शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

ब्रह्मपुत्र-उमानंद आश्रम-टीचर्स की याद-नवग्रह मंदिर-सुल्तान गंज की ओर---यात्रा-9

5-5 रुपए में स्पेसियों वाले ने ब्रह्मपुत्र के किनारे पहुंचा दिया। जहां बोट में होटल बने हुए हैं। ब्रह्मपुत्र में पानी बहुत ज्यादा था। नदी उफ़ान पर थी। किनारे पर बोट होटल बने थे। हमने नदी में फ़ेरा लगाने वाली बोट का पता किया तो पता चला बस थोड़ी ही देर में जाने वाली है जो उमानंद मंदिर का एक चक्कर लगाकर वापस आएगी। बादल घिर आए थे मौसम सुहाना हो गया था। हम बोट पर गए वहां किचन भी थी। अब मजा आ जाएगे, बोट पर नास्ता करने का आनंद लेगें, डेक पर टेबल और कुर्सियां लगी थी, और भी पर्यटक थे। 60-60 रुपए की टिकिट ली हमने और बोट पर सवार हो गए। बोट लगभग डेढ घंटे घुमाता है। बोट चल पड़ी और बरसात  होने लगी। शाम को बरसात में ब्रह्मपुत्र की बोट से सैर करना और गिरते हुए पानी का मजा लेना अद्भुत अनुभव रहा। हमने डेक पर बैठ कर चाउमीन का मजा लिया। बोट जब हवा के थपेड़ों से हिलती थी तो एक हाथ से चम्मच और प्लेट संभालनी पड़ती थी। 

बस हम एक आयटम मिस कर रहे थे। डॉ. दराल भाई साहब वाली टीचर्स को। हा हा हा निकले थे धार्मिक यात्रा में सावन के महीने में, नहीं तो बिना पूरा मजा लिए वापस नहीं आते,सोडा के साथ व्हाईट मिस्चीफ़ भी चल जाती या ट्रांजिट कैम्प में स्कॉच तो मिल ही जाती। लेकिन तौबा ऐसी चीजों का नाम लेना ठीक नहीं है, हमारे देवी भाई नाराज हो जाएंगे। उमानंद आश्रम में पानी भर चुका था इसलिए हम वहां उतर नहीं सके। दूर से ही दर्शन किए, बरसात बढने के कारण डर लग रहा था कहीं बोट ही न डूब जा जाए। जब बोट किनारे लगी तो देखा कि बोट में नीचे केबिन में लोग आराम से जुआ खेल रहे हैं। वाह पुलिस से बचने का तो बहुत ही मुफ़ीद साधन है।

ब्रह्मपुत्र के किनारे-किनारे यह गोहाटी का मुख्य बाजार है, गोहाटी आने वाले एक बार जरुर इस बाजार और सड़क पर आते हैं। हम पैदल-पैदल ट्रांजिट कैंप आए, भोजन किया और रेल्वे स्टेशन पहुंच गए। यहां रेल्वे स्टेशन पर पूरी सुरक्षा व्यवस्था है, फ़ोर्स के जवान सेंड बैग की आड़ में अपनी गन लेकर हमेशा तैनात रहते हैं। अंदर घुसने के लिए मैटल डिक्टेटर से गुजरना पड़ता है और क्लोज सर्किट कैमरा सब रिकार्ड करता रहता और डिस्पले भी करता है। सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही उम्दा किस्म की लगी। अब हम सब अपने लिहाफ़ में जाने को तैयार थे। रात हो चुकी थी, सोने के लिए रात का आमंत्रण था।
नवग्रह मंदिर-गोहाटी
दूसरे दिन सुबह नहा धोकर हम नवग्रह मंदिर दर्शन करने गए। निन्नी महाराज सुबह उठकर एक बार फ़िर कामाख्या दर्शन करने के लिए चले गए। नवग्रह मंदिर एक पहाड़ी पर स्थित है। इस पहाड़ी बहुत सारे घर बने हैं। बरसात जारी थी। पहाड़ी की पतली सड़क पर चढना बहुत कठिन हो रहा था। सांस फ़ुल रही थी। सीधी चढाई थी। नवग्रह मंदिर में बहुत सारे दिए जल रहे थे। जो अंदर के अंधकार को दूर करने की पूरजोर कोशिश कर रहे थे। अंधेरे से दियों की लड़ाई चल रही थी। लोग नौ ग्रहों की पूजा में व्यस्त थे। हमने भी पूजा की। प्रसाद लिया और वापस रेल्वे स्टेशन की ओर चल पड़े। 11 बजे सुल्तान गंज के लिए हमारी ब्रह्मपुत्रा मेल थी। इसलिए समय से रेल्वे स्टेशन पहुंचना जरुरी था। रेल्वे स्टेशन पहुंच कर रिटायरिंग रुम चेक आऊट किया और स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार करने लगे।

रामबती जाग उठी
दो रोटियाँ कितना दौड़ाती हैं?
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गुरुवार, 26 अगस्त 2010

बरसों का सपना - कामाख्या मंदिर--यात्रा--8

रसों का सपना पूरा होने जा रहा था। हमें कामाख्या मंदिर के दर्शन होने जा रहे थे। हमारे छत्तीसगढ़ में इसे कौरु नगर कहा जाता है और यहां तंत्र सीखने वाले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां मंत्र-तंत्र से तांत्रिक आदमी को पशु पक्षी बनाकर अपने घर में रख लेते हैं। जब उससे काम लेना होता है तो उसे आदमी बना देते हैं, जब काम खत्म हो जाता है तो पुन: पशु पक्षी बना दिया जाता है। तंत्र का ज्ञान पूर्ण होने पर उसे आदमी बनाकर घर जाने दिया जाता है। मुझे कामाख्या आने से पहले हमारे गांव के कुछ लोगों ने इस विषय में जानकारी दी थी। मैने कहा था कि वहां जाकर ही देखेंगे।

कामाख्या मंदिर गोहाटी से 12 किलोमीटर पर स्थित है। पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर को उग्र तंत्र पीठ माना जाता है। इसके विषय में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। यहां प्रतिवर्ष ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सौर आषाढ माह के मृगशिरा नक्षत्र के तृतीय चरण बीत जाने पर चतुर्थ चरण में आद्रापाद के मध्य पृथ्वी ॠतुवती होने पर अम्बुवासी मेला भरता है यह मान्यता है कि भगवान विष्णु के चक्र से खंडित होने पर सती की योनी नीलांचल पहाड़ पर गिरी थी 51 शक्ति पीठों में कामाख्या महापीठ को सर्व श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यहां पर योनी की पूजा होती है। यही वजह है कि कामाख्या मंदिर के गर्भ गृह में फ़ोटो लेने की मनाही है एवं तीन दिन मंदिर में प्रवेश करने की भी मनाही होती है। चौथे दिन मंदिर का पट खुलता है तथा विशेष पूजा के बाद भक्तों को दर्शन करने का मौका मिलता है।
इन चार दिनों के अंदर असम में कोई भी शुभकार्य नहीं होता, साधु एव विधवाएं अग्नि को नहीं छूते और आग में पका भोजन नहीं करते, पट खुलने के बाद श्रद्धालु मां पर चढाए गए लाल कपड़े के टुकड़े को पाकर धन्य हो जाते हैं। मान्यता यह भी है कि रतिपति कामदेव शिव की क्रोधाग्नि में यहीं पर भस्म हुए थे। कामदेव ने अपना पूर्व रुप भी यहीं पर प्राप्त किया था इसलिए इस क्षेत्र का नाम कामरुप भी पड़ा। कामाख्या मंदिर में दर्शन करने के बाद ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में उमानंद मंदिर जाना भी जरुरी समझा जाता है। इसका जीर्णोद्वार राजा नर नारायण ने करवाया था।

अहोम राजाओं ने मंदिर की पूजा के लिए कन्नौज एवं मिथिला से ब्राह्मणों को लाकर यहां बसाया था। आज वे असम की संस्कृति में इतने रच बस गए हैं कि उनके और असमियों में कोई अंतर प्रतीत नहीं होता.
कामाख्या मंदिर में दर्शनार्थियों के लिए  तीन प्रकार की टिकिट मिलती है। साधारण 150, वीआईपी 500, एवं वीवीआईपी 1000 की। हमने देखा कि लाईन छोटी है इसलिए 150 वाली टिकिट कटाई और लाईन में लग गए। जहां से हम लाईन में लगे थे उसके बगल में बलि गृह है, जहां भक्त अपनी श्रद्धानुसार बकरे और भैंसे की बलि देते हैं। मैने देखा कि वहां पर ताजा-ताज़ा बलि दी गयी थी। मक्खियां झूम रही थी। हमारी लाईन भी सरकती हुई गर्भ गृह तक पहुंच गयी। गर्भ गृह तल से लगभग 10 फ़िट नीचे है। जहां निरंतर पानी बहते रहता है।

जब हम गर्भ गृह के सामने स्थापित विग्रह के समीप पहुंचे तो एक घटना घट गयी। किसी जोर से ओSSSम ध्वनि का उच्चारण किया, मैने पलट कर देखा तो मेरे  मुझे एक नाटी सी लड़की दिखाई पड़ी। जिसने हाथ और गले में बहुत सारे गंडे डोरे बांध रखे थे। लोवर और टी शर्ट पहन रखी थी सिंदूर से मुंह लाल कर रखा था। उसके साथ में एक लम्बे बालों वाला लड़का था जिसने बालों में हेयर बेन्ड लगा रखा था। मैने डॉक्टर से कहा कि- “यह कोई नयी जादू सीखने वाली सीखाड़ी लगती है।“ तभी पंडे ने सुनकर कहा कि-“यह एकता कपूर है, महाभारत सीरियल की कामयाबी के लिए पूजा करने आई है।“ तो मैने डॉक्टर से कहा कि-“एकाध फ़ोटो ही खींचवा लेते हैं।“ तो डॉक्टर ने कहा कि-“इसके साथ क्या फ़ोटो खिंचवाना जिसने लोगों के घर बरबाद कर दिए।“ फ़िर मैं उससे सहमत होकर चुप हो गया।

हम गर्भ गृह में पहुंच चुके थे अंदर सिर्फ़ एक दीये का प्रकाश था, कुछ सूझ नहीं रहा था। काफ़ी अंधेरा था। पड़ों की लाईन लगी थी सब अपने अपने जजमान को पूजा करवा रहे थे। सबकी अलहदा दुकान सजी थी। हमने पूजा की और बाहर आ गए। कुछ देर मंदिर प्रांगण में बैठे, वहीं पार्श्व में बलि प्रकरण चल रहा था। भैंसे और बकरे काटे जा रहे थे। मुलायम सिंग की सरकार को बचाने के लिए समाजवादी पार्टी के एक विधायक समरीते ने 307 बकरे एवं 15 भैंसों की बलि दिलाई थी। सोचता हूँ कितना भयानक दृश्य रहा होगा। मंदिर पशुओं की कत्लगाह में बदल गया होगा और इतना मांस कौन खाएगा? चारों तरफ़ मक्खियां भिन-भिना रही थी। क्या कहा जा सकता है जब लोगों ने बलि  को धर्म और संस्कृति से जोड़ रखा है। तभी मंदिर की प्रसाद शाला खुली जहां मांस भात का प्रसाद मिल रहा था। लोग दौड़ पड़े लेने के लिए, हम बैठे देखते रहे।हमने मंदिए के ट्रस्ट में दान किया तो हमें लाल कपड़े का एक छोटा टुकड़ा दिया गया, जिसकी मान्यता कामख्या के प्रसाद के रुप में है, हमारे पहुंचने से चार दिन पहले ही अम्बुवासी मेला सम्पन्न हो चुका था। हमने प्रसाद को रख लिया और ट्रस्ट से दान की रसीद ली। वापस गोहाटी के लिए चल पड़े। 

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बुधवार, 25 अगस्त 2010

गोहाटी स्टेशन, ट्रांजिट कैम्प एवं ब्रह्मपुत्र से भेंट---यात्रा 7

म असम की राजधानी गोहाटी के करीब पहुंच चुके थे। रेल में बैठे हुए पटरियों के किनारे बनी हुई झोंपड़ पट्टियों को देख रहा था। भारत के अन्य स्थानों जैसा यहां भी था। लोगों ने रेल्वे की जमीन पर कब्जा करके रिहायश बना ली थी। कहीं पर मछली मार्केट कहीं पर मटन मार्केट, बस भीड़ भाड़ लगी हुई थी। असम में 27 जिले हैं। असम शब्द संस्कृत के अस्म शब्द से बना है जिसका अर्थ आसमान होता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में इस स्थान को प्रागज्योतिषपुर के नाम से जाना जाता था । पुराणों के अनुसार यह कामरूप की राजधानी था । महाभारत के अनुसार कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध ने यहां के उषा नाम की युवती पर मोहित होकर उसका अपहरण कर लिया था । हंलांकि यहां की दन्तकथाओं में ऐसा कहा जाता है कि अनिरुद्ध पर मोहित होकर उषा ने ही उसका अपहरण कर लिया था । इस घटना को यहां कुमार हरण के नाम से जाना जाता है ।
कुछ लोगों की मान्यता है कि "आसाम" संस्कृत के शब्द "अस्म " अथवा "असमा", जिसका अर्थ असमान है का अपभ्रंश है। कुछ विद्वानों का मानना है कि 'असम' शब्‍द संस्‍कृत के 'असोमा' शब्‍द से बना है, जिसका अर्थ है अनुपम अथवा अद्वितीय। लेकिन आज ज्‍यादातर विद्वानों का मानना है कि यह शब्‍द मूल रूप से 'अहोम' से बना है। ब्रिटिश शासन में इसके विलय से पूर्व लगभग छह सौ वर्षो तक इस भूमि पर अहोम राजाओं ने शासन किया। आस्ट्रिक, मंगोलियन, द्रविड़ और आर्य जैसी विभिन्‍न जातियां प्राचीन काल से इस प्रदेश की पहाड़ियों और घाटियों में समय-समय पर आकर बसीं और यहां की मिश्रित संस्‍कृति में अपना योगदान दिया। इस तरह असम में संस्‍कृति और सभ्‍यता की समृ‍द्ध परंपरा रही है।

चारों तरफ़ हरियाली, पहाड़ों और नदियों से समृद्ध ब्रह्मपुत्र के देश असम मन को मोह लेता है। रमणीय प्रदेश है, लेकिन यहां की हवाओं में बारुद की गंध आती है, जिससे मन में एक अज्ञात भय उत्पन्न होता है। सब तरफ़ मिलेट्री वर्दी ही दिखाई देती है। जहां देखो वहीं गन लिए हुए मिलेट्री और बार्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स के जवान ही दिखाई देते हैं। यहां के लोगों को इनके साथ ही मिलकर जीने की आदत पड़ गयी है। अगर कोई नया आदमी यहां आए तो एकबारगी उसके मस्तिष्क में कई भ्रांतियां जन्म ले लें। हम लगभग सुबह 7-8 बजे रेल्वे स्टेशन गोहाटी पहुंच चुके थे। अपना सामान लेकर होटल की तलाश में निकले। 

गोहाटी शहर रेल्वे लाईन के दोनो तरफ़ बसा हुआ है। होटल इत्यादि रेल्वे स्टेशन के परली तरफ़ हैं। हम अपना सामान उठा कर रेल्वे लाईन पार कर बाजार में पहुंचे, और होटल ढुंढने लगे। दो घंटे में हमें किसी भी होटल में कमरा नहीं मिला। कहीं एक दो कमरे मिले। लेकिन हम सभी के लिए एक जगह पर रुम की व्यवस्था नहीं हो सकी। दो घन्टे धक्के खाने के बाद हम वापस रेल्वे स्टेशन आ गए। युएसए ने कहां कि यहीं रिटायरिंग रुम में रुका जाए। सबसे महफ़ूज जगह है। हमने 750 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से 4 एसी रुम लिए। जिसमें 8 लोग सेट हो गए। नहा धोकर सबसे पहले भोजन की व्यवस्था करनी थी। गोहाटी हमारे लिए नया था, जो जान पहचान के लोग थे उनका नम्बर मैं डायरी में घर ही भूल आया था।

स्टेशन से बाहर निकलते ही सामने बीएसएफ़ एवं आर्मी के ट्रांजिट कैंप हैं। वहां इनकी मेस भी है। हमने मेस में पहुंचकर उनसे भोजन की व्यवस्था का निवेदन किया तो उन्होने हमारा निवेदन स्वीकार कर लिया, मेस में 20 रुपए में भरपेट अच्छा भोजन मिल जाता है, लेकिन यह भोजन सिर्फ़ सुरक्षा बलों के लिए ही उपलब्ध है। बाद में हमें पता चला कि ब्रह्मपुत्र के किनारे बहुत से मारवाड़ी भोजनालय हैं जहां भोजन की व्यवस्था हो सकती है। लेकिन हमने मेस में ही भोजन करना उपयुक्त समझा। यहां गेंहू के आटे की रोटियां मिल जाती थी। हम पहले ही मैदा की रोटी खाकर अपना पेट खराब कर चुके थे। मेस में हमने खाना खाकर कचहरी के पास से प्रसिद्ध कामख्या मंदिर के लिए बस पकड़ी।

चित्र-गुगल से साभार Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, 23 अगस्त 2010

चल पड़े गोहाटी की ओर-----यात्रा 6

हम हावड़ा पहुंच चुके थे, हमारे साथी काली घाट जाना चाहते थे लेकिन मेरा मन नहीं था। काफ़ी थकान महसूस हो रही थी। शाम को 4/30 पर हमारी ट्रेन गोहाटी जाने लिए थी। मैने देवी भाई को बहुत मनाया कि रुक जाओ लेकिन वे भी नहीं रुके, ये सब काली घाट चले गए, मैं रेल्वे की कैंटीन में बैठ गया। सोचा कि एकाध नींद की झपकी ले ली जाए, बाहर मुसलाधार वर्षा हो रही थी। खाना खाने के काफ़ी देर बाद मित्र लोग 4 बजे हावड़ा पहुंचे हमने जल्दी से रुम चेक ऑउट किया और स्टेशन पर सरायघाट एक्सप्रेस पकड़ने के लिए पहुंच गए। अब हमें गोहाटी जाना था। ट्रेन आने पर हमने अपनी-अपनी सीट संभाली और चल पड़े गोहाटी की ओर।

इस रास्ते में सबसे पहले जाने पहचाने नाम का स्टेशन बोलपुर मिला, जिसको सोमनाथ चटर्जी के कारण जाना जाता है, यह बरसों से उनका संसदीय क्षेत्र रहा है। इस इलाके में चाय बगान भी है। यहां 36 गढ और उड़ीसा से बरसों पूर्व काम की तलाश में आने वाले लोग भी रहते हैं। उन्हे यहां के लोग आदिवासी कह के सम्बोधित करते हैं। लेकिन आदिवासियों की सूची में उनका नाम नहीं है। यहां के काफ़ी लोग मुझे दिल्ली में जार्ज फ़र्नांडीज के यहां मिले थे, मैं उनकी इस समस्या से वहीं पर रुबरु हुआ था। यहां के आदिवासियों के विषय में मैं पूर्व से ही जानता था।

अगले स्टेशन पर जब ट्रेन पहुंची तो यह भी जाना पहचाना लगा। एक समय में यह स्टेशन अखबारों की सूर्खियाँ बना रहता है, इसका नाम है कोकराझार। यह उल्फ़ा के हमलों के कारण हमेशा चर्चा में बना रहता था। अगले स्टेशन मालदा पहुंचते तक हमें जोर की भूख लग चुकी थी। घर का बना सूखा खाना भी खत्म हो चुका था, इसलिए बाहर के खाने की ओर रुख करना पड़ा। मालदा स्टेशन पर पहुंच कर खाना ढुंढा तो वहां मैदा की रोटियाँ बनी हुई थी और आलु का साग। चावल भी नहीं था। मजबूरी में मैदा की रोटी खानी पड़ी, बड़ी मुस्किल से दो रोटियाँ खाई, यहां रसगुल्ला सस्ता मिल रहा था। एक रुपए में एक रसगुल्ला। मैने पांच रसगुल्ले खाए मनाही होते हुए भी। भूख जो शांत करनी थी। बाकी साथियों ने भी रसगुल्ले खाए। न्यु जलपाई गुड़ी आने से पहले हम लोग खर्राटे भरने लगे।

उत्तर-पूर्व में सुबह जल्दी होती है, एटानगर से जब मेरे मित्र आचार्य तेजनारायण आर्य मुझे फ़ोन करते थे तो यहां सुबह का 4 बजे रहता था, हमारे यहां सुबह 5-6 बजे होती है जबकि अरुणाचल में सुबह 4 बजे ही हो जाती है। इस हिसाब से यहां 4/30 के आस पास दिन निकल आया था। हम जाग चुके थे। लेकिन कुछ कुम्भकर्ण अभी भी सोए हुए थे। मैने जाग कर प्रकृति का नजारा लिया। अद्भुत मनोरम दृश्य था। बरसाती सुबह थी, नदी नाले भरे हुए थे, चारों तरफ़ हरियाली थी, पहाड़ों पर बादल चक्कर काट रहे थे। सूरज कि किरणे चोटियों पर पड़ रही थी। कभी सूरज बादलों में छुप जाता था और छांया हो जाती थी। पहाड़ों की तराई में अंधेरा हो जाता था। खेतों में किसान पहुंच चुके थे। हल चल रहा था। हल में बैलों के साथ भैंसे की जुताई भी होती है। बहुत ही मनमोहक वातावरण था।

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शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

बेलूर मठ और कलकत्ता की बस-------यात्रा 5

दक्षिणेश्वर मंदिर हुगली गंगा के किनारे पर स्थित हैं यहां से बेलुर मठ के लिए नाव जाती है जो कि नदी के दूसरे किनारे पर स्थित है। हूगली नदी पानी से लबालब भरी हुई थी। बताते हैं इस नदी में शार्क मछलियां भी है जो यदा कदा मछुआरों के जाल में फ़ंस जाती है। इस नदी के बीच में पानी मे से रेत निकालने वाली मशीन भी लगी हैं जो रेत निकाल कर नाव में भरती है और यह रेत भवन निर्माताओं तक पहुंचती है। इस तरह नदी के पानी में से रेत निकालना मैने पहली बार देखा था। नाव वाले ने एक साथ 25 लोगों को नाव में सवार किया। इसका किराया प्रति व्यक्ति 10 रुपए था। हमारे साथ और भी अन्य लोग सवार हुए, कुछ लोगों ने सवार होने से पहले नाव को प्रणाम किया। मैं यह सब देख रहा था।

बरसात का मौसम होने के कारण नदी का पानी हिलोरें ले रहा था। नाव डगमगाती सी लगती थी। यहां नाव डूबने की घटनाएं होते रहते हैं। हमें तो तैरना आता है, लेकिन नदी के बहते पानी में तैरना और स्विमिंग पुल में तैरने में बहुत अंतर है। लेकिन मैने नदी में भी बहुत तैराई की है, इसलिए नदी में तैरने का भी अनुभव है। कुछ टूरिस्ट हमारे साथ नाव पर दार्जलिंग के भी मिल गए। उन्होने बताया कि दार्जलिंग में अभी तो छुट्टी चल रही हैं। वे सरकारी कर्मचारी है। दार्जलिंग में गोरखा आन्दोलन के चलते सभी दफ़्तर बंद हैं। कर्मचारी घर में बैठ कर आराम कर रहे हैं या पर्यटन के लिए निकल गए हैं। बोड़ो, गोरखा, नगा, कुकी, उल्फ़ा, सुल्फ़ा, इत्यादि आन्दोलनों ने इस सुंदर उत्तर-पूर्व के क्षेत्र के लोगों का जीना हराम कर दिया है। यह इलाका भी स्वर्ग से कम नही है। लेकिन उग्रवादी लोगों को स्वर्गवासी बनाने पर तूले हुए हैं। हमारी उनसे चर्चा होते रही। थोड़ी देर में नाव बेलुर मठ के पिछले दरवाजे के पास बने घाट पर लग चुकी थी, हम बेलुर मठ तक पहुंच चुके थे।

बेलूर मठ में एक बहुत सुंदर विशाल भवन है, जिसके चित्र यदा कदा देखने में आते हैं, यहां पर रामकृष्ण परम हंस की मूर्ती रखी हुई है। जिसके दर्शन निश्चित समय पर कराए जाते हैं। हम भी हाल में जाकर चुप चाप बैठ गए, कोई दो घंटे के बाद दर्शन हुए। लोगों ने आरती इत्यादि की। इसके बाद हम बेलुर मठ में घुमने निकले। एक जगह विवेकानंद विश्रांति स्थल हैं जहां पर उनका स्मारक बनाया हुआ है। इसे ओम मंदिर भी कहा जाता है। बेलुर मठ में दोपहर को भोजन मुफ़्त मिलता है, इसके लिए टोकन लेकर लाईन लगानी पड़ती है। हमारे पास इतना समय नहीं था कि टोकन लेकर भोजन के लिए लाईन लगायें। इसलिए हम बेलुर मठ से दर्शन करके बाहर निकल गए, और बस पकड़ने के लिए रोड़ तक पैदल चल कर पहुंचे।

बाबा धाम की यात्रा में हम अपने साथ कैमरे नहीं रखते क्योंकि रास्ते में कांवड़ियों के साथ लूट पाट हो जाती है। मैने सिर्फ़ मोबाईल रखा था सस्ता जिससे बात हो सके और लुट जाने पर कोई तकलीफ़ न हो। बाकी साथियों ने तो मोबाईल भी नहीं रखा था सब घर पर छोड़ आए थे। बात करनी होती थी तो एसटीडी पर कर लेते थे और उन्होने अपने घर मेरा मोबाईल नम्बर दे रखा था। इमरजेंसी में उनके घर के लोग मेरे मोबाईल पर फ़ोन कर सकते थे। इसलिए इस यात्रा के चित्र मेरे पास उपलब्ध नहीं है। जो भी चित्र हैं सब गुगल से साभार लिए गए हैं। अगर किसी को आपत्ति होती है तो हटा दिए जा सकते हैं।सड़क पर पहुंच कर हमने चाय पी, चाय का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि यह कुछ विशेष है, हमने 5-5 कप चाय पी थी। यहां 1 रुपए में चाय छोटे छोटे सकोरे में दी जाती है जिसमें सिर्फ़ एक घूंट चाय ही आती है। इसलिए हमें अपनी चाय की इच्छा शांत करने के लिए 5-5 सकोरे चाय पी । इसके बाद कलकत्ता की नगरीय बस सेवा का आनंद पहली बार लिया। इतनी खटारा बस में हम पहली बार बैठे होगें। इसकी बॉडी भी अंग्रेजों के जमाने की लकड़ियों की बनी हुई थी। टीन टप्पर लगा हुआ था, जो बाबूजी की पैंट फ़ाड़ने के लिए काफ़ी था। हिचकोले लेती हुई बस कलकत्ता शहर के बीचों बीच रही थी जमाने को चिढाते हुए। अरे दो चार रुपए किराया बढा दो लेकिन बसें तो अच्छी रखो। ऐसी सलाह हमने बस वालों को दी।

चित्र - गुगल से साभार
ललित शर्मा Indli - Hindi News, Blogs, Links

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

जय काली कलकत्ते वाली-दक्षिणेश्वर धाम-- यात्रा 4

मैने देखा कि बंगाल के ग्रामीण अंचल में गरीबी अधिक है, लोग प्राकृतिक संसाधनों पर ही जीवन गुजर बसर कर रहे हैं। बंगाल की कम्युनिस्ट राजनीति ने इन्हे कहीं का नहीं छोड़ा। कम्युनिस्टों का कैडर इनकी जान के पीछे पिस्सुओं जैसे पड़ा रहता है। हर पल इनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता पर नजर रखी जाती है। अगर कोई धोखे से भी किसी दूसरी पार्टी की रैली या भाषण में खड़ा दिख गया तो उसकी शासकीय सुविधाएं जैसे पेंशन-राशन इत्यादि बंद कर दिया जाता है। इसलिए गरीब आदमी सुविधा खोने के डर से किसी दूसरी राजनैतिक पार्टी की ओर चाह कर भी नहीं देख पाता। जिसमें शासकीय सुविधाएं ठुकराने की हिम्मत है वही दूसरे राजनैतिक दलों की ओर जाता है। गरीबी कम्युनिस्टों के शासन की कलई खोलते हुए दिखाई देती है।
13 जुलाई को हम सुबह स्नान प्रात:राश आदि से निवृत्त होकर दक्षिणेश्वर के दर्शन के लिए चल पड़े। हमने हावड़ा स्टेशन से ही ट्रेन पकड़ ली, जिसने हमें दक्षिणेश्वर के करीब के स्टेशन पर पहुंचा दिया। स्टेशन का नाम भूल रहा हूँ, फ़िर इस स्टेशन से हम ओवर ब्रिज पर चढे और वहां से दक्षिणेश्वर के लिए ऑटो लिया। 40 रुपए में ऑटो वाले ने हमें वहां पहुंचा दिया। आज रविवार का दिन था। दक्षिणेश्वर में बहुत भीड़ थी। कलकत्ता आने वाला हर मुसाफ़िर दक्षिणेश्वर के मंदिर में दर्शन करने अवश्य जाता है। इस मंदिर का बहुत  बड़ा प्रांगण है। मंदिर के प्रवेश के लिए लम्बी लाईन लगी हुई थी। 
दक्षिणेश्वर के विषय में जानकारी है कि इसका निर्माण सन 1847 में प्रारंभ हुआ था। जान बाजार की महारानी रासमणि ने स्वप्न देखा था, जिसके अनुसार माँ काली ने उन्हें निर्देश दिया कि मंदिर का निर्माण किया जाए। इस भव्य मंदिर में माँ की मूर्ति श्रद्धापूर्वक स्थापित की गई। सन 1855 में मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। यह मंदिर 25 एकड़ क्षेत्र में स्थित है।माँ काली का मंदिर विशाल इमारत के रूप में चबूतरे पर स्थित है। इसमें सीढि़यों के माध्यम से प्रवेश कर सकते हैं। दक्षिण की ओर स्थित यह मंदिर तीन मंजिला है। ऊपर की दो मंजिलों पर नौ गुंबद समान रूप से फैले हुए हैं। गुंबदों की छत पर सुन्दर आकृतियाँ बनाई गई हैं। मंदिर के भीतरी स्थल पर दक्षिणा माँ काली, भगवान शिव पर खड़ी हुई हैं। देवी की प्रतिमा जिस स्थान पर रखी गई है उसी पवित्र स्थल के आसपास भक्त बैठे रहते हैं तथा आराधना करते हैं।
हमने एक दुकान वाले के पास जूते चप्पल उतारे और पूजा का सामान लिया। लाईन में लग गए।मंदिर के अंदर काली माई का विग्रह है, यहां रामकृष्ण परम हंस को अनुभूति हूई थी। एक घंटे तक लाईन में लगने के बाद दर्शन का हमारा नम्बर आया। पत्र-पुष्प चढाकर हमने प्रसाद लिया और वहीं कुछ देर बैठ गए। इस मंदिर के प्रांगण में द्वादश ज्योतिर्लिंग भी बनाए गए हैं। हमने इन ज्योतिर्लिंगों पर जल अर्पित किया। यहां एक खास बात देखने में आई कि सभी लोग मौली के धागों में बंधे हुए छोटे-छोटे मिट्टी के ठिकरे ले रहे थे और उन्हे अपनी बांह पर ताबीज जैसे बांध रहे थे। मैने बहुत सारे बंगालियों को ये ठीकरे बांधे हुए पहले भी देखा था।लेकिन अब जाकर पता चला था कि ये ठीकरे दक्षिणेश्वर काली मंदिर से लिए जाते हैं।
मंदिर से निकासी के रास्ते पर रामकृष्ण परम हंस की बैठक है, जहां पर वे बैठकर अपने शिष्यों को ज्ञान दिया करते थे। आगंतुकों से मिलते थे। वहां पर उनका तख्त भी रखा है। माता शारदा एवं विवेकानंद के चित्र भी लगे हैं, उनकी स्मृतियाँ यहां संजोकर रखी गयी हैं। हम भी कुछ देर इस कमरे में बैठे, बहुत शांति मिली। सकारात्मक उर्जा हमेशा मानव मन को शांत और चित्त को स्थिर करती है। ऐसा ही कुछ अनुभव यहां पर हुआ। मोबाईल सब स्विच ऑफ़ कर दिए जाते हैं। यहां से निकल कर हम उस स्थान पर पहुंचे जहां रामकृष्ण बैठा करते थे पेड़ की छांव में। यहां एक कुटिया बना दी गयी और उसका दरवाजा बंद कर दिया गया था। यहां पर भी हमने कुछ देर विश्राम किया। अब थोड़ा बहुत नास्ता करके हम नाव की सवारी को तैयार थे।

चित्र-गुगल से साभार

ललित शर्मा

चलती-का-नाम-गाड़ी, Indli - Hindi News, Blogs, Links

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

सुन्दरवन, गंगा का डेल्टा, गंगा सागर, शेर, मधुमक्खी,कलकत्ता--यात्रा 3

मारी मंजिल 170 किलोमीटर दूर थी। रास्ते में काफ़ी हरियाली थी। 1 बजे हम काक द्वीप पहुंचे। यहां गंगा नदी अपना डेल्टा बनाती है, जिसे सुंदर वन कहते हैं, सुंदर वन में अभी शेर हैं,यदा कदा मछुवारों पर इनके हमले की खबर आते रहती है। ये शेर पानी में शिकार करने के अभ्यस्त हो गए हैं, पानी में चुपके से तैर कर नाव पर हमला बोल देते हैं। सुंदर वन में मधुमक्खी के छत्ते भी बहुत है, सैकड़ों परिवारों का रोजगार इन छत्तों से शहद निकालने से चलता है। ये विशेष जाति के लोग शहद ही निकालते हैं अपनी जान जोखिम में डालकर क्योंकि कभी भी शेर के हमले का शिकार हो सकते हैं। एक खासियत और है ये कभी मधुमक्खी के छत्ते को जड़ से खत्म नहीं करते, जितने हिस्से में शहद है उसे ही तेज धार हंसिए से काट लेते हैं।

यहां पर गंगा नदी का पाट लगभग2-3 किलोमीटर चौड़ा है, गंगा सागर वाले द्वीप तक पहुंचाने के लिए बड़े-बड़े स्टीमर चलते हैं जिसमें सैकड़ों आदमी, अपनी भेड़-बकरी सायकिल, मोटर सायकिल के साथ बैठ जाते हैं। हर घंटे में यहां स्टीमर आता और जाता है। प्रति सवारी शायद साढे तीन रुपया किराया लिया। यहां किराया बहुत सस्ता है। हम टिकिट लेकर स्टीमर में सवार हो गए। ड्रायवर ने बताया की उस पार जाने में लगभग डेढ घंटा लगेगा। हम लोगों ने विचार किया कि खुली छत पर ही बैठकर नजारे देखे जाएं। हम टीन की बनी हुई छत पर बैठ गए और वहीं पर भोजन भी किया। भोजन हम अपने साथ ले गए थे। डॉक्टर श्रीधर के यहां की बनी हुई इटली यहां काम आई।

हम डेल्टा में पहुंचे यहां से सागर का किनारा 32 किलो मीटर की दूरी पर है। हमने फ़िर यहां एक टाटा सूमो 500रुपए में किराए पर ली, जो कि हमे वापस भी पहुंचाएगा। जब हम यहां के सागर के किनारे पर पहुंचे तो ऐसा लगा कि जैसे मॉरिसश का कोई सागर तट है। बहुत ही सुंदर सागर तट है। मैने लगभग भारत के सभी सागर तट देखे हैं, लेकिन मुझे सबसे सुंदर यहां का सागर तट लगा। यहां मकर सक्रांति को मेला भरता है दुनिया भर के तीर्थ यात्री यहां आते हैं। कहा गया है कि”सारे तीरथ बार बार-गंगा सागर एक बार” कहते हैं कि यहां कपिल मुनि ने आश्रम बनाकर तपस्या की थी। वह आश्रम अब समुद्र में समा गया है। मकर सक्रांति को ज्वार आने पर वह आश्रम दिखाई देता है और वहां दर्शन होते थे, ऐसी किवदंती है। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है।

समुद्र के किनारे पूजा का सामान बेचने वालों की दुकाने हैं। वे बिछाने के लिए पालिथिन भी देते हैं जिसपर आप सामान और कपड़े भी रख सकते हैं, लेकिन कपड़ों का ध्यान रखना जरुरी है, नहीं तो अंडरवियर में ही कलकत्ता वापस आना पड़ेगा। यहां नारियल पानी मिलता है, काफ़ी बड़ा नारियल था मैं तो एक भी पूरा नहीं पी सका। हमने लगभग डेढ घंटे समुद्र में अठखेलियाँ की, जम कर स्नान किया। उपर का पानी गरम था और अंदर का पानी ठंडा। दूर-दूर तक समुद्र ही समुद्र अपनी विशालता और महानता प्रदर्शित कर रहा था। एक पंडा महाराज पहुंच गए,उनसे हमने समुद्र पूजा कराई।

अब हम कपिल मुनि के मंदिर पहुंचे जो समुद्र से डेढ किलोमीटर पर बना हुआ है। मंदिर के पुजारी से मेरी चर्चा हुई, उसने बताया कि समुद्र के अंदर की कपिल मुनि की मूर्ती को बाहर निकाल कर यहीं मंदिर में स्थापित किया गया है। यह मंदिर हनूमान गढी अयोध्या वालों की देख रेख में संचालित होता है। सभी पुजारी वहीं से आते हैं। हमने मंदिर में पूजा करवाई और प्रसाद लिया। गांव में बांटना जो था। तीर्थ यात्रा का प्रसाद इष्ट मित्रों के यहां पहुंचाने की परम्परा है। हम अपनी गाड़ी के पास पहुंचे क्योंकि आखरी स्टीमर के जाने का समय हो रहा था। उसका भोंपू बज जाता तो हमें रात गंगा सागर में ही गुजारनी पड़ती

हमें स्टीमर टाईम पर मिल गया। इतना समय भी मिल गया कि हम चाय पी सकें। वहीं किनारे पर बने हुए एक होटल में चाय पी। स्टीमर चल पड़ा। उस पार हमारी टैक्सी इंतजार कर रही थी। आज रथ यात्रा का दिन था याने रथ दूज, यहां रथ यात्रा का त्योहार जोर शोर से मनाया जाता है। रास्ते में जगह-जगह रथ यात्रा के कारण सड़कें जाम मिली। सारी भीड़ बाजे-गाजे के साथ सड़क पर ही थी। हम रात 9 बजे कलकत्ता पहुंचे। युएसए ने कहा कि अब के सी दास के होटल में मिठाई खाएंगे, यह कलकत्ता का मशहूर होटल हैं जहां मिठाइयाँ बनते ही बिक जाती हैं। मेरा मन नहीं था मिठाई खाने का, इन्होने सब तरह की मिठाइयाँ चखी। मैने सिर्फ़ संदेश का स्वाद लिया। फ़िर पहुंच गए अपने रिटायरिंग रुम में बिस्तर पर लोटने के लिए।    

गंगा सागर के विषय में पौराणिक जानकारी हेतु यहां क्लिक करें।

फ़ोटो गुगल से साभार

ललित शर्मा Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

चले बाबा की नगरिया-हम पहुंच गए कलकत्ता--यात्रा 2

यात्रा प्रारंभ से पढें---ट्रेन आ चुकी थी, हमने अपनी-अपनी सीटें संभाल ली, देवी भैया इटली लेकर आए थे। बैठते ही सब की इच्छा से उनकी इटली पर हाथ साफ़ किया। क्योंकि इटली को ज्यादा देर रखना ठीक नहीं था। खराब हो सकती थी,आपस में हंसी मजाक चलती रही। दे्वी भैया से पू्छा गया कि कुछ लेने का इरादा है क्या? अभी तो सावन नहीं लगा है। थोड़ी देर में वह तैयार हुए,कुछ सज्जनों ने मना कर दिया, देवी भैया और मैने मन बना लिया था, आगे रायगढ़ आने वाला था। मैने विजय भाई साहब को फ़ोन करके फ़रमाईश बता दी। वे सब इंतजाम करके स्टेशन पहुंच गए मिनरल वाटर की बोतल में।

पहले मैने देवी भैया को दिया, तो उन्होने पहले श्रध्दा से बोतल को सिर में लगा कर प्रणाम किया, सब सवारियां उनकी हरकत को देख रही थी, लोग सोच रहे थे कि ये पानी को प्रणाम करके क्यों पी रहा है। मैं भी हंस रहा था कि जिन मंगाने का कोई मतलब ही नहीं निकला, इसने सारी पोल तो खोल ही दी। सभी मित्र उनकी इस भोली हरकत पर मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। आधी बोतल खत्म करने के बाद उन्होने मेरी ओर बढाई, मैने उसे कम्पलीट कर दिया। अब सारी सवारियों में हम दोनो पहचाने गए। अब खा पीकर अपनी-अपनी सीटें सीधी कर ली। उड़ीसा में प्रवेश कर रहे थे। इसके बाद बिहार और बंगाल आने वाला था।

एक बात और बताता चलुं, जो कि मैने इतने सफ़र में महसूस की। मुझे सफ़र में विभिन्न प्रातों , भाषाओ और संस्कृतियों के लोग मिले। सबसे मेरी बातचीत होती है, और सफ़र के साथी होने के कारण कभी किसी सहयोग की आवश्यकता पड़ी तो उन्होने सहयोग भी किया है। लेकिन बंगाली लोग इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। वे सफ़र में आपका कोई सहयोग नहीं करेंगे, ये मान कर चलिए, क्योंकि मैने कई बार आजमा कर देख लिया है। आपको बैठने के लिए सीट नहीं देगें, भले ही पूरी सीट खाली पड़ी हो। बंगाली में बात-चीत शुरु कर देंगे जिससे आपकी समझ में नहीं आए, अकेले रहे तो बिना बोले ही 1000-2000किलो मीटर का सफ़र तय कर लेंगे। मेरा तो यही अनुभव रहा है,हो सकता है किसी का अनुभव अच्छा रहा हो।

सूर्योदय हुआ तो हम खड़गपुर के पास पहुंच चुके थे। हम जितना पूर्व की तरफ़ जाएगें सूर्योदय जल्दी ही होगा। चारों तरफ़ बरसात का पानी खेतों में भरा हुआ था। हरियाली ही हरियाली के दर्शन हो रहे थे। हम हावड़ा पहुंचने वाले थे। वैसे हमारा ट्रेन को हावड़ा सुबह 6-7 बजे पहुंच जाना था। लेकिन विलंब होने के कारण 9 बजे हावड़ा स्टेशन पहुंचे। हावड़ा में वर्षा हो रही थी। स्टेशन के सामने प्रसिद्ध हावड़ा ब्रिज दिखाई दे रहा था। बड़ा अद्भुत दृश्य था। हावड़ा ब्रिज सामने ही था।

 अब यहां हमें रुकना था। सोचा कि आगे कि यात्रा करनी है इसलिए स्टेशन में ही रिटायरिंग रूम ले लिया जाए, रिटायरिंग रुम 8 आदमियों के लिए तो होना चाहिए। सभी को एक साथ ही रुकना है।  हमने रिटायरिंग रुम ले लिया और नहा धोकर एक टैक्सी 1800 रुपए में किराए की। स्टेशन के बाहर निकलते ही टैक्सी वाले पीछे पड़ गए थे। एक टाटा सूमो वाले से मामला पट ही गया। 10/30 बजे हम गंगा सागर चल पड़े। कलकत्ता बहुत पूराना शहर है बहुत भीड़ भरा है, हमने ट्राम देखी जो शहर के बीचों बीच चल रही थी, रेल की पटरियों पर चलती हुई बस जैसी लग रही थी। आगे पढें
ललित शर्मा
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

चलिए बाबा की नगरिया-पहला पड़ाव कलकत्ता---यात्रा1

सावन का महीना हिन्दू धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस पूरे माह को भोले बाबा के नाम से अर्पित किया गया है। जगह-जगह कांवर यात्राएं चलती हैं। लोग नदियों से जल लेकर भोले बाबा को चढाते हैं और अपनी मनौती मानते हैं। ऐसी ही एक प्रसिद्ध यात्रा पर हम चलते हैं सुल्तानगंज से बैजनाथ धाम(देवघर) तक। हम सब मित्र रायपुर से प्रतिवर्ष सावन के महीने में यात्रा करते हैं। बड़ा मजा आता है, एक रुट निर्धारित कर उसकी सर्कुलर टिकिट बनाई जाती है, फ़िर चल पड़ते हैं सब यात्रा में। इस वर्ष 11 जुलाई को हमारी यात्रा निर्धारित हुई। यात्रा के संयोजन का काम उमाशंकर अग्रवाल याने युएसए बखूबी संभालते हैं।यात्रा मार्ग निर्धारित करने के साथ टिकिट तक की व्यवस्था करते हैं। बहुत जिम्मेदार और धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। इनका साथ आनंददायी रहता है।

मुझे इन्होने फ़ोन से बताया कि-“महाराज टिकिट हो गयी है और अपने को 11 जुलाई को शाम 4 बजे मुंबई हावड़ा मेल से चलना है। हमने अपनी तैयारी की, एक गांधी झोला, दो जोड़ी केसरिया कुर्ता-हाफ़पैंट,एक अंगोछा, दवाईयाँ,नारियल तेल की शीशी(ये मैने क्यों रखी?इसका विषय में आगे चल कर बताऊंगा)खाने का सूखा सामान, और अपना पहचान पत्र (पहचान पत्र-अत्यावश्यक है-इसे कभी न भूलें,नही तो कम से कम वोटर आई डी कार्ड ही रख लें)बस जितना कम से कम सामान से गुजारा हो जाए,उतना रख लिया था।(वैसे हमारे साथ एक डॉक्टर भी है, इसलिए दवाई रखने की जरुरत कम ही थी, फ़िर भी अपने हिसाब रख ही लिया।) क्योंकि कभी भी जरुरत पड़ सकती है।

जब मैं रेल्वे स्टेशन पहुंचा तो डॉक्टर श्रीधर राव, उमाशंकर अग्रवाल, निन्नी महाराज, देवी शंकर अय्यर, बबलु भाई, दिनेश मिश्रा, कमलकांत, रेल्वे स्टेशन पर मिले। गर्मजोशी से राम राम हूई। एक बंदे का और इंतजार था, रवि श्रीवास  का, लेकिन ये महाशय टिकिट बनने के बाद भी नहीं आए। अब हम बैजनाथ धाम जाने  के लिए तैयार थे। जहां सुल्तान गंज से बैजनाथ मंदिर तक 115 किलो मीटर पैदल चल कर जाना पड़ता है। मैं इस यात्रा के लिए उत्साहित था तथा इस बार संकल्प कर लिया था कि पैदल चल कर ही जाऊंगा। मैने 15 दिनों तक लगातार नगें पैर पैदल चल कर भी देख लिया था। मैं एक घंटे में 10 किलोमीटर नान स्टाप चल लेता था। इसका परीक्षण भी अच्छी तरह से कर लिया।

पहले भी हम लोग साथ आते थे, लेकिन ये सभी पहले ही मेरा मनोबल तोड़ देते थे। रास्ता बहुत खराब है, नहीं चल सकोगे यार, पैर में छाले हो जाते हैं, फ़िर तुम्हे कौन संभालेगा। यहां तो सब अपना-अपना देखते हैं। एक बार यात्रा शुरु होने के बाद कहीं बिछड़ गए तो मुस्किल हो जाएगी, नयी जगह है लूट-पाट भी हो जाती है कावंरियों के साथ, फ़लाने को पिछले साल कलकतिया के पास लूट लिया था,एक काम करना तुम बस से निकल जाना जल लेकर 3दिन में हम मिल लेंगे तुमसे देवघर में,इत्यादि नाना प्रकार की बातें करते थे। बस यह सुनकर हिम्मत जवाब दे जाती थी। लेकिन इस बार मैने इनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दि्या।

यात्रा प्रारंभ होने से पहले एक बात बताता चलुं कि कुछ नियमों का पालन करना है। आपको पूरी यात्रा नंगे पैर करनी है, कांवर को जमीन पर नहीं रखना है, स्नान के समय तेल और साबुन का उपयोग नहीं करना है। कावंर को पीठ की तरफ़ से घुमाकर कंधा नहीं बदलना है, खाने,लघु शंका या शौचादि के बाद कपड़े सहित स्नान करना है, कुत्ते से बचकर चलना है, पीछे मुड़कर नहीं देखना है, किसी कावरिएं को ओवरटेक नहीं करना है, अगर करना है तो उसे संबोधित कर दो (जैसे-साईड बम बोलो) जिससे वह अपने-आप रास्ता दे दे। बोल बम का उद्घोष करते चलो, अपने साथी की आहट लेनी है तो उसका नाम लेकर बोल बम बोलो, अगर वह आपके पीछे होगा तो आपका नाम लेकर जवाब दे देगा। जिससे आपको पता चल जाएगा कि वह साथ ही है। जारी है-आगे पढें........
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