेटा उसे दक्षिणा देनी है, मैं बहुत खुश हूँ कि वह मुझे ट्रेन में बैठा कर लाया। उसे ही देख रही हूँ मिले तो कुछ रुपए उसे दूँ।" माता जी गद गद होकर टी टी को ढूंढ रही थी। ट्रेन में भीड़ होने के कारण जिसने टिकिट नहीं ली वे भी तर गए। मतलब गंगा नहा लिए बिना टिकिट भी, धर्म कर्म करने के लिए भी सौ-पचास की टिकिट की चोरी कर लेते हैं लोग। बिना टिकिट ही धर्मयात्रा करना है तो तीर्थ करने का क्या मतलब?</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-m6b2mN9tRPA/Ttxc5pVJDhI/AAAAAAAAEzA/2RmhYFHDQ1o/s1600/629135.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" dda="true" height="227px" src="http://2.bp.blogspot.com/-m6b2mN9tRPA/Ttxc5pVJDhI/AAAAAAAAEzA/2RmhYFHDQ1o/s320/629135.jpg" width="320px" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पुलिस (चित्र गुगल के सौजन्य से)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">धर्म आध्यात्म की ओर ले जाता है, अध्यात्म= अध्य+आत्म, स्वयं को जानना। जिसने स्वयं को जान लिया उसने सब कुछ जान लिया। यही अध्यात्म है, अपने को जानने की बजाए लोग दुसरों को जानने के लिए भटकते हैं। एक थानेदार हैं गोमती नगर थाने में लखनऊ के। जिनका नाम राजकु्मार प्रजापति है। उनके बारे में चर्चा चल रही थी परिजनों के बीच, तो मैने भी कान लगा लिए उधर। कहते हैं कि उनके सामने कोई लेन-देन की बात तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। गलत काम कराने का इच्छुक कोई व्यक्ति ऐसा करना भी चाहे तो लोग उसे पहले ही चेता देते हैं, गायत्री वाले दरोगा हैं क्यों मुसीबत मोल लेते हो। खुद के व्यक्तित्व में आए बदलाव का श्रेय राजकुमार प्रजापति आचार्य श्री राम शर्मा जी को देते हैं। राजकुमार प्रजापति 1987 में शांतिकूंज आए और फ़िर आचार्य के विराट व्यक्तित्व और कृतित्व के होकर रह गए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-061kN9SeFlk/Tt5MQhDMKBI/AAAAAAAAEzQ/N-hQgBfRxFk/s1600/image001.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="http://3.bp.blogspot.com/-061kN9SeFlk/Tt5MQhDMKBI/AAAAAAAAEzQ/N-hQgBfRxFk/s320/image001.jpg" width="255" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">नशामुक्ति प्रचार (गायत्री परिवार के सौजन्य से)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">आचार्य के विचारों से प्रभावित होकर जब वे घर गए तो उन्होने नशा मुक्ति और जनसेवा का बीड़ा उठा लिया, अभी तक वे अपने सम्पर्क में आने वाले 300 से अधिक युवाओं की नशे की लत छुड़वा चुके हैं। उनके लिए आगत की सेवा ही सबसे बड़ा मकसद है। राजकुमार के पास आए किसी पीड़ित को अधिकारियों के पास चक्कर नहीं काटने पड़ते। वर्तमान भ्रष्ट्राचार के पंक में डूबी व्यवस्था में ईमानदारी से नौकरी करना भी कठिन कार्य है। लेकिन राजकुमार इससे वास्ता नहीं रखते, उनकी ईमानदारी और सेवाभाव को आला अफ़सर भी सम्मान देते हैं। उनका आत्मबल ही उन्हे ईमानदारी से कार्य करने की प्रेरणा देता है। यह शक्ति सिर्फ़ आध्यात्म से ही आ सकती है। इसीलिए कहा गया है कि अध्यात्म में बड़ा बल है। इसका चमत्कार मैने भी देखा है। आत्मबल हो तो बड़ी बड़ी कठिनाईयों पर व्यक्ति विजय पा लेता है। ऐसे कर्तव्य के धनी व्यक्तित्व के विषय में सुन कर अच्छा लगा। पुलिस जैसे महकमें ऐसे लोग भी हैं, यह गर्व की बात है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-S0RJvszA5HY/Tt5ONF1inKI/AAAAAAAAEzY/HRWpTuS8Oy8/s1600/Image6336.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-S0RJvszA5HY/Tt5ONF1inKI/AAAAAAAAEzY/HRWpTuS8Oy8/s320/Image6336.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">हरिद्वार में अपना बोझा लादे ब्लॉगर</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हरिद्वार की खट्टी मीठी यादों को संजो रहे थे बैठकर स्टेशन में ट्रेन की प्रतिक्षा करते हुए। घुमने गए साथी भी धीरे-धीरे पहुंच रहे थे। तभी एक ट्रेन आकर लगी, नाम कुछ दूसरा लिखा हुआ था। लेकिन नम्बर सही था, यह हरिद्वार आकर एक घंटे खड़ी रहती है। फ़िर इंजन बदल कर इलाहाबाद के लिए रवाना होती है। कई बोगियों अलग-अलग रिजर्वेशन होने के कारण सामान जमाने में तकलीफ़ तो हुई। कुछ लोगों का इसमें भी रिजर्वेशन कन्फ़र्म नहीं हुआ था। उन्हे भी सीट दिलाई गयी। जिनके नाम का रिजर्वेशन हो गया था, उन्होने अपनी सीट संभाल ली, किसी दुसरे के बैठने लिए जगह न देनी पड़े। थोड़ा बहुत भी सब्र नहीं रहता लोगों को। रात तक सभी के लिए जगह बन गयी थी। मेरे बगल वाली साईड लोवर बर्थ पर 4 लोग टंगे थे। एक ने मुफ़्त में ही कब्जा कर रखा था। जब टी टी आया तो पता चला उसकी सीट नहीं है। फ़िर भी उन लोगों में आपस में हो हल्ला, जूतम पैजार होता रहा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-DGaGQZozwvI/Tt5OxCd8lHI/AAAAAAAAEzg/UmphcK9SgtA/s1600/Image6456.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-DGaGQZozwvI/Tt5OxCd8lHI/AAAAAAAAEzg/UmphcK9SgtA/s320/Image6456.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">रेल में संध्या पाठ -आरती</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">दो महिलाएं हमारे साथ गयी महिला की सीट के नीचे बैठ गयी। काफ़ी रात हो गयी थी, उनके पास कोई सामान नहीं था। साथी महिला के कहने पर मैने उन्हे वहाँ से उठ जाने कहा। दो बार कहने बाद वे उठी तो सही पर बड़बड़ाने लगी कि "हम लोग कोइ चोर तो नहीं है, तुम्हारा कोई सामान उठाकर ले जाएगें।" किसी में माथे पर थोड़ी लिखा होता है कि वह चोर है। जब मौका मिला और माल पार हो गया, हम तो तुम्हारी ईमानदारी के भरोसे लुट पिट जाएगें। टीटी आकर उन्हे चिल्लाने लगा-"रिजर्वेशन हो तो बैठो गाड़ी में, नहीं तो जनरल में जाओ। तुम्हारे पास तो टिकिट भी नहीं है। कहाँ जा रहे हो? तो वो बोली आश्रम जा रहे हैं। "जब मरना ही है तो आश्रम में मरो, ट्रेन में क्यों आते हो? टीटी उन्हे धमका कर चला गया और वे बिना टिकिट सफ़र करती रही। पता नहीं कितने लोग रोज बिना टिकिट सफ़र करते हैं ट्रेन में। रेल्वे के कर्मचारी तो जेब में युनियन का कार्ड डाले किसी की सीट पर भी कब्जा जमा लेते हैं। जबकि उन्हे सामान्य टिकिट पर स्लीपर में यात्रा करने अनुमति नहीं है। चल रहा है तो चलाए जाओ किसने मना किया है, रेलगाड़ी तुम्हारे बाप की है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-39WV47fS_tU/Tt5SIvFzS8I/AAAAAAAAEzw/NfAiK91UHRA/s1600/lalit001.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="209" src="http://4.bp.blogspot.com/-39WV47fS_tU/Tt5SIvFzS8I/AAAAAAAAEzw/NfAiK91UHRA/s320/lalit001.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लखनऊ में मुख्यमंत्री मायावती जी के साथ मंत्रणा</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हम जा रहे थे लखनऊ की ओर, लखनऊ में एक दिन का विश्राम करने का ईरादा था। इस विषय पर पहले ही लिख चुका था। मोबाईल की बैटरी बार-बार लो बता रही थी। अब कितनी बार बैटरी लूँ, इसको भी बीमारी लगी हुई थी। बैटरी लो बताने की। इसलिए रात को मोबाईल बंद कर दिया कि लखनऊ पहुंचने पर महफ़ूज मियां को फ़ोन लगाने लायक तो जान रहे फ़ोन में। रात 2 बजे हम लखनऊ पहुंचे, याद आया एक बार मायावती बहन जी ने हमें लखनऊ की सैर कराई थी। अब महफ़ूज मियां के गले पड़ना था। स्टेशन में उतर कर उन्हे फ़ोन लगाने लगे तो मोबाईल में नम्बर ही नहीं था, मैने सेव नहीं किया था और नम्बर भूल चुका था। अब मोबाईल रखने का भी कोई मतलब नहीं निकला। स्टेशन पर चाय पीते टहलते रहे। हमारे साथी दैनिक क्रिया की जगह की तलाश कर रहे थे। कहीं सामान रख कर स्नान ध्यान करके लखनऊ घूमा जाए। प्लेट फ़ार्म के भीतर बाहर हमने खूब चक्कर लगा लिया। महफ़ूज मियां दिखाई नहीं दिए। आखिर मैने सोचा कि क्यों कोई अपनी रात खराब करेगा? सुबह पता करेगें स्वामी महफ़ूजानंद को। अभी तो अयोध्या चला जाए। जारी है........ <a href="http://shilpkarkemukhse.blogspot.com/2011/12/blog-post.html">आगे पढें</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-25835310786322641712012-04-23T16:08:00.000+05:302012-04-23T16:08:02.816+05:30ब्लॉगर सबसे बड़ा मौन का साधक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-3EPo1KQZ__w/TtoMjM7ZnGI/AAAAAAAAEyE/G0PEfU5HoP8/s1600/Image6322.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-3EPo1KQZ__w/TtoMjM7ZnGI/AAAAAAAAEyE/G0PEfU5HoP8/s320/Image6322.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><span style="color: red;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_15.html">प्रारंभ से पढें</a></span></span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="color: red;">सु</span></span>बह जब सो कर उठे तो सुरज की किरणें कनात की झिरियों से आकर मुंह पर पड़ रही थी। रात नदी की रेत पर ही अच्छी नींद आयी। काफ़ी साथी लोग नहा धोकर तैयार हो गए थे। मौनी बाबा आदतन मौन थे, ये तो सिर्फ़ दो घंटे ही मौन रहते हैं। ब्लॉगर तो जब तक कम्पयुटर पर रहता है तब तक मौन रहता है। ब्लॉगर से बड़ा साधक कौन है? सारी विद्याएं ही हैं जैसे त्राटक (एक टक मानीटर को देखना) मौन, धारणा, ध्यान, समाधि। वैसे ब्लॉगर को ॠषि तुल्य ही मानना चाहिए। ॠषि का कार्य है कि गुरुओं से मिले हुए ज्ञान को प्रचारित एवं प्रसारित करना। यही काम ब्लॉगर भी मनोयोग से कर रहे हैं। आँख खुली ही थी कि तुरकने जी ने एक विषय छेड़ दि्या और हमने पकड़ लिया। सुबह-सुबह ही एक घंटे का लेक्चर हो गया। अब तैयार होना था, हरिद्वार में तो कल से अफ़रातफ़री का माहौल था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-KN2UcEI4iAI/TtSaZnhzmNI/AAAAAAAAEvc/k_s2-o-617M/s1600/haridvar.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="250" src="http://4.bp.blogspot.com/-KN2UcEI4iAI/TtSaZnhzmNI/AAAAAAAAEvc/k_s2-o-617M/s320/haridvar.JPG" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">भगदड़ की घटनाओं को लेकर अफ़वाहों का बाजार गर्म था। जो वहां नहीं था वह भी प्रत्यक्षदर्शी बना हुआ था। कोई कह रहा था कि आतंकवादी घुस गए थे। कोई कह रहा था कि पुलिस वालों ने भगदड़ मचा दी तो कोई कह रहा था कि दंगा हो गया। गंगा तीर से स्नान कर आई महिलाओं ने बताया कि वहां स्नान कर रही दो महिलाएं कह रही थी कि वे यज्ञशाला में थी। वहां यज्ञ की अग्नि में एक महिला जल गयी और उन्होने अपनी आँखों से देखा है। मैने कहा कि इतना बड़ा झूठ, उनकी कनपटी में बजाना था दो, तुम लोग सुन कर कैसे आ गयी। भीड़ की अधिकता से भगदड़ में 16 लोगों के मृत होने की सूचना अवश्य आ रही थी। किसी वृद्ध के बेहोश होकर गिरने के बाद भगदड़ मची। जिसे धुंए की अधिकता से बेहोश होना बताया जा रहा है। उसमें ही लोग घायल हुए हैं और कुछ मरे हैं। पता नहीं लोगों को अफ़वाह फ़ैला कर क्या मिलता है? अफ़वाहें ही सारा माहौल खराब करती है और इन पर लगाम लगाना किसी के बस का नहीं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-4FtUsz1Uerw/TtoNEXoT57I/AAAAAAAAEyM/i5L-VzUBces/s1600/Image6299.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-4FtUsz1Uerw/TtoNEXoT57I/AAAAAAAAEyM/i5L-VzUBces/s320/Image6299.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">भगदड़ होने का एक कारण मेरी समझ में आया कि इतनी भीड़ को संभालना प्रशासन के बस की बात नहीं। स्वअनुशासन की आवश्यकता होती है। ऐसा भी नहीं है कि गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं में अनुशासन की कमी है। पर अधिक भीड़ लाने के चक्कर में कुछ सैलानी भी मात्र घूमने एवं देखने चले आए। इसके कारण अनुशासन कायम नहीं रह सका। भीड़ को कोई नहीं संभाल सकता। गायत्री परिवार का आयोजन उम्दा था। किसी संस्थान के द्वारा किया गया आज तक का सबसे बड़ा आयोजन था। कुंभ में भी सरकार करोड़ों रुपए खर्च करके ऐसा आयोजन नहीं कर सकती, यह तो मानना ही पड़ेगा। भीड़ के कारण कुंभ में भी भगदड़ मची है। नासिक कुंभ इसका ताजा तरीन उदाहरण है। वहाँ भी भगदड़ में काफ़ी लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। हादसों को रोका जाना चाहिए, भीड़ पर नियंत्रण न होने के कारण हादसे होते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-ZQ1BG4DeRTw/TtoNezc0i5I/AAAAAAAAEyU/y-RNbuoCFRc/s1600/Image6300.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-ZQ1BG4DeRTw/TtoNezc0i5I/AAAAAAAAEyU/y-RNbuoCFRc/s320/Image6300.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">हमारे कुछ साथी चंडी देवी मंदिर और कुछ शांतिकूंज जाना चाहते है। पर मैने अपना रुख अडिग रखा, क्योंकि हमारी ट्रेन 2.40 बजे दोपहर को थी। अगर भीड़ के कारण ट्रेन निकल गयी तो हरिद्वार में ही हरे राम भजना पड़ता। मैने हांका लगा दिया कि जिसको भी स्टेशन चलना है वह मेरे साथ चले। पैदल ही जाना होगा क्योंकि कहीं पर भी सवारी मिलने की संभावना नहीं है और मुसीबतों का एकमात्र पुल भी पार करना है। आधे सहयात्री मेरे साथ चलने को तैयार हो गए। हम अपना सामान लाद कर गौरीशंकर के यात्री स्वागत पंडाल तक पहुंच गए। वहाँ रुक कर साथियों का इंतजार किया। सभी के साथ आने पर गंगा को प्रणाम करके हम आगे बढ गए। महिलाओं ने अपना बैग सिर पर रख लिया। क्योंकि आज तो लगभग 10 किलोमीटर के अधिक चलना था। इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-SQrbX_5Gafs/TtoN5gfOSsI/AAAAAAAAEyc/8sVUVb0Nuq0/s1600/Image6317.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-SQrbX_5Gafs/TtoN5gfOSsI/AAAAAAAAEyc/8sVUVb0Nuq0/s320/Image6317.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">कुछ मास्टरिन भी साथ थी, रास्ते में कहती थी -"रेंगत नई बनत हे महाराज, सुखियार होगे हन गा", तो मैं कहता - "आज तो सुखियारी चले नहीं, रेंगे ला परबेच करही। धीरे बांधे चलव, टैम में पहुंच जाबो।" कुछ साथियों को ऑटो मिल गए, पर ऑटो वालों का पुल पर प्रवेश बंद था, वे भी हमें पुल पर ही इंतजार करते मिले। कुछ महिलाओं ने रास्ते में एक रिक्शा किया 50 रुपए में, जो उनके बैग पुल के प्रवेश द्वार तक पहुंचा दे। इस रिक्शे में प्रताप सेन बैठ गया पुल तक। किसी भी तीर्थ यात्री को यह ध्यान रखना चाहिए कि मेले, स्नान, या कुंभ इत्यादि जैसे पर्वों पर 11 नम्बर की ही सवारी काम आएगी। मतलब पैदल ही चलना पड़ेगा। क्योंकि भीड़ चलने वाले रास्तों पर रिक्शा इत्यादि वाहनों का प्रवेश वर्जित कर दिया जाता है। इसलिए तीर्थ पर जाने से पहले लगभग 15 दिनों की रोज 5 किलोमीटर चलने का अभ्यास कर लेना चाहिए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-S3slntqxBzk/TtoOWv6LscI/AAAAAAAAEyk/wbSbATHWlTg/s1600/Image6335.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-S3slntqxBzk/TtoOWv6LscI/AAAAAAAAEyk/wbSbATHWlTg/s320/Image6335.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">पुल पार करके हमने उसके मुहाने पर कुछ देर विश्राम किया। उत्तराखंड पुलिस की महिला विंग की ड्युटी पुल के पास वाले चौराहे पर लगी थी। कभी-कभी मोबाईल पर मुस्कुरा कर बात कर लेती थी फ़िर अपने काम में लग जाती थी। मोबाईल भी मन बहलाने का उम्दा साधन है। बस उपयोग सही होना चाहिए। एक मिस कॉल दो और घंटे भर बात करो। धन धनिए का, माल बनिए। अपना तो हवा हवाई में ही काम चल जाता है। खिरामा खिरामा टहलते टहलते हम स्टेशन तक पहुंच गए।पैदल चलते चलते हरिद्वार की कई बातें और यादें जेहन में चल रही थी। कुछ चित्रों के रुप में यादें संजो ली थी। हरिद्वार के प्लेटफ़ार्म पर जनसुविधा का न होना आश्चर्य चकित कर गया। क्योंकि कुछ महिला सहयात्रियों को आवश्यकता पड़ गयी थी। उन्हे स्टेशन के बाहर जाना पड़ा। जारी है................।</div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-42280405223942308912012-04-23T16:06:00.003+05:302012-04-23T16:06:46.630+05:30तेरे बाप का राज है क्या?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-Nx5_XhD3JQU/Ts71hhQNLFI/AAAAAAAAEt0/ZJjTD2CUHEs/s1600/h-3.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-Nx5_XhD3JQU/Ts71hhQNLFI/AAAAAAAAEt0/ZJjTD2CUHEs/s320/h-3.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">आराम के मोड में</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="color: red; font-size: large;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_15.html">प्रारंभ से पढें</a></span><br />
<span style="color: red; font-size: large;">ऑ</span>टो वाले भी मुफ़्त का फ़ायदा उठाना चाहते थे। मेरे साथ हृदयलाल गिलहरे, पंकज नामदेव, चौरसिया जी, बीएस ठाकुर गुरुजी और उनके साथ 3 महिलाएं थी। ॠषिकेश जाने के 1500 रुपए देना मुझे बहुत अखर रहा था। लेकिन साथियों की जिद के आगे झुकना पड़ा। ॠषिकेश पहुंच कर ऑटोवाले ने युनियन में मुझसे 1500 रुपए जमा कराने को कहा और जब पर्ची काटने के 10रुपए और मांगे तो खोपड़ी घुम गयी। मैने जोर से गरिया दिया उसे। तो ड्राईवर ने पर्ची के 10रुपए अपनी जेब से दिए। पर्ची लेकर उसने हमें लक्ष्मण झूला मार्ग पर छोड़ दिया और 6 बजे बस स्टैंड पर मिलने कहा। हरिद्वार और ॠषिकेश में 500 का नोट तुड़वाना भी एक समस्या ही है। कोई भी छुट्टे देने को तैयार नहीं। हम सबके पास बड़े नोट ही थे। एक जगह पानी की दो बोतल लेने के बाद भी छुट्टे नहीं मिले। हम पानी की बोतल ले रहे थे तभी एक गाईड आ गया। बोला की 40 रुपए लूंगा और सारी जगह दिखाऊंगा। हमने उसे साथ रख लिया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-pvKsUQ0vfD4/Ts711BKQIbI/AAAAAAAAEt8/jgbfA_-wtVU/s1600/h-6.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="266" src="http://3.bp.blogspot.com/-pvKsUQ0vfD4/Ts711BKQIbI/AAAAAAAAEt8/jgbfA_-wtVU/s320/h-6.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पंकज, चौरसिया जी, गुरुजी, बी एस ठाकुर</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">।वह सबसे पहले एक मंदिर में ले गया। कोई नया मंदिर ही था, उसके विषय में बताने लगा। फ़िर एक जेम्स की दुकान में ले जाकर घुसा दिया। दुकान का नाम Uttrakhand Handicraft Gems Centre था और साईन बोर्ड से लग रहा था कि उत्तराखंड सरकार के हैंडीक्राफ़्ट विभाग का शो रुम है। लेकिन हकीकत में ऐसा था नहीं। उसने लिख रखा था Directorate fo industries Govt. of Uttrakhanad) मैने उससे कई बार कहा कि - आप तो ऐसा लिख रहे हैं जैसे यह उत्तराखंड सरकार का ही शो रुम हैं। तो उसने अपना नाम आर सी चतुर्वेदी बताया और इस शो रुम को उत्तराखंड सरकार का ही बताया। मैने उसका विजिटिंग कार्ड ले लिया। वह हमें पत्थर दिखाने लगा। स्फ़टिक के कई सैम्पल दिखाए। तब तक मैने उसकी दुकान में मोबाईल चार्ज किया। थोड़ा बहुत चार्ज हो जाए तो बात हो जाए लोगों से। 15मिनट तक हम उसका सामान देखते रहे। फ़िर आगे बढ लिए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-sFRjiSadqsU/Ts72DOUis_I/AAAAAAAAEuE/oAQ5N7XLJ1k/s1600/h-5.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://4.bp.blogspot.com/-sFRjiSadqsU/Ts72DOUis_I/AAAAAAAAEuE/oAQ5N7XLJ1k/s320/h-5.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लक्ष्मण झूला</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">ठाकुर गुरुजी को आगे चलने की आदत है। वे सपाटे से चलते हैं, पीछे मुड़ कर भी नहीं देखते। उनकी बहन पत्नी और सास पीछे छूट गयी। मुझे बार बार कह रही थी कि वे दिख नहीं रहे हैं। मैने उन्हे कहा कि लक्ष्मण झूले के पास मिल जाएगें। आप चिंता न करें। जब हम लक्ष्मण झूले के पास पहुंचे तो वे वहीं खड़े मिले। मेले मे लोग इसी तरह छूटा करते थे। लक्ष्मण झूला पर हमने फ़ोटो खींचे। फ़ोन चालु होते ही सबसे पहले संगीता पुरी जी का फ़ोन आया। उन्होने हाल चाल पता किया, फ़िर संध्या शर्मा जी का मैसेज मिला। अभनपुर एवं रायपुर से मित्रों के फ़ोन आने शुरु हो गए। 10 मिनट तक चलने के बाद फ़ोन फ़िर बंद हो गया। मतलब जै राम जी, अब किसी से समपर्क नहीं हो सकेगा। लक्ष्मण झूले से मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाई। पुल पर दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ थी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-73pF4gxVXq0/Ts72QlNHozI/AAAAAAAAEuM/SdVpWI8pseM/s1600/h-2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-73pF4gxVXq0/Ts72QlNHozI/AAAAAAAAEuM/SdVpWI8pseM/s320/h-2.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सड़कों पर बसंत उतर आया</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हमने शाम को डूबते हुए सूरज और उगते हुए चाँद के चित्र लिए। बाजार से चलते हुए चोटी वाले के होटल में पहुंचे। ये चोटीवाले होटल ॠषिकेश की पहचान बन गए हैं। होटल के सामने घंटी लेकर बैठे हुए ये चोटी वाले ग्राहकों को आकर्षित करते हैं। मार्केटिंग का यह फ़ंडा अच्छा है। ऊंची कुर्सी पर बैठे ये चोटी वाले होटल के सामने भीड़ भी नहीं लगने देते। यहाँ से हम दुसरे झूले याने राम झूला पर पहुंचते हैं। पिछली बार जब आया था मैने यहां एक दुकान से एक किलो आटा लेकर गोलियाँ बनाकर मछलियों को खिलाई थी। बड़ी बड़ी मछलियाँ आकर आटे की गोलियाँ खाती हैं। मछलियों को आटे की गोली खिलाने से उग्र ग्रह शांत होते हैं। ऐसा कहा जाता है, कई ज्योतिषि यह टोटका करने कहते हैं। ग्रह शांत हो न हो पर मन की शांति तो हो जाती है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: right;"></div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-Js6zFKEKMD0/TtMu7P49jyI/AAAAAAAAEvE/Ocw1mbWmOg4/s1600/IMG_1809.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="198" src="http://1.bp.blogspot.com/-Js6zFKEKMD0/TtMu7P49jyI/AAAAAAAAEvE/Ocw1mbWmOg4/s320/IMG_1809.JPG" width="320" /></a></div>राम झूला पर चढने से पहले वहां पर चबुतरे बने हैं। पैदल चल कर थक लिए थे इसलिए वहीं बैठकर विश्राम करने लगे। मै चबुतरे पर बैठा तो पंकज फ़ोटो लेने लगा। मैने बगल में मुड़ कर देखा तो एक जाना पहचाना चेहरा सामने आ गया। ये थे पेंड्रारोड़ के रामनिवास तिवारी जी, अपनी डुकरिया के साथ तीरथ करने आए थे। मैने उन्हे देखा और उन्होने मुझे देखा। बोले शर्मा जी, हमने कहा- हाँ तिवारी जी, कैसे हैं? गजब मुलाकात हुई भाई। फ़िर क्या था तिवारी सुनाने लगे, वे किसान कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। पेंड्रारोड़ का बच्चा बच्चा उन्हे जानता है। पिछले इलेक्शन में हम भी उनके यहाँ के पहुंचे थे। पान चबाते हुए गले में चुंदड़ी स्टाईल का पटका डाले मिले। गजब कहानी है भाई। धन्य हो गए तिवारी जी से मिल कर। जब मै फ़ोटो लेने लगा तो पता चला कि वे पंकज के पापा के भी परिचित निकले।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-SOjJxxOnPvA/Ts73Pesb0mI/AAAAAAAAEuc/ff63TvCl8H0/s1600/h-7.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-SOjJxxOnPvA/Ts73Pesb0mI/AAAAAAAAEuc/ff63TvCl8H0/s320/h-7.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पंकज सिह </td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">रामझूला पर चढे तो वह हिल रहा था, गुजरात की कुछ महिलाएं डरते हुए उस पर चल रही हैं। नदी पर केबल के सहारे बना हुआ यह पुल कारीगरी की अद्भुत मिशाल है। मोटर सायकिल और स्कूटर वाले भी इसी पुल से जा रहे थे और पुल लगातार हिल रहा था। डर भी लगता है कि कहीं गिर न जाए। लेकिन जब इतने बरसों से नहीं गिरा तो हमारे चलने से क्या गिरेगा। हमारे आगे गिलहरे गुरुजी और चौरसिया जी थे। हम पीछे पीछे चल रहे थे फ़ोटो लेते हुए। पुल पार करके हम धीरे धीरे बाजार की तरफ़ हो लिए, आगे बस अड्डा था। वहीं पर हमें ऑटो वाला मिल गया। बलदाऊ गुरुजी भी वहीं इंतजार करते मिले परिवार के साथ। लेकिन गिलहरे गुरुजी और चौरसिया जी नहीं आए थे। ऑटो वाला जल्दी चलने के लिए हाय तौबा मचाने लगा। मैं इन्हे ढूंढ रहा था। मोबाईल की बैटरी खत्म थी इसलिए इन्हे ढूंढने में समस्या हो रही थी। पैदल चलने की इच्छा न होने पर भी इन्हे ढूंढा। कहीं नहीं मिले, जमीन खा गयी कि आसमां निगल गया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-WX-ZqDJIWM0/Ts74VSyngtI/AAAAAAAAEuk/BdmUObkECxk/s1600/h-9.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-WX-ZqDJIWM0/Ts74VSyngtI/AAAAAAAAEuk/BdmUObkECxk/s320/h-9.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">प्यास बुझाएं - मेरी फ़ोटोग्राफ़ी</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">ऑटो वाला कह रहा था कि गुरु जी नहीं मिले तो उन्हे छोड़ कर चले जाएगें। अरे कैसे छोड़ कर चले जाएगें, तेरे बाप का राज है क्या? तुझे अधिक जल्दी है तो जाकर ढूंढ कर ला। अभी 6 नहीं बजे हैं और हमारे पास 6 बजे तक का समय है। हम उन्हे ढूंढते-ढूंढते थक हार कर बैठ गए। जब वे आएगें तभी चलेगें। मैं समझ तो गया था कि वे गलत रास्ते चले गए पुल से। दांए मुड़ने की बजाए बांए चले गए, जैसे नीरज जाट एवं जाट देवता में दांए बांए का लफ़ड़ा हो जाता है वैसा ही इनके बीच भी हुआ होगा। आखिर में हमने तय किया कि 10 मिनट में ये लोग नहीं आते हैं तो इन्हे छोड़कर ही चले जाएगें। ऐसा विचार बनाते ही ये दोनो सामने नजर आए और वही हुआ कि ये पुल से बांए तरफ़ चल गए थे। इसलिए रास्ता भूल गए थे। लेकिन वह जगह भूलने वाली नहीं है। ऑटो वाले ने युनियन में आकर पर्ची देकर 1500 रुपए लिए और अपनी जेब में रख लिए। मैने सोचा कि चलो हरिद्वार जाकर देने हैं उसने पैसे अभी रख लिए तो कोई बात नहीं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-GwsAQBugF_Q/Ts74krNTreI/AAAAAAAAEus/msRIMacYfa8/s1600/h-01.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-GwsAQBugF_Q/Ts74krNTreI/AAAAAAAAEus/msRIMacYfa8/s320/h-01.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पानी वाले बाबा- आधा सच</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">अब हरिद्वार हम मेन रोड़ से जा रहे थे। राजाजी पार्क वाला रास्ता रात में बंद कर दिया जाता है। जंगली जानवरों के हमला होने और बियाबान में लूटपाट का खतरा है। रास्ते में श्यामपुर की पुलिस चौकी के पास दो तीन लड़के मिले, उन्होने ऑटो वाले को रोक लिया और उनमें आपस में कुछ बातें होने लगी। मेरा ध्यान उनके तरफ़ ही था पता चला कि ऑटो ड्रायवर का नहीं था और वह किसी से किराए पर चलाने के लिए लाया था। जिसकी मियाद 6 बजे तक थी। अब ऑटो मालिक अपना ऑटो वापस मांग रहा था और कह रहा था कि सवारी जाए भाड़ में, मुझे अभी ऑटो चाहिए। तुम जानो और सवारी जाने। ऑटो ड्रायवर ने हमें पहुंचाने के लिए दुसरे ऑटो वाले से बात की। वह 400 मांग रहा था हमें छोड़ के आने के। यह 400 देने को तैयार नहीं था। इस तरह उसने सड़क पर ही 20 मिनट लगा दिए। मुझसे कहने लगा कि हरिद्वार रोड़ पुलिस ने बंद कर रखा है आपको किसी और साधन से जाना पड़ेगा। मैं आगे नहीं ले सकता। गाड़ी ही नहीं जा रही है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-KHMaJ9ZgOzU/Ts74yP9ROpI/AAAAAAAAEu0/vxVbhkFOfJc/s1600/images.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-KHMaJ9ZgOzU/Ts74yP9ROpI/AAAAAAAAEu0/vxVbhkFOfJc/s1600/images.jpeg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">विचार क्रांति अभियान की मशाल</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">आधे रास्ते में गाड़ी रोक कर साले तमाशा करने लगे। बस फ़िर अपन ने अपना फ़ार्मुला नम्बर 45 इस्तेमाल किया। उस ऑटो मालिक को कोने में ले जाकर मंत्र दिया। उस पर मंत्र का असर बिच्छु के डंक मारने जैसा हुआ। जो अभी तक ऑटो मांग रहा था वह उस ड्रायवर से बोला- साले सवारी देख कर बैठाए करो, खुद भी मरोगे और हमें भी मरवाओगे। चलो अब जैसे भी होगा इन्हे गौरीशंकर 1 तक पहुंचा कर आना है। अब इन्होने यहीं से हिसाब लगाना शुरु कर दिया कि रास्ता बंद होने पर किधर से गौरीशंकर तक पहुंचा जाएगा। पहले हमें हर की पौड़ी तक छोड़ने की बातें करने लगे। वहां से हरिशंकर लगभग 5 किलो मीटर है। मैने कहा कि - एक बार तो तुम्हे समझा दिया, फ़िर मत कहना कि जादू नहीं दिखाया। जब जादू देख लोगे तो भालू के बालों वाला ताबीज भी लेना पड़ेगा। जब ताबीज ले लिया तो गले में डालना पड़ेगा। बहुत दुखदायी होगा तुम्हारे लिए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-gNLCHSnw3R4/Ts75IJc5GOI/AAAAAAAAEu8/Esf9suRE87E/s1600/Image6328.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-gNLCHSnw3R4/Ts75IJc5GOI/AAAAAAAAEu8/Esf9suRE87E/s320/Image6328.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">हरिद्वार में गंगा जी का पुल - मुसीबत की जड़</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">इधर उधर से घुमाते हुए वे हमें पुल के नीचे ले आए जहाँ से हमें बैठाया था। मैने कहा कि पर्ची में गौरीशंकर लिखा है देख ले। हमें वहाँ तक छोड़ना पड़ेगा। वह अड़ गया कि गौरीशंकर तक नहीं जाऊंगा। मैने कहा कि बहुत देर से तुझे बरज रहा था। अब तेरे क्रियाकर्म का समय आ गया है। जब नहीं ही मानेगा तो फ़ार्मुला नम्बर 36 लगाना पड़ेगा और फ़िर तू दो चार दिन किसी काबिल नहीं रहेगा। सोच ले अब, वैसे भी बिना गौरी शंकर जाए हम ऑटो से नहीं उतरने वाले। साले तुझे हराम का माल चाहिए, मुफ़्त में 1500 सौ रुपए नहीं दिए हैं। जात भी देगा और जगात भी देगा। फ़िर वह हमें गौरीशंकर 1 तक छोड़ने के लिए चल पड़ा। ठंड बढ चुकी थी, लाउडस्पीकर पर प्रसारण हो रहा था कि- शांतिकूंज हरिद्वार द्वारा बाकी कार्यक्रम स्थगित कर दिए गए हैं, कल सिर्फ़ पूर्णाहूति होगी, जो परिजन अपने वाहनों से आए हैं वे वापस चले जाएं। ट्रेन आदि से आए हुए परिजन अपने टेंटों में रहे। भोजन की व्यवस्था यथावत चलती रहेगी तथा स्नान करने के लिए गंगा के किनारे न जाएं। जिससे भीड़ बढ जाए, खास कर हर की पौड़ी की तरफ़ जाने की मनाही है। भोजन करने के पश्चात योग निद्रा में पहुंच गए। जारी है --</div><div style="text-align: justify;">(फ़ोटो - पंकज सिंह के सौजन्य से)</div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1562666261610468361.post-79698923296950861192012-04-23T16:06:00.000+05:302012-04-23T16:06:01.401+05:30बसंती तागें वाली और हरिद्वार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-ZYW3F00kZ40/TsxpoIU8lsI/AAAAAAAAEs8/YTL-KzM7vXs/s1600/Image6296.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-ZYW3F00kZ40/TsxpoIU8lsI/AAAAAAAAEs8/YTL-KzM7vXs/s320/Image6296.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">तांगे की सवारी - बी एस ठाकुर एवं गिलहरे के साथ</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><span style="color: red;"><a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_15.html">प्रारंभ से पढें</a></span></span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="color: red;">ब</span></span>संती तांगे वाली हमें पुल पर छोड़कर फ़रार हो गयी, पुल पर बहुत भीड़ थी बड़ी मुस्किल से नीचे उतरने के बाद हमने गौरीशंकर 1 का पता पूछा तो पता चला कि पुल के आखरी छोर से रास्ता बना है। मेरे पास वी आई पी पास था, वीआईपी व्यवस्था यज्ञशाला के पास ही की गयी थी। लेकिन वहाँ वीआईपी बनकर अकेले रहने की बजाय साथियों के दल में रहना ही उपयुक्त लगा। हम अपना सामान लाद कर गौरीशंकर 1 के लिए चल पड़े। सीढियों के पास से लगभग 3 किलोमीटर पैदल जाना पड़ा। रास्ते में एक जगह पुल पर लगी लोहे की सीढी से लोग उपर चढ रहे थे। यह बहुत ही खतरनाक कार्य था। महिलाएं भी सीढी पर उपर चढ रही थी। लोग पैदल चलने से बचने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे थे और लगभग आधा किलोमीटर लाईन में लग कर अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। अगर पैदल चलते तो पहुंच जाते। इस सीढी से भी दुर्घटना हो सकती थी। मैने एक फ़ोटो ली और आगे बढ गया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-XveE_wBhwRQ/TsxqErEBubI/AAAAAAAAEtE/klsD5_vCY0Y/s1600/Image6308.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-XveE_wBhwRQ/TsxqErEBubI/AAAAAAAAEtE/klsD5_vCY0Y/s320/Image6308.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बसाहट का नक्शा</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">गौरी शंकर 1 के रिसेप्शन पर लोग आमद देकर अपना टेंट नम्बर ले रहे थे। हमें टेंट नम्बर छत्तीसगढ 220 मिला। यह लगभग 100 लोगों के रहने के लिए मुफ़ीद था। यहाँ से गंगा का किनारा भी समीप होने से रोज गंगा स्नान हो सकता था। सभी को प्रिंटेट परिचय पत्र दिए गए। तीन माह पहले से सभी शक्तिपीठों से आने वाले परिजनों की लिस्ट मंगा ली गयी थी और सभी के परिचय पत्र यहां बन कर तैयार थे। इतने बड़े आयोजन की सुरक्षा की दृष्टि से यह सही कदम था। टेंट के कई शहर बसाए गए थे। जिनमें छत्तीसगढ से आने वालों की संख्या अधिक थी। हमारे सीताराम गुरुजी दो महीने पहले से ही समय दान के लिए पहुंच गए थे। उनकी ड्युटी पंत द्वीप में थी और उन्होने मिलने की इच्छा भी जाहिर की थी। यहाँ कहीं भी जाने के लिए पैदल ही जाना पड़ेगा, यह मैं जानता था। कोई सवारी और साधन उपलब्ध नहीं था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-cmBF134MVhY/Tsxq695wdKI/AAAAAAAAEtM/MvgmB7x37cM/s1600/Image6300.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://3.bp.blogspot.com/-cmBF134MVhY/Tsxq695wdKI/AAAAAAAAEtM/MvgmB7x37cM/s320/Image6300.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अपना सामान लेकर टेंट की ओर जाते सहयात्री</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">गायत्री परिवार के इस आयोजन की तैयारी तीन साल पहले से हो रही थी। कुंभ से भी विशाल आयोजन और इंतजाम था। जिसमें प्रशासन की कहीं पर भी भागीदारी नहीं थी। समय दानी वालिएन्टर्स अपना योगदान दे रहे थे। मुस्तैदी से अपनी ड्युटी पर लगे थे। जिस दिन हम पहुंचे बताते हैं कि उस दिन लगभग 50 लाख गायत्री परिजन हरिद्वार पहुंच चुके थे। उनके रहने, खाने एवं निस्तारी की उत्तम व्यवस्था थी। कुंभ में अरबों रुपए खर्च करके भी शासन इतनी सुंदर व्यवस्था नहीं कर पाता। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को उसका परिचय पत्र बना हुआ तैयार मिल रहा था और रहने के लिए तुरंत छोलदारियों का आबंटन कर दिया गया। खानी की व्यवस्था सुबह से प्रारंभ हो जाती थी। लोग स्वयं जाकर भोजनालय में अपनी सेवाएं दे रहे थे। सेवा भाव से भोजन करवा रहे थे। भोजन के लिए अनुशासित कतारबद्ध लोग खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। हम अपने टेंट की ओर चल पड़े।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-4H_z6WZYF2Q/TsxrRyiELLI/AAAAAAAAEtU/Pg5mo6EBtYw/s1600/Image6297.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-4H_z6WZYF2Q/TsxrRyiELLI/AAAAAAAAEtU/Pg5mo6EBtYw/s320/Image6297.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">सीढी पर चढते लोग</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">टेंट में सामान रख कर साथी लोग गंगा स्नान के लिंए चले गए और हम सामान की चौकीदारी करते रहे। छोलदारी में रात गुजारने का अपना ही आनंद है। वीआइपी लोगों के लिए स्विस कॉटेज का इंतजाम था। जिसमें पलंग, लैट्रिन बाथरुम, पंखा था। छोलदारी में लाईट और दरी बस थी। इस पर ही रात गुजारनी थी। साथियों के आने के बाद हम स्नानादि से निवृत्त हुए। हमारा कार्यक्रम मसूरी जाने का था। इसलिए बस स्टैंड के लिए जल्दी निकलना चाहते थे। बस स्टैंड जाने के लिए फ़िर उसी पुल पर चढना था। हम 4किलोमीटर चलते हुए सीढी के पास पहुंचे तो वहाँ पुलिस लग चुकी थी और सिर्फ़ लोगों को उतरने दिया जा रहा था। चढने नहीं दिया गया। हमारी योजना खटाई में पड़ चुकी थी। वापस पुल पर आने के लिए 5 किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता और 12 बज रहे थे। मसूरी जाकर वापस आना संभव नहीं था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-PCFoK9LQMuU/TsxrnS2I4aI/AAAAAAAAEtc/YbHB_varuTk/s1600/Image6301.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-PCFoK9LQMuU/TsxrnS2I4aI/AAAAAAAAEtc/YbHB_varuTk/s320/Image6301.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">भोजन की लाईन</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">जब मैं गौरीशंकर से पुल की तरफ़ आ रहा था, लगभग 11 बजे होगें, तब घर से श्रीमती जी का फ़ोन आया कि हरिद्वार में भगदड़ मच गयी है। कई लोग मारे गए हैं, फ़िर एक मित्र का फ़ोन आया कि हरिद्वार में यज्ञ स्थल पर दंगा हो गया है। ऐसा मुझे कहीं नजर नहीं आया। टेंट में दिन में बिजली न होने से हमारा मोबाईल चार्ज नहीं हो पाया था। इसलिए बंद हो गया। अब किसी से सम्पर्क नहीं हो सकता था। यह भी एक समस्या हो गयी। जितने भी इष्ट मित्र परिजन थे इस अवधि में आशंकाओं से दो चार होते रहे। वे फ़ोन से जानकारी लेना चाहते थे लेकिन मोबाईल बंद होने से उन्हे सही जानकारी नहीं मिल पा रही थी। जैसा अफ़रा तफ़री एवं भगदड का माहौल बताया जा रहा था वैसा तो मुझे वहाँ नहीं लगा। हम लोग सीढी के पास से वापस आते हुए थक चुके थे। अब कहीं बैठने की जगह देख रहे थे। जहाँ खड़े होने के लिए जगह नहीं थी वहाँ बैठने के लिए जगह तलाश करना बड़ी बात है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-DwRqh1QiX8Y/TsxsDnDzaCI/AAAAAAAAEtk/zED4rj0defA/s1600/Image6329.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-DwRqh1QiX8Y/TsxsDnDzaCI/AAAAAAAAEtk/zED4rj0defA/s320/Image6329.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">छोलदारियों का विहंगम दृश्य</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">हम चलते हुए आगे बढे तो एक स्थान पर चायवाले की 5-6 कुर्सियाँ खाली दिखी। बस हमने उन्हे हथिया लिया और चाय का आर्डर दिया। सभी ने आराम किया। उसने चाय एकदम घटिया बनाई। हमें चाय से कोई मतलब नहीं था, हमारा मुख्य उद्देश्य कुछ देर आराम करना था। यहां 1बज गए थे, पंकज और मैने कुछ फ़ोटुएं ली। अब विचार बनाया कि मसूरी की बजाए ॠषिकेश चला जाए। जब पहले मैं आया था तब हरिद्वार से ॠषिकेश जाने के 5 रुपए लगते थे। मैने सोचा कि अब अधिक से अधिक 20 रुपए लगेंगे। लेकिन जब पुल के नीचे जाकर ऑटोवालों से पूछा तो उन्होने आठ सवारी के 1600 रुपए बताए, ॠषिकेश से घुमाकर वापस लाने के। मै तो भौंचक रह गया। एक बार तो मन में आया कि बजाऊं उसके कान के नीचे। साले अनाप-शनाप किराया बता रहे हैं। दो चार ऑटो वालों से पूछा तो उन्होने भी यही किराया बताया। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-hwHtRZKlOVQ/TsxsZ0O2QzI/AAAAAAAAEts/FOy8jAh6wNE/s1600/Image6304.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-hwHtRZKlOVQ/TsxsZ0O2QzI/AAAAAAAAEts/FOy8jAh6wNE/s320/Image6304.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जय बाबा की - वानप्रस्थ की ओर अग्रसर :)</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">ॠषिकेश दो बार मेरा पहले भी देखा हुआ था, लेकिन जो नए लोग मेरे साथ आए थे वे देखना चाहते थे। आखिर 1500 रुपए में एक ऑटो तैयार हुआ। वह हमें मुख्यमार्ग की बजाय राजा जी पार्क के भीतर से नहर के किनारे-किनारे ॠषिकेश लेकर गया। उसने बताया कि ॠषिकेश पहुंचकर आपको 1500 रुपए युनियन में जमा करने होगें। फ़िर वहां से आपको रसीद और टाईम दिया जाएगा। उस टाईम पर आपको वापस आना है। युनियन वालों ने भी फ़र्जीवाड़ा खोल रखा है। पैसे की रसीद काटने के 10रुपए लेते हैं सवारियों से। खुले आम डकैती का शिकार हो रहे हैं पर्यटक। घुमकर आने के बाद रसीद दिखाने पर वह आपके रुपए वापस करेगा। ऑटो वाले कहा कि जब आपको वापस छोड़ देगें तभी आप किराया देना। ऑटो वाला गाजीपुर का था, कुछ अधिक ही चलता पुर्जा नजर आ रहा था। सोच रहा था कि मुफ़्त में ही 1500 हजम कर ले। लेकिन उसका पाला तो मोगेम्बो से पड़ा था। अभी उसने मेरा चमत्कार नहीं देखा था। जारी है....<a href="http://lalitdotcom.blogspot.com/2011/11/blog-post_26.html">.आगे पढें।</a></div></div>ब्लॉ.ललित शर्माhttp://www.blogger.com/profile/09784276654633707541noreply@blogger.com0